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'हैदर' वो है जिसने उम्मीद नहीं छोड़ी है -मिहिर पांड्या

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-मिहिर पांड्या ये दिल्ली में सोलह दिसंबर के बाद के हंगामाख़ेज दिन थे। अकेलेपन के दड़बों से निकल इक पूरी पीढ़ी सड़क पर थी। उम्मीद के धागे का अन्तिम सिरा था हमारे हाथों में अौर एक-दूसरे का हाथ थामे हम खड़े थे, दिन भीड़ भरे चौराहों पर अौर रातें शहर की सुनसान सड़कों पर निकल रही थीं। ऐसे ही एक गुनगुनी धूप वाले दिन जब हमें लोहे की गाड़ी में भरकर अाये पुलिसिया जत्थे ने कनॉट प्लेस से ठेल दिया था अौर हम ढपली की थाप पर जंतर-मंतर की अोर बढ़ रहे थे, नेतृत्वकारी लड़कियों ने नारे छोड़ फिर वही अपनी पसन्द की टेक उठा ली थी… बाप से लेंगे अाज़ादी, खाप से लेंगे अाज़ादी.. अरे हम क्या चाहते – अाज़ादी… “अाज़ादी” की वो टेक जिसे कुछ समय पहले कश्मीर के नौजवान ने ज़िन्दा किया था। वो नौजवान जिसने उसका घर घेरकर बैठी सशस्त्र सेना का सामना हाथ में उठाए पत्थर से किया। वो ‘अाज़ादी’ जिसका हासिल जितना सार्वजनिक पटल पर कठिन है, उससे कहीं ज़्यादा घर की चारदीवारी के भीतर मुश्किल है। ‘अाज़ादी, क्यूंकि गुलामी की रात जितनी अंधेरी होती है स्वतंत्रता का सपना उतना ही मारक तीख़ा होता है। श्रीनगर के लाल चौक पर

सियासत और सेना की नजर से ना देखें कश्मीर -धर्मेन्‍द्र उपाध्‍याय

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-धर्मेन्‍द्र उपाध्‍याय                          मजबूर इंसानों की आंहे कभी खाली नहीं जाती हैं,  चाहे इन आहों से कोई त्वरित क्रांति नहीं हो पर भविष्य में इन आहों का असर आवाम के बीच उनकी दबी सिसकियों को जरूर रखता है । अगर एक लाइन में कहूं तो हैदर के बारे में इतना ही कहना चाहूंगा ।   उत्तर भारत में रह रहे भारतीयों ने काश्मीर को हमेशा सेना और सियासत के नजरिए से देखा है । कश्मीर से उठने वाली अलगाव वादी आवाजों को एक ही झटके में आतंकवाद का नाम देकर हम हाशिये पर फेंक देते हैं पर किसी ने उन आवाजों में छुपे बेगुनाह मासूमों की तरफ नही देखा है जो चाहे अनचाहे आतंकवाद नहीं, जिंदगी के हक में खड़े हुए हैं। हैदर भले ही अपने शीर्षक के कारण शाहिद कपूर स्टारर फिल्म नजर आती हो पर  वह अंदर से तब्बू की फिल्म है । इस फिल्म मेंतब्बू के निभाए किरदार गजाला मीर के जरिए विशाल भारद्वाज उन औरतों की आत्मा में उतर जाते हैं जो अपने रूप सौंदर्य और अपने पारिवारिक लगाव के अंर्तद्वंद में घिरी रहती हैं ।  हर किशोरवय उम्र के बच्चे की मां को यह फिल्म देखनी चाहिए और महसूस करना चाहिए कि कहीं वह अपनी भावुक संतान के प्यार को ब

हर फ्रेम शेक्सपीयराना है- जयप्रकाश चौकसे

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- जयप्रकाश चौकसे   प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2014 विशाल भारद्वाज की "हैदर' शेक्सपीयर के सबसे महान और सबसे लंबे नाटक से प्रेरित फिल्म है। चार हजार पंक्तियों के इस नाटक पर सबसे अधिक शोध हुए हैं और अनगिनत व्याख्याएं उपलब्ध हैं। इस कृति की महानता का यह आलम है कि हैमलेट शेक्सपीयर को कभी मरने नहीं देगा, जन्मदाता शिशु के नाम से भी जाना जाए, यह एक विलक्षण बात है। विशाल भारद्वाज ने भी इसी तर्ज पर अपना नाम दर्ज कर दिया है और वे ताउम्र "हैदर' के नाम से जाने जाएंगे। एक सौ इकसठ मिनट की फिल्म की हर फ्रेम, हर क्षण पूरी तरह शेक्सपीयराना है। यूटीवी भी बधाई की पात्र है जिसने चालीस करोड़ का जोखम लिया है। इसमें पैसे की हानि तो अवश्य होगी परंतु कई काम लाभ-हानि के परे किए जाते हैं। लक्ष्मी पूजन का एक मात्र सत्य भी धन की पूजा नहीं है, यहां तक कि बहीखाते में भी लाभ शुभ और शुभ लाभ के दो हिस्से हैं। विगत साठ वर्षों में कश्मीर में अनगिनत फिल्मों की शूटिंग हुई है परंतु विशाल भारद्वाज कश्मीर की अंतड़ियों में पहुंचे हैं और वर्षों से हो रहे अन्याय का मवाद वे दिखाते हैं तथा यह

कश्मीर के आज़ाद भविष्य से इत्तेफ़ाक रखती है हैदर - मेहेर वान

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मेहेर वान का यह रिव्‍यू 'हैदर' को एक अलग नजरिए से देखता है। मेरी इच्‍छा है कि 'हैदर' पर अलग दृष्टिकोण और सोच से दूसरे मित्र भी लिखें। 'हैदर' अपने समय की खास पिफल्‍म है। इस प आम चर्चा होनी चाहिए। -          मेहेर वान प्राथमिक रूप से “हैदर” कश्मीर के एक गाँव में बसे एक परिवार की कहानी है, जिसमें एक ईमानदार और अपने उसूलों पर विश्वास करने वाला पिता है, सुन्दर और उपेक्षित माँ है, कुटिल चाचा है, और एक लड़का है जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। कहानी मूल रूप से भावनाओं और संवेदनाओं का एक कोलाज़ है जिसमें हर पात्र अपनी-अपनी इच्छाओं, भावनाओं और संवेदनाओं के कारण या तो षणयंत्रों का शिकार होकर दुख सहता है या षणयंत्रों का कर्त्ता-धर्त्ता होकर अपने-अपने सुख भोगता है। चूँकि फ़िल्म प्रसिद्ध अंग्रेज़ी साहित्यकार विलियम शेक्सपियर के नाटक ’ हेमलेट ’ पर आधारित है, अतः फ़िल्म भी मूल नाटक की तरह ट्रेज़ेडी के रूप में अंत होती है। सिर्फ़ हैदर को छोड़कर कहानी के अधिकतम मुख्य पात्र मार दिये जाते हैं। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफ़ी और लोकेशंश का चयन अच्छा है। हालाँकि विशाल भारद्वाज

दरअसल : शाह रुख खान की सोच

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-अजय ब्रह्मात्मज        पिछले पांच सालों में हिंदी सिनेमा में विस्तार के साथ प्रगति हुई है। फिल्में बड़ी और विहविध हुई हैं। नई प्रतिभाओं को पहचान मिली है। एक जोश है,जो फिल्म निर्माण से लकर दर्शकों के बीच तक महसूस किया जा रहा है। कुछ लोग इस हलचल को समझते हुए अपनी फिल्मों की प्लानिंग कर रहे हैं तो कुछ अभी तक परंपरा में बेसुध पड़े हैं। उन्हें लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री वैसे ही चलती रहेगी,जैसे चलती आ रही है। परिवत्र्तन का समान्य नियम है कि बदलती चीजें तत्काल प्रभाव से दूष्टिगोचर नहीं होतीं। सुबह से शाम होने तक में धरती घूम जाती है। कुछ निठल्ले सोए रहते हैं।     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आ रहे बदलाव को अच्छी तरह समझने वालों में एक शाह रुख खान हैं। उन्होंने हाल ही में एक टे्रड पत्रिका के पांच साल पूरे होने पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का जायजा लेते हुए कुछ संकेत दिए हैं। उन्होंने बहुत सफाई से अपनी बात रखी है। संभावनाओं और खतरों की बातें करते हुए उन्होंने नई प्रतिभाओं से उम्मीद की है कि वे भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहेंगे। इस लेख में उन्होंने अपनी फिल्मों और फैसलों के साक्ष्य से समझाने

फिल्‍म समीक्षा : हैदर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  1990 में कश्मीर में आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट के लागू होने के बाद सेना के दमन और नियंत्रण से वहां सामाजिक और राजनीतिक स्थिति बेकाबू हो गई थी। कहते हैं कि कश्मीर के तत्कालीन हालात इतने बदतर थे कि हवाओं में नफरत तैरती रहती थी। पड़ोसी देश के घुसपैठिए मजहब और भारत विरोध केनाम पर आहत कश्मीरियों को गुमराह करने में सफल हो रहे थे। आतंक और अविश्वास के उस साये में पीर परिवार परस्पर संबंधों के द्वंद्व से गुजर रहा था। उसमें शामिल गजाला, हैदर, खुर्रम, हिलाल और अर्शिया की जिंदगी लहुलूहान हो रही थी और सफेद बर्फ पर बिखरे लाल छीटों की चीख गूंज रही थी। विशाल भारद्वाज की 'हैदर' इसी बदहवास दौर में 1995 की घटनाओं का जाल बुनती है। 'मकबूल' और 'ओमकारा' के बाद एक बार फिर विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर के कंधे पर अपनी बंदूक रखी है। उन्होंने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा कि प्रकाश झा ने अपनी फिल्मों में नक्सलवाद को हथिया लिया वर्ना उनकी 'हैदर' नक्सलवाद की पृष्ठभूमि में होती। जाहिर है विशाल भारद्वाज को 'हैदर' की पृष्ठभूमि के लिए राज

फिल्‍म समीक्षा : बैंग बैंग

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  हॉलीवुड की फिल्म 'नाइट एंड डे' का अधिकार लेकर हिंदी में बनाई गई 'बैंग बैंग' पर आरोप नहीं लग सकता कि यह किसी विदेशी फिल्म की नकल है। हिंदी फिल्मों में मौलिकता के अभाव के इस दौर में विदेशी और देसी फिल्मों की रीमेक का फैशन सा चल पड़ा है। हिंदी फिल्मों के मिजाज के अनुसार यह थोड़ी सी तब्दीली कर ली जाती है। संवाद हिंदी में लिख दिए जाते हैं। दर्शकों को भी गुरेज नहीं होता। वे ऐसी फिल्मों का आनंद उठाते हैं। सिद्धार्थ आनंद की 'बैंग बैंग' इसी फैशन में बनी ताजा फिल्म है। इस फिल्म के केंद्र में देश के लिए काम कर रहे सपूत राजवीर की कहानी है। हर प्रकार से दक्ष और योग्य राजवीर एक मिशन पर है। हरलीन के साथ आने से लव और रोमांस के मौके निकल आते हैं। बाकी फिल्म में हाई स्पीड और हाई वोल्टेज एक्शन है। पूरी फिल्म एक के बाद एक हैरतअंगेज एक्शन दृश्यों से भरी है, जिनमें रितिक रोशन विश्वसनीय दिखते हैं। उनमें एक्शन दृश्यों के लिए अपेक्षित चुस्ती-फुर्ती है। उनके साथ कट्रीना कैफ भी कुछ एक्शन दृश्यों में जोर आजमाती है। वैसे उनका मुख्य काम सुंदर दिखना और

फिल्‍म समीक्षा : देसी कट्टे

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-बजय ब्रह्माम्‍तज               आनंद कुमार की फिल्म 'देसी कट्टे' में अनेक विषयों को एक ही कहानी में पिरोने की असफल कोशिश की गई है। यह फिल्म दो दोस्तों की कहानी है, जो एक साथ गैंगवॉर, अपराध, राजनीति का दुष्चक्र, खेल के प्रति जागरूकता, समाज में बढ़ रहे अपराधीकरण आदि विषयों को टटोलने का प्रयास करती है। नतीजतन यह फिल्म किसी भी विषय को ढंग से पेश नहीं कर पाती। इसमें कलाकारों की भीड़ है। भीड़ इसलिए कि उन किरदारों को लेखक ने ठोस और निजी पहचान नहीं दी है। यही कारण है कि आशुतोष राणा, अखिलेंद्र मिश्रा, सुनील शेट्टी आदि के होने के बावजूद फिल्म बांध नहीं पाती।               ऐसी फिल्मों में कथ्य मजबूत हो तो अपेक्षाकृत नए कलाकार भी फिल्म के कंटेंट की वजह से प्रभावित करते हैं। आनंद कुमार ने नए कलाकारों को निखरने का मौका नहीं दिया है। 'देसी कट्टे' हिंदी में बन चुकी अनेक फिल्मों का मिश्रण है, जो नवीनता के अभाव में रोचक नहीं लगती। फिल्म कई स्तरों और स्थानों पर भटकती है। अपराधियों की दुनिया में सबकी वेशभूषा एक जैसी बना दी गई है। अपने डील-डौल और रंग-ढंग में भी वे सब एक

फिल्‍म समीक्षा : चारफुटिया छोकरे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    लेखक-निर्देशक मनीष हरिशंकर ने बाल मजदूरी के साथ बच्चों के अपहरण के मुद्दे को 'चारफुटिया छोकरे' में छूने की कोशिश की है। उन्होंने बिहार के बेतिया जिले के एक गांव बिरवा को चुना है। उनके इस खयाली गांव में शोषण और दमन की वजह से अपराध बढ़ चुके हैं। संरक्षक पुलिस और व्यवस्था से मदद नहीं मिलने से छोटी उम्र में ही बच्चे अपराध की अंधेरी गलियों में उतर जाते हैं। इस अपराध का स्थानीय संचालक लखन है। सरकारी महकमे में सभी से उसकी जान-पहचान है। वह अपने लाभ के लिए किसी का भी इस्तेमाल कर सकता है। इस पृष्ठभूमि में नेहा अमेरिका में सुरक्षित नौकरी छोड़ कर लौटती है। उसकी ख्वाहिश है कि अपने पूर्वजों के गांव में वह एक स्कूल खोले। गांव में स्कूल जाते समय ही उसकी मुलाकात तीन छोकरों से होती है। वह उनके जोश और चंचल व्यवहार से खुश होती है। स्कूल पहुंचने पर नेहा को पता चलता है कि तीनों छोकरे शातिर अपराधी हैं। उनकी कहानी सुनने पर मालूम होता है कि दमन के विरोध में उन्होंने हथियार उठा लिए थे। नेहा स्वयं ही प्रण करती है कि वह इन बच्चों को सही रास्ते पर

दरअसल : प्रसंग दीपिका पादुकोण का

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-अजय ब्रह्मात्मज     प्रसंग कुछ हफ्ते पुराना हो गया,लेकिन उसकी प्रासंगिकता आगे भी बनी रहेगी। पिछले दिनों एक अंग्रेजी अखबार ने दीपिका पादुकोण की एक तस्वीर छापी और लिखा ‘ओ माय गॉड : दीपिका पादुकोण’स क्लीवेज शो’। थोड़ी ही देर में पहले दीपिका पादुकोण ने स्वयं इस पर टिप्पणी की। उन्होंने उस अखबार के समाचार चयन पर सवाल उठाया। बात आगे बढ़ी तो दीपिका ने बोल्ड टिप्पणी की। ‘हां,मैं औरत हूं? मेरे स्तन और क्लीवेज हैं। आप को समस्या है??’ दीपिका की इस टिप्पणी और स्टैंड के बाद ट्विटर और सोशल मीडिया समेत रेगुलर मीडिया में दीपिका के समर्थन में लिखते हुए फिल्मी हस्तियों और अन्य व्यक्तियों ने उक्त मीडिया की निंदा की। गौर करें तो फिल्म कलाकारों के प्रति मीडिया का यह रवैया नया नहीं है। आए दिन अखबारों,पत्रिकाओं,वेब साइट और अन्य माध्यमों में फिल्म कलाकारों पर भद्दी टिप्पणियों के साथ उनकी अश्लील तस्वीरें छापी जाती हैं। शुद्धतावादियों का तर्क है कि फिल्म कलाकार ऐसे कपड़े पहनते हैं तो कवरेज में क्लीवेज दिखेगा ही। क्या आप को इस तर्क में यह नहीं सुनाई पड़ रहा है कि लड़कियां तंग कपड़े पहनती हैं तो उत्तेजित पुरुष

दरअसल : फिल्म समीक्षा की नई चुनौतियां

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-अजय ब्रह्मात्मज     इस साल सोशल मीडिया खास कर ट्विटर पर दो फिल्मों की बेइंतहा तारीफ हुई। फिल्म बिरादरी के छोटे-बड़े सभी सदस्यों ने तारीफों के ट्विट किए। ऐसा लगा कि फिल्म अगर उनकी तरह पसंद नहीं आई तो समझ और रसास्वादन पर ही सवाल होने लगेंगे। ऐसी फिल्में जब हर तरफ से नापसंद हो जाती हैं तो यह धारणा बनती है कि फिल्म बिरादरी की तहत सिर्फ औपचारिकता है। पहले शुभकामनाएं देते थे। अब तारीफ करते हैं। फिल्म बिरादरी इन दिनों कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गई है। वे फिल्म पत्रकारों और समीक्षकों का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते। आए दिन कहा जाता है कि अब समीक्षक अप्रासंगिक हो गए हैं। उनकी समीक्षा से फिल्म का बिजनेस अप्रभावित रहता है। वे कमर्शियल मसाला फिल्मों के उदाहरण से साबित करना चाहते हैं कि भले ही समीक्षकों ने पसंद नहीं किया,लेकिन उनकी फिल्में 100 करोड़ से अधिक बिजनेस कर गईं। धीरे-धीरे दर्शकों के मानस में यह बात भी घर कर गई है कि फिल्म का बिजनेस ही आखिरी सत्य है। बाजार और खरीद-बिक्री के इस दौर में मुनाफा ही आखिरी सत्य हो गया है।     इन दिनों प्रिव्यू या किसी शो से निकलते ही संबंधित निर्माता,निर्देशक,

आत्मविश्वास से लंबे डग भरतेअभिषेक बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज     हमेशा की तरह अभिषेक बच्चन की मुलाकात में मुस्कान तैरती रहती है। उनकी कबड्डी टीम पिंक पैंथर्स विजेता रही। इस जीत ने उनकी मुस्कान चौड़ी कर दी है। अलग किस्म का एक आत्मविश्वास भी आया है। आलोचकों की निगाहों में खटकने वाले अभिषेक बच्चन के नए प्रशंसक सामने आए हैं। निश्चित ही विजय का श्रेय उनकी टीम को है,लेकिन हर मैच में उनकी सक्रिय मौजूदगी ने टीम के खिलाडिय़ों का उत्साह बढ़ाया। इस प्रक्रिया में स्वयं अभिषेक बच्चन अनुभवों से समृद्ध हुए।     वे कहते हैं, ‘जीत तो खैर गर्व की अनुभूति दे रहा है। अपनी टीम के खिलाडिय़ों से जुड़ कर कमाल के अनुभव व जानकारियां मिली हैं। हम मुंबई में रहते हैं। सुदूर भारत में क्या कुछ हो रहा है? हम नहीं जानते। उससे अलग-थलग हैं। हमारी टीम में अधिकांश खिलाड़ी सुदूर इलाकों से थे। मैं तो टुर्नामेंट शुरू होने के दो हफ्ते पहले से उनके साथ वक्त बिता रहा था। उनसे बातचीत के क्रम में उनकी जिंदगी की घटनाओं और चुनौतियों के बारे में पता चला। उनके जरिए मैं सपनों की मायावी दुनिया से बाहर निकला। असली इंडिया व उसकी दिक्कतों के बारे में पता चला। उन तमाम दिक्कतों के

फिल्‍म समीक्षा : दावत-ए-इश्‍क

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                 मुमकिन है यह फिल्म देखने के बाद स्वाद और खुश्बू की याद से ही आप बेचैन होकर किसी नॉनवेज रेस्तरां की तरफ भागें और झट से कबाब व बिरयानी का ऑर्डर दे दें। यह फिल्म मनोरंजन थोड़ा कम करती है, लेकिन पर्दे पर परोसे और खाए जा रहे व्यंजनों से भूख बढ़ा देती है। अगर हबीब फैजल की'दावत-ए-इश्क में कुछ व्यंजनों का जिक्र भी करते तो फिल्म और जायकेदार हो जाती। हिंदी में बनी यह पहली ऐसी फिल्म है,जिसमें नॉनवेज व्यंजनों का खुलेआम उल्लेख होता है। इस लिहाज से यह फूड फिल्म कही जा सकती है। मनोरंजन की इस दावत में इश्क का तडक़ा लगाया गया है। हैदराबाद और लखनऊ की भाषा और परिवेश पर मेहनत की गई है। हैदराबादी लहजे पर ज्‍यादा मेहनत की गई है। लखनवी अंदाज पर अधिक तवज्‍जो नहीं है। हैदराबाद और लखनऊ के दर्शक बता सकेंगे उन्हें अपने शहर की तहजीब दिखती है या नहीं? हबीब फैजल अपनी सोच और लेखन में जिंदगी की विसंगतियों और दुविधाओं के फिल्मकार हैं। वे जब तक अपनी जमीन पर रहते हैं, खूब निखरे और खिले नजर आते हैं। मुश्किल और अड़चन तब आती है, जब वे कमर्शियल दबाव में आ

फिल्‍म समीक्षा : खूबसूरत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    शशांक घोष की 'खूबसूरत' की तुलना अगर हृषिकेष मुखर्जी की 'खूबसूरत' से करने के इरादे से सोनम कपूर की यह फिल्म देखेंगे तो निराशा और असंतुष्टि होगी। यह फिल्म पुरानी फिल्म के मूल तत्व को लेकर नए सिरे से कथा रचती है। एक अनुशासित और कठोर माहौल के परिवार में चुलबुली लड़की आती है और वह अपने उन्मुक्त नैसर्गिक गुणों से व्यवस्था बदल देती है। निर्देशक शशांक घोष और उनके लेखक ने मूल फिल्म के समकक्ष पहुंचने की भूल नहीं की है। उन्होंने नए परिवेश में नए किरदारों को रखा है। 'खूबसूरत' सामंती व्यवहार और आधुनिक सोच-समझ के द्वंद्व को रोचक तरीके से पर्दे पर ले आती है। एक हादसे से राजसी परिवार में पसरी उदासी इतनी भारी है कि सभी मुस्कराना भूल गए हैं। वे जी तो रहे हैं, लेकिन सब कुछ नियमों और औपचारिकता में बंधा है। परिवार के मुखिया घुटनों की बीमारी से खड़े होने और चलने में समर्थ नहीं हैं। उनकी देखभाल और उपचार के लिए फिजियोथिरैपिस्ट मिली चक्रवर्ती का आना होता है। दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में पंजाबी मां और बंगाली पिता की बेटी मिली चक्रवर्ती उ

आज की फीलिंग्स है ‘मां का फोन’ में

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-अजय ब्रह्मात्मज इन दिनों ‘खूबसूरत’ का गाना ‘मां का फोन’ रिंग टोन के रूप में लडकियों के फोन पर बज रहा है। गाने बोल इतने चुटले और प्रासंग्कि हैं कि इस गाने से लड़कियां इत्तफाक रखती हैं। और सिर्फ लड़कियां ही नहीं लडक़े भी मानते हैं कि मां की चिंताओं और जिज्ञासाओं से अनेक बार उनकी मस्ती में खलल पड़ती है। नए दौर की मौज-मस्ती अनग किस्म की है। फोन हमेशा सभी के साथ में रहता है। मोबाइल पर अचानक मां का फोन आता है तो तो इस गाने जैसा ही माहौल बनता है। ‘खूबसूरत’ के इस गाने को अमिताभ वर्मा ने लिखा है। पिछले कुछ सालों से वे फिल्मों में छिटपुट गाने लिख कर अपनी पहचान बना चुके हैं। अनुराग बसु निर्देशित ‘लाइफ इन मैट्रो’ के लिए लिखा उनका गाना ‘अलविदा’ बहुत पॉपुलर हुआ था। ‘अग्ली और पगली’ के लिए लिखा उनका गीत ‘मैं टल्ली हो गई’ भी पार्टी गीत के तौर पर खूब बजा।     इन पॉपुलर गीतों के बावजूद अमिताभ वर्मा गीत लेखन के रूप में अधिक सक्रिय नहीं रहे। बीच में वे अपनी फिल्म के लेखन में व्यस्त रहे। वे स्वयं उसे निर्देशित करने के लिए आउटउोर पर जाने वाले थे कि मंदी की मार में उनकी फिल्म अटक गई। गीत लेखन की शुरुआत

‘खूबसूरत’ में टोटल रोमांस है-सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज -‘खूबसूरत’ बनाने का आइडिया कहां से आया? इन दिनों फैमिली फिल्में नहीं बन रही हैं। पहले की हिंदी फिल्में पूरे परिवार के साथ देखी जाती थीं। अब ऐसा नहीं होता। ऐसी फिल्में बहुत कम बन रही हैं। इन दिनों फिल्मों में किसी प्रकार का संदेश भी नहीं रहता। राजकुमार हीरानी की फिल्म वैसी कही जा सकती है। अभी कंगना रनोट की ‘क्वीन’ आई थी। ‘इंग्लिश विंग्लिश’ को भी इसी श्रेणी में डाल सकते हैं। -कम्िरर्शयल फिल्मों के साथ कलात्मक फिल्में भी तो बन रही हैं? मुझे लगता है कि इन दिनों मसाला फिल्मों के अलावा जो फिल्में बन रही हैं, वे डार्क और डिप्रेसिंग र्हैं। उनमें निगेटिव किरदार ही हीरो होते हैुं। एंटरटेनिंग फिल्मों के लिए मान लिया गया है कि उनमें दिमाग लगाने की जरूरत नहीं हैं। बीच की फिल्में नहीं बन रही हैं। इस फिल्म का ख्याल यहीं से आया। -इस फिल्म का फैसला किस ने लिया? आप बहनों ने या पापा(अनिल कपूर) ने? पापा इस फैसले में शामिल नहीं थे। उन्होंने टुटू शर्मा से फिल्म के अधिकार लिए । रिया और शशांक के साथ मिल कर मैंने यह फैसला लिया। -क्या ‘खूबसूरत’ की रेखा की कोई झलक सोनम कपूर में दिखेगी? हो ही

रणवीर सिंह के तीन रूप

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फिल्‍म समीक्षा -फाइंडिंग फैनी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    सबसे पहले यह हिंदी की मौलिक फिल्म नहीं है। होमी अदजानिया निर्देशित फाइंडिंग फैनी मूल रूप से इंग्लिश फिल्म है। हालांकि यह हॉलीवुड की इंग्लिश फिल्म से अलग है, क्योंकि इसमें गोवा है। गोवा के किरदारों को निभाते दीपिका पादुकोण और अर्जुन कपूर हैं। इन्हें हम पसंद करने लगे हैं। यह इंग्लिश मिजाज की भारतीय फिल्म है, जिसे अतिरिक्त कलेक्शन की उम्मीद में हिंदी में डब कर रिलीज कर दिया गया है। इस गलतफहमी में फिल्म देखने न चले जाएं यह हिंदी की एक और फिल्म हैं। हां, अगर आप इंग्लिश मिजाज की फिल्में पसंद करते हैं तो जरूर इसे इंग्लिश में देखें। भाषा और मुहावरों का वहां सटीक उपयोग हुआ है। हिंदी में डब करने में मजा खो गया है और प्रभाव भी। कई दृश्यों में तो होंठ कुछ और ढंग से हिल रहे हैं और सुनाई कुछ और पड़ रहा है। यह एक साथ इंग्लिश और हिंदी में बनी फिल्म नहीं है। इन दिनों हॉलीवुड की फिल्में भी डब होकर हिंदी में रिलीज होती हैं, लेकिन उनमें होंठ और शब्दों को मिलाने की कोशिश रहती है। फाइंडिंग फैनी में लापरवाही झलकती है। गोवा के एक गांव पाकोलिम में फाइंडिंग फैनी की किर

फिल्‍म समीक्षा : क्रीचर

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-अजय ब्रह्माात्‍मज    एक जंगल है। आहना अपने अतीत से पीछा छुड़ा कर उस जंगल में आती है और एक नया बिजनेस आरंभ करती है। उसने एक बुटीक होटल खोला है। उसे उम्मीद है कि प्रकृति के बीच फुर्सत के समय गुजारने के लिए मेहमान आएंगे और उसका होटल गुलजार हो जाएगा। निजी देख-रेख में वह अपने होटल को सुंदर और व्यवस्थित रूप देती है। उसे नहीं मालूम कि सकी योजनाओं को कोई ग्रस भी सकता है। होटल के उद्घाटन के पहले से ही इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। शुरु से ही खौफ मंडराने लगता है। विक्रम भट्ट आनी सीमाओं में डर और खौफ से संबंधित फिल्में बनाते रहे हैं। उनमें से कुछ दर्शकों को पसंद आई हैं। इन दिनों विक्रम भट्ट इस जोनर में कुछ नया करने की कोशिश में लगे हैं। इसी कोशिश का नतीजा है क्रीचर। विक्रम भट्ट ने देश में उपलब्ध तकनीक और प्रतिभा के उपयोग से 3डी और वीएफएक्स के जरिए ब्रह्मराक्षस तैयार किया है। उन्होंने इसके पहले भी अपनी फिल्मों में भारतीय मिथकों का इस्तेमाल किया है। इस बार उन्होंने ब्रह्मराक्षस की अवधारणा से प्रेरणा ली है। ब्रह्मराक्षस का उल्लेख गीता और अन्य ग्रंथों में मिलता है। हिंदी के विख

दरअसल : 'फाइंडिंग फैनी' के संकेत

-अजय ब्रह्मात्मज     होमी अदजानिया की अर्जुन कपूर और दीपिका पादुकोण अभिनीत 'फाइंडिंग फैनी' के प्रचार में कहीं नहीं कहा जा रहा है कि यह अंग्रेजी फिल्म है। इसमें पंकज कपूर, डिंपल कपाडिय़ा और नसीरुद्दीन शाह जैसे दिग्गज कलाकार भी हैं। फिल्म के कुछ गाने हिंदी में आए। यह संभ्रम ैपैदा हो रहा है कि यह हिंदी फिल्म ही है। दरअसल, यह अंग्रेजी फिल्म है। इसमें हिंदी फिल्मों के पॉपुलर चेहरे हैं। इसे हिंदी में डब किया जाएगा, जैसे 'डेल्ही बेल को किया गया था। 'फाइंडिंग फैनी के हंसी-मजाक और महौल में गोवा की गंध है और भाषा मुख्य रूप से अंग्रेजी और कोंकणी रखी गई है। फिल्म के निर्देशक होमी अदजानिया का दावा है कि वे इस फिल्म से भारतीय फिल्मों का प्रचलित ढांचा तोड़ेंगे। स्पष्ट शब्दों में कहें तो वे फिल्मों की भाषा अंग्रेजी करना चाहते हैं। अपनी इस जरूरत के लिए वे हिंदी फिल्मों के पॉपुलर सितारों का उपयोग कर रहे हैं।     क्या 'फाइंडिंग फैनी' की सफलता से मुंबई में अंग्रेजी फिल्मों के निर्माण का चलन बढ़ेगा? अगर चलन बढ़ा तो फिल्म इंडस्ट्री के युवा लेखकों, निर्देशकों और कलाक

आशुतोष गोवारिकर ले आएंगे ‘एवरेस्ट’

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-अजय ब्रह्मात्मज     आशुतोष गोवारिकर टीवी पर आ रहे हैं। 1987 से 1999 के बीच कुछ धारावाहिकों और फिल्मों में अभिनय करने के बाद आशुतोष गोवारिकर ने ‘लगान’ फिल्म के निर्देशन से बड़ी सफलता हासिल की। ‘लगान’ से पहले वह ‘पहला नशा’ और ‘बाजी’ जैसी चालू फिल्में निर्देशित कर चुके थे। ‘लगान’ के बाद उन्होंने ‘स्वदेस’ और ‘जोधा अकबर’ जैसी फिल्में निर्देशित कीं। उनकी पिछली दो फिल्में ज्यादा नहीं चलीं। फिलहाल उन्होंने रितिक रोशन के साथ ‘मोहनजोदाड़ो’ की घोषणा की है। इसकी शूटिंग अक्टूबर में आरंभ होगी। अक्टूबर में ही उनके निर्देशन में बन रहे टीवी शो ‘एवरेस्ट’ का प्रसारण आरंभ होगा।     टीवी शो ‘एवरेस्ट’ की कहानी है। वह अपने पिता के सपनों को पूरा करने के लिए एक एडवेंचर पर निकलती है। शो की जानकारी देते हैं आशुतोष गोवारिकर,‘यह 21 साल की एक लडक़ी की कहानी है,जिसे आज पता चला है कि उसके पिता नहीे चाहते थे कि उसका जन्म हो। उनकी समझ में बेटियां बेटों के मुकाबले में कमतर होती हैं। बेटा होता तो वह मेरे सपने पूरा करता। वह अपने पिता से बेइंतहा प्यार करती है,लेकिन इस जानकारी से हतप्रभ रह जाती है। वह अपने पिता से न

खुशकिस्मत हूं मैं - फवाद खान

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-अजय ब्रह्मात्मज फवाद खान कुछ ऐसे दुर्लभ सितारों में हैं, जिनके प्रति पहली फिल्म से ही इतनी उत्सुकता बनी है। इसके पहले कपूर खानदान के रणबीर कपूर के प्रति लगभग ऐसी जिज्ञासा रही थी। फवाद के लिए यह इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि वह पाकिस्तानी मूल के एक्टर हैं। लाहौर में रचे-बसे फवाद ने माडलिंग और गायकी के बाद शोएब मंसूर की फिल्म ‘खुदा के लिए’ से एक्ंिटग की शुरुआत की। चंद साल पहले उन्हें मुंबई से एक फिल्म का आफर मिला था, लेकिन तब दोनों देशों के संबंध बिगडऩे की वजह से फवाद का भारत आ पाना संभव नहीं हो पाया था। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ मुहावरे के तर्ज पर फवाद 2014 में शशांक घोष की फिल्म ‘खूबसूरत’ में सोनम कपूर के साथ आ रहे हैं। फिल्म की रिलीज के पहले जिदंगी चैनल पर आए उनके टीवी ड्रामा ‘जिंदगी गुलजार है’ ने उनके लिए लोकप्रियता की कालीन बिछा दी है। भारत में फवाद के प्रशंसक बढ़ गए हैं। अपनी इस लोकप्रियता से फवाद भी ताज्जुब में हैं और बड़ी चुनौती महसूस कर रहे हैं।     -‘खूबसूरत’ आने के पहले आपकी लोकप्रियता का जबरदस्त माहौल बना हुआ है। बतौर पाकिस्तानी एक्टर आप किसे किस रूप में एं'वाय कर रहे