'हैदर' वो है जिसने उम्मीद नहीं छोड़ी है -मिहिर पांड्या
-मिहिर पांड्या ये दिल्ली में सोलह दिसंबर के बाद के हंगामाख़ेज दिन थे। अकेलेपन के दड़बों से निकल इक पूरी पीढ़ी सड़क पर थी। उम्मीद के धागे का अन्तिम सिरा था हमारे हाथों में अौर एक-दूसरे का हाथ थामे हम खड़े थे, दिन भीड़ भरे चौराहों पर अौर रातें शहर की सुनसान सड़कों पर निकल रही थीं। ऐसे ही एक गुनगुनी धूप वाले दिन जब हमें लोहे की गाड़ी में भरकर अाये पुलिसिया जत्थे ने कनॉट प्लेस से ठेल दिया था अौर हम ढपली की थाप पर जंतर-मंतर की अोर बढ़ रहे थे, नेतृत्वकारी लड़कियों ने नारे छोड़ फिर वही अपनी पसन्द की टेक उठा ली थी… बाप से लेंगे अाज़ादी, खाप से लेंगे अाज़ादी.. अरे हम क्या चाहते – अाज़ादी… “अाज़ादी” की वो टेक जिसे कुछ समय पहले कश्मीर के नौजवान ने ज़िन्दा किया था। वो नौजवान जिसने उसका घर घेरकर बैठी सशस्त्र सेना का सामना हाथ में उठाए पत्थर से किया। वो ‘अाज़ादी’ जिसका हासिल जितना सार्वजनिक पटल पर कठिन है, उससे कहीं ज़्यादा घर की चारदीवारी के भीतर मुश्किल है। ‘अाज़ादी, क्यूंकि गुलामी की रात जितनी अंधेरी होती है स्वतंत्रता का सपना उतना ही मारक तीख़ा होता है। श्रीनगर के लाल चौक पर