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रंग रसिया - फिल्मी पर्दे को कैनवस में बदलता सिनेमा : मृत्युंजय प्रभाकर

रंग रसिया जब से देखी थी तब से मेरे भीतर एक खास तरह की बेचैनी घर कर गई थी। मुझे इस फिल्म पर लिखना ही था। इस बीच कई सांसारिक बाधाएं बीच में आईं जिनके कारण लिखना संभव नहीं हो पा रहा था लेकिन इस फिल्म के ऊपर अपनी बात दर्ज करने का मौका मैं किसी भी तरह जाया नहीं करना चाहता था। सो लिख रहा हूं या कहें मेरे अंदर का चेतस मुझसे लिखवा ले रहा है।   ‘ रंग रसिया ’ पर लिखने या कुछ कहने से पहले मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि मैं इसे एक महान फिल्म की श्रेणी में नहीं रखता। वैश्विक तो छोड़ दीजिए भारत में बनी महान फिल्मों की श्रेणी में भी इसे नहीं रखा जा सकता। हां , इसे एक बेहतर फिल्म मानने में कोई गुरेज नहीं है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ की श्रेणी में बनी फिल्मों में एक बेहतर फिल्म जो आम दर्शकों को भी ध्यान में रखकर बनाई गई है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की एक ऐसी श्रेणी है जिसे दोनों वर्गों को

फिल्म समीक्षा : हैप्पी एंडिंग

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- अजय ब्रह्मात्मज   हिंदी फिल्में अपने मसाले और फॉर्मूले के लिए मशहूर हैं। कहा और माना जाता है कि रियल लाइफ में जो नहीं हो सकता, वह सब हिंदी फिल्मों में हो सकता है। 'हैप्पी एंडिंग' इन्हीं मसालों और फॉर्मूलों का मजाक उड़ाती हुई खत्म होती है। राज और डीके अभी तक थ्रिलर फिल्में निर्देशित करते रहे हैं। इस बार उन्होंने रोमांटिक कॉमेडी बनाने की कोशिश की है। उनके पास सैफ अली खान, इलियाना डिक्रूज और कल्कि कोचलिन जैसे कलाकार हैं। ऊपर से गोविंदा जैसे कलाकार का छौंक है। यूडी बेस्ट सेलर है। उसकी किताब ने नया कीर्तिमान स्थापित किया है, लेकिन पिछले कुछ सालों से सही हैप्पी एंडिंग नहीं मिल पाने की वजह से कुछ नहीं लिख पा रहा है। अपनी शोहरत और कमाई का इस्तेमाल वह अय्याशी में करता है। उसकी अनेक प्रेमिकाएं रह चुकी हैं। वह किसी के प्रति समर्पित और वफादार नहीं है। प्रेमिकाओं से 'आई लव यू' सुनते ही वह बिदक जाता है। यही वजह है कि उसकी एक प्रेमिका दूसरे लड़के से शादी कर दो बच्चों की मां बन चुकी है। फिलहाल विशाखा उस पर डोरे डाल रही है। यूडी उससे संबंध तोडऩा च

दरअसल : देश का इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल

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  -अजय ब्रह्मात्मज     गोवा में इस साल भी 20 नवंबर से 30 नवंबर के बीच फिल्मपे्रमियों का जमावड़ा होगा। सन् 2004 से गोवा ही इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का स्थायी ठिकाना है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सोच-समझ कर ही गोवा ठिकाना सुनिश्चित किया। उद्देश्य था कि दुनिया के मशहूर फिल्म समारोहों की तरह भारत में भी किसी ऐसे शहर में फिल्म फस्टिवल का आयेजन हो,जो पर्यटन के लिहाज से भी मनोरम हो। मौसम ठीक हो ताकि फिल्मप्रेमी फिल्मों का भरपूर आनंद उठा सकें। गोवा में आरंभ में संसाधनों की कमी रही। प्रशासन के ढीलेपन और नौकरशाही की नकेल की वजह से ये कमियां अभी भी पूरी तरह से दूर नहीं हो सकी हैं। पिछले दस सालों में फेस्टिवल की प्रासंगिकता बदली है। अब गोवा के वार्षिक आयोजन का आकर्षण कम हुआ है। इस बीच देश के अनेक शहरों में छोटे-बड़े फिल्म फेस्टिवल के आयोजन होने लगे हैं। इनमें मुबई में आयोजित फिल्म फेस्टिवल अग्रणी है। इस साल तो मूल स्पांसर के न होने पर भी इस फेस्टिवल का आयोजन हुआ। पहली बार स्थानीय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सितारों ने इसमें रुचि दिखाई। संख्या और स्थान बढऩे के बावजूद देश के प्रतिनिधि इंट

इरफान की अनौपचारिक बातें

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-अजय ब्रह्मात्मज मंजिल अभी बाकी है       सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रोफेशन चुना है,वह मेरे मकसद और लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए है। बाकी शोहरत,पैसा,नाम ... य़ह सब बायप्रोडक्ट है। यह सब तो मिलना ही था। इनके बारे में सोच कर नहीं चला था। जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे? अभी पहुंचे भी कहां हैं। सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था ...य़ह सब काम आएगा क्या? मैंने अपनी सादगी में कह दिया था कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था। तब यह मेरा इरादा था। पता नहीं था कि कैसे होगा ...क्या होगा? हर मां तो ऐसे ही परेशान रहती है। उन्हें लगता है कि हम वक्त बर्बाद कर रहे हैं। उन्होंने जो दुनिया नहीं देखी है,उसमें जाने की बात से ही कांप जाती हैं। अपने देश में हर मां-बाप की चिंता रहती है कि बच्चे कैसे और कब कमाने लगेंगे? बदल गया है सिनेमा      अभी सिनेमा बदल गया है। करने लायक कुछ फिल्मे

फिल्‍म समीक्षा : किल दिल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  भारतीय समाज और समाज शास्त्र में बताया जाता रहा है कि मनुष्य के स्वभाव और सोच पर परवरिश और संगत का असर होता है। जन्म से कोई अच्छा-बुरा नहीं होता। इस धारणा और विषय पर अनेक हिंदी फिल्में बन चुकी हैं। शाद अली ने इस मूल धारणा का आज के माहौल में कुछ किरदारों के जरिए पेश किया है। शाद अली की फिल्मों का संसार मुख्य रूप से उत्तर भारत होता है। वे वहां के ग्रे शेड के किरदारों के साथ मनोरंजन रचते हैं। इस बार उन्होंने देव और टुटु को चुना है। इन दोनों की भूमिकाओं में रणवीर सिंह और अली जफर हैं।             क्रिमिनल भैयाजी को देव और टुटु कचरे के डब्बे में मिलते हैं। कोई उन्हें छोड़ गया है। भैयाजी उन्हें पालते हैं। आपराधिक माहौल में देव और टुटु का पढ़ाई से ध्यान उचट जाता है। वे धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में कदम रखते हैं। भैयाजी के बाएं और दाएं हाथ बन चुके देव और टुटु की जिंदगी मुख्य रूप से हत्यारों की हो गई है। वे भैयाजी के भरोसेमंद शूटर हैं। सब कुछ ठीक चल रहा है। एक दिन उनकी मुलाकात दिशा से हो जाती है। साहसी दिशा पर देव का दिल आ जाता है। किलर देव के दिल में प्रेम

दरअसल : माहौल बने बच्चों की फिल्मों का

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-अजय ब्रह्मात्मज     हर साल जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिवस के मौके पर घोषित बाल दिवस के समय हमें बच्चों की याद आती है। यह भी याद आता है कि बच्चों के लिए हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं में फिल्में नहीं बनतीं। हालांकि देश में बच्चों की फिल्मों के प्रचार-प्रसार के लिए बाल चित्र समिति बनी हुई है। जवाहर लाल नेहरू बच्चों से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने बच्चों की फिल्मों पर विशेष ध्यान देने के लिए बाल चित्र समिति के गठन पर जोर दिया था। सन् 1955 में ही बाल चित्र समिति की स्थापना हो गई थी। तब से अनेक गणमान्य फिल्मकार और कलाकार इसके अध्यक्ष रहे हैं। बाल चित्र समिति ने अभी तक 10 भाषाओं में 250 से अधिक फिल्मों का निर्माण किया है। चिल्ड्रेन फिल्म फेस्टिवल में इन फिल्मों को प्रदर्शित किया जाता है। इस मौके पर विदेशों की फिल्में भी भारतीय बच्चे देख पाते हैं। पिछले साल हैदराबाद में चिल्ड्रेन फिल्म फेस्टिवल का सफल आयोजन हुआ था। यह फेस्टिवल अपनी फिल्मों से अधिक इस वजह से सुर्खियों में रहा कि अनेक फिल्मकारों के बच्चों की फिल्में यहां प्रदर्शित की गईं। उनका हौसला बढ़ाने उनके मां-बाप वहां पहुंच गए थे।     बाल

जेड प्‍लस मतलब con man बनाम common man

आज जेड प्‍लस के निर्देशक डाॅ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी एक सवाल के जवाब में मीडिया को जिम्‍मेदार ठहराते हुए कहा कि con man की कहानी को आप देश के अंतिम व्‍यक्ति तक ले जाते हैं,लेकिन जब common man की कहानी बनती है तो क्‍या आप उसके साथ खड़े रहते हैं? मुझे लगता है कि इस बार आप के सामने अवसर आया है कि आप किस के साथ खड़े हैं ? देश के यबसे बड़े con man के साा या देश के common man के साथ।

करियर और अपनी संस्कृति को अलग नहीं कर सकता: गिरीश रंजन

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कल दिल्‍ली में गिरीश रंजन का निधन हुआ। मैं पहली बार उनसे 1980 के आसपसा मिला था। तब पटना शहर में 'कल हमारा है' की गूंज थी। मैं दिल्‍ली जाने की तैयारी कर रहा था। फिल्‍मों से मेरा संबंध दर्शक का था। बहुत बाद में मित्र विनोद अनुपम के सौजन्‍य से गिरीश रंजन से मिला। मैं उस मुलाकात में नतमस्‍तक रहा। मेरी अटूट धारणा है कि किसी भी रूप में पहले पहल शिक्षित और प्रभावित करने वाले आजन्‍म पूज्‍य होते हैं। उनके प्रति आदर कम नहीं हो सकता। गिरीश जी के प्रति मेरे मन में ऐसा ही आदर रहा। मैं मानता हूं कि यह बिहार का दुर्भाग्‍य है कि वह अपनी प्रतिभाओं को संबल नहीं देता। यह इंटरव्‍यू पुज प्रकाश के ब्‍लॉग मंडली से लिया है। चवन्‍नी के पाठक इस प्रतिभा से परिचित हों। इंटरव्‍यू में कही उनकी बातें प्रासंगिक हैं।  15 जून, 1934 ई. को पंछी, शेखपुरा में स्व. अलख नंदन प्रसाद जी के घर बालक गिरीश रंजन का जन्म हुआ l छ: भाई-बहनों में सबसे बड़े गिरीश रंजन ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद ही फिल्मों की दुनिया को अपना कैरियर चुना l प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे, मृणाल सेन, तरुण मजूमदार, तपन सिन्हा आदि के साथ काम