रंग रसिया - फिल्मी पर्दे को कैनवस में बदलता सिनेमा : मृत्युंजय प्रभाकर
रंग रसिया जब से देखी थी तब से मेरे भीतर एक खास तरह की बेचैनी घर कर गई थी। मुझे इस फिल्म पर लिखना ही था। इस बीच कई सांसारिक बाधाएं बीच में आईं जिनके कारण लिखना संभव नहीं हो पा रहा था लेकिन इस फिल्म के ऊपर अपनी बात दर्ज करने का मौका मैं किसी भी तरह जाया नहीं करना चाहता था। सो लिख रहा हूं या कहें मेरे अंदर का चेतस मुझसे लिखवा ले रहा है। ‘ रंग रसिया ’ पर लिखने या कुछ कहने से पहले मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि मैं इसे एक महान फिल्म की श्रेणी में नहीं रखता। वैश्विक तो छोड़ दीजिए भारत में बनी महान फिल्मों की श्रेणी में भी इसे नहीं रखा जा सकता। हां , इसे एक बेहतर फिल्म मानने में कोई गुरेज नहीं है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ की श्रेणी में बनी फिल्मों में एक बेहतर फिल्म जो आम दर्शकों को भी ध्यान में रखकर बनाई गई है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की एक ऐसी श्रेणी है जिसे दोनों वर्गों को