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अग्‍ली के लिए लिखे गौरव सोलंकी के गीत

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अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म अग्‍ली के गीत गौरव सोलंकी ने लिखे हैं। मेरा सामान उनके ब्‍लाग्‍ा का नाम है। उन्‍हें आप फेसबुक और ट्विटर पर भी पा सकते हैं। खुशमिजाज गौरव सोलंकी मुंबइया लिहाज से सोशल नहीं हैं,लेकिन वे देश-दुनिया की गतिविधियों से वाकिफ रहते हैं। इन दिनों वे एडवर्ल्‍ड में आंशिक रूप से सक्रिय हैं। और एक फिल्‍म स्क्रिप्‍ट भी लिख रहे हैं। प्रस्‍तुत हैं अग्‍ली के गीत... सूरज है कहां सूरज है कहाँ ,  सर में आग रे ना गिन तितलियां ,  अब चल भाग रे मेरी आँख में   लोहा है क्या मेरी रोटियों में काँच है गिन मेरी उंगलियां क्या पूरी पाँच हैं ये मेरी बंदूक देखो, ये मेरा संदूक है घास जंगल जिस्म पानी  कोयला मेरी भूख हैं   चौक मेरा गली मेरी,  नौकरी वर्दी मेरी   धूल धरती सोना रद्दी,  धूप और सर्दी मेरी   मेरी पार्किंग है,  ये मेरी सीट है तेरा माथा है ,  ये मेरी ईंट है तेरी मिट्टी से मेरी मिट्टी तक आ रही हैं जो ,  सारी रेलों से रंग से ,  तेरे रिवाज़ों से तेरी बोली से ,  तेरे मेलों से कीलें चुभती हैं चीलें दिखती हैं लकड़ियां गीली नहीं हैं तेल है, तीली यहीं है मेरा झंडा

बस अच्छी फिल्में करनी है - अनुष्का शर्मा

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फिल्मों के चयन में काफी एहतियात बरतती हैं अनुष्का शर्मा। 'पीके' में आमिर खान के साथ काम करके वह हैं काफी उत्साहित हैं। अजय ब्रह्मात्मज से साक्षात्कार के अंश... आपको इस बात का इल्म कब हुआ कि आप असल में अपने करियर से क्या चाहती हैं? मुझे पिछले दो-तीन सालों में इस बात का एहसास हुआ कि मुझे अपने करियर से चाहिए क्या? उन सालों में मैंने चार फिल्में की। सब में अलग-अलग टाइप के रोल थे। अलग-अलग और अपनी-अपनी किस्सागोई में महारथी निर्देशकों के संग काम करने का मौका मिला। वहां से मुझे लगने लगा कि मुझे क्या करना है। मैंने तय कर लिया कि मुझे सिर्फ अच्छी फिल्में ही करनी हैं और अच्छे-अच्छे निर्देशकों के संग काम करना है। यह एहसास सफलता से हुआ। अगर आप सफल न हुई होतीं तो ऐसा एहसास हो पाता? असफल रहने पर भी मैं ऐसी ही रहती। मेरे ख्याल से मैं ऐसी हूं तभी मुझे सफलता मिली है। मैंने वह सब नहीं किया, जो बहुत सारे लोगों ने मुझे सजेस्ट किया। वह भी तब, जब मैं रेस में भाग रही थी। यही वजह है कि पिछले छह सालों में मेरी फिल्मों का आंकड़ा डबल डिजिट में नहीं है। अब जब मैं इंडस्ट्री में अच्छी प

दरअसल : राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों के इतिहास में सलीम-जावेद की जोड़ी मशहूर रही है। दोनों ने अनेक सफल फिल्मों का लेखन किया। दोनों बेहद कामयाब रहे। उन्होंने फिल्मों के लेखक का दर्जा ऊंचा किया। उसे मुंशी से ऊंचे और जरूरी आसन पर बिठाया। उनके बाद कोई भी जोड़ी बहुत कामयाब नहीं रही।  लंबे समय के बाद राजकुमारी हिरानी और अभिजात जोशी की जोड़ी कुछ अलग ढंग से वैसी ही ख्याति हासिल कर रही है। अभी देश का हर दर्शक राजकुमार हिरानी के नाम से परिचित है। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘3 इडियट’ और इस हफ्ते आ रही ‘पीके’ के निर्देशक राजकुमार हिरानी ने हिंदी फिल्मों को नई दिशा दी है। उन्होंने मनोरंजन की परिभाषा बदल दी है। उन्होंने अपनी तीनों फिल्मों से साबित किया है कि मनोरंजन के लिए आसान और आजमाए रास्तों पर ही चलना जरूरी नहीं है। लकीर छोडऩे पर भी मंजिल तक पहुंचा जा सकता है।     अभिजात जोशी उनके सहयोगी लेखक हैं। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ से दोनों साथ आए। दोनों के बीच संयोग से मुलाकात हुई। 1992 में अयोध्या में घटना के बाद अहमदाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने ‘शैफ्ट ऑफ सनलाइट

इंपैक्‍ट 2014 : आमिर खान, कपिल शर्मा

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इंपैक्ट 2014 -अजय ब्रह्मात्‍मज आमिर खान     ‘सत्य की जीत’ का संदेश बुलंद करता अमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहला ऐसा अनोखा शो है, जिसमें मुख्य रूप से सामाजिक मुद्दों, कुरीतियों और चलन पर सवाल उठाए गए। विमर्श के केंद्र में लाए विषयों को आमिर खान ने आत्मीयता और गंभीरता के साथ न केवल पेश किया, बल्कि निदान, समाधान और विकल्प के भी सुझाव दिए। हर एपिसोड में किसी एक विषय के सभी पहलुओं को प्रस्तुत करते समय साक्ष्य रखे गए। ‘सत्यमेव जयते’ की टीम ने आमिर खान और उनके मित्र व सहयोगी सत्यजित भटकल के निर्देशन और निरीक्षण में वस्तुनिष्ठ रहते हुए विषयों का विश्लेषण और विमर्श किया। पहले सीजन में ही सत्यमेव जयते के प्रभाव से सरकारी और निजी संस्थानों को सुझाए रास्तों पर बढऩे की प्रेरणा मिली। आमिर खान के हर शो में निदान और सहयोग में सक्रिय व्यक्तियों और संस्थाओं के प्रयासों की मुखर प्रस्तुति रही। इस शो ने टीवी दर्शकों समेत भारतीय समाज में एक मन आंदोलन सा खड़ा कर दिया, जिसका निश्चित सामाजिक संदर्भ बना। इस साल आमिर खान ने शो के प्रसारण के बाद देश के किसी एक शहर में जाकर सीधे प्रसारण से स्थानीय नाग

फिल्‍म समीक्षा : पीके

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-अजय ब्रह्मात्‍मज .. ..बहुत ही कनफुजिया गया हूं भगवान। कुछ तो गलती कर रहा हूं कि मेरी बात तुम तक पहुंच नहीं रही है। हमारी कठिनाई बूझिए न। तनिक गाइड कर दीजिए... हाथ जोड़ कर आपसे बात कर रहे हैं...माथा जमीन पर रखें, घंटी बजा कर आप को जगाएं कि लाउड स्पीकर पर आवाज दें। गीता का श्लोक पढ़ें, कुरान की आयत या बाइबिल का वर्स... आप का अलग-अलग मैनेजर लोग अलग-अलग बात बोलता है। कौनो बोलता है सोमवार को फास्ट करो तो कौनो मंगल को, कौनो बोलता है कि सूरज डूबने से पहले भोजन कर लो तो कौनो बोलता है सूरज डूबने के बाद भोजन करो। कौनो बोलता है कि गैयन की पूजा करो तो कौनो कहता है उनका बलिदान करो। कौना बोलता है नंगे पैर मंदिर में जाओ तो कौनो बोलता है कि बूट पहन कर चर्च में जाओ। कौन सी बात सही है, कौन सी बात लगत। समझ नहीं आ रहा है। फ्रस्टेटिया गया हूं भगवान... पीके के इस स्वगत के कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के पेशावर में आतंकवादी मजहब के नाम पर मासूम बच्चों की हत्या कर देते हैं तो भारत में एक धार्मिक संगठन के नेता को सुर्खियां मिलती हैं कि 2021 तक वे भारत से इस्लाम और ईसाई

दरअसल : एनएफडीसी का फिल्म बाजार

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-अजय ब्रह्मात्मज     सन् 1975 में एनएफडीसी की स्थापना हुई थी। उद्देश्य था कि सार्थक सिनेमा को बढ़ावा दिया जाए। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में बन रही कमर्शियल फिल्मों के बीच से राह निकाली जाए। युवा निर्देशकों की सोच को समर्थन मिले और उनके लिए आवश्यक धन की व्यवस्था की जाए। एनएफडीसी के समर्थन से सत्यजित राय से लेकर रितेश बत्रा तक ने उम्दा फिल्में निर्देशित कीं। उन्होंने भारतीय सिनेमा में वास्तविकता के रंग भरे। सिनेमा को कलात्मक गहराई देने के साथ भारतीय समाज के विविध रूपों को उन्होंने अपनी फिल्मों का विषय बनाया। देश में पैरलल सिनेमा की लहर चली। इस अभियान से अनेक प्रतिभाएं सामने आईं। उन्होंने अपने क्षेत्र विशेष की कहानियों से सिनेमा में भारी योगदान किया। कमी एक ही रही कि ये फिल्में सही वितरण और प्रदर्शन के अभाव में दर्शकों तक नहीं पहुंच सकीं। ये फिल्में मुख्य रूप से फेस्टिवल और दूरदर्शन पर ही देखी गईं। समय के साथ तालमेल नहीं बिठा पाने के कारण पैरेलल सिनेमा काल कवलित हो गया।     धीरे-धीरे एनएफडीसी के बारे में यह धारणा विकसित हो गई थी कि उसके समर्थन से बनी फिल्में कभी रिलीज नहीं होती

दोनों हाथों में लड्डू : सुशांत सिंह राजपूत

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-अजय ब्रह्मात्मज सुशांत सिंह राजपूत की ‘पीके’ इस महीने रिलीज होगी। ‘पीके’ में उनकी छोटी भूमिका है। दिबाकर बनर्जी की ‘ब्योमकेश बख्शी’ में हम उन्हें शीर्षक भूमिका में देखेंगे। झंकार के लिए हुई इस बातचीत में सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अनुभवों, धारणाओं और परिवर्तनों की बातें की हैं।     फिल्मों में अक्सर किरदारों के चित्रण में कार्य-कारण संबंध दिखाया जाता है। लेखक और निर्देशक यह बताने की कोशिश करते हैं कि ऐसा हुआ, इसलिए वैसा हुआ। मुझे लगता है जिंदगी उससे अलग होती है। यहां सीधी वजह खोज पाना मुश्किल है। अभी मैं जैसी जिंदगी जी रहा हूं और जिन द्वंद्वों से गुजर रहा हूं, उनका मेरे बचपन की परवरिश से सीधा संबंध नहीं है। रियल इमोशन अलग होते हैं। पर्दे पर हम उन्हें बहुत ही नाटकीय बना देते हैं। पिछली दो फिल्मों के निर्देशकों की संगत से मेरी सोच में गुणात्मक बदलाव आ गया है। पहले राजकुमार हिरानी और फिर दिबाकर बनर्जी के निर्देशन में समझ में आया कि पिछले आठ सालों से जो मैं कर रहा था, वह एक्टिंग नहीं कुछ और थी। मैं आप को प्वॉइंट देकर नहीं बता सकता कि मैंने क्या सीखा, लेकिन बतौर अभिनेता मेरा विकास हुआ।

अब तीसरा शेड भी है सामने-राजपाल यादव

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-अजय ब्रह्मात्मज  ‘भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन’ की प्लानिंग 2010 में ही हो गई थी। मुंबई में 10-12 कलाकारों के पास इसकी स्क्रिप्ट गई। सभी मेरा किरदार मांग रहे थे। दिलीप की भूमिका चाहते थे। इसकी टीम में अनेक देशों के तकनीशियन शामिल थे। हैदराबाद में सेट लगा। यूनियन कार्बाइड का सेट लगाया गया था। मुझे लग तो गया था कि कोई बड़ी फिल्म बन रही है,लेकिन आश्वस्त नहीं था। इस फिल्म के दरम्यान मुझे हालीवुड की कुछ और फिल्में मिलीं। उनमें छोटे-मोटे किरदार थे। आखिरकार मैं इस फिल्म का इंतजार करता रहा।     मैंने अभी तक 150 से अधिक फिल्में कर ली हैं। 20-21 अभी अंडर प्रोडक्शन हैं। लगातार काम कर रहा हूं। लखनऊ के बीएनए और दिल्ली के एनएसडी से प्रशिक्षित होकर मुंबई आया तो कहां अंदाजा था कि मेरा ऐसा सफर होगा। 27 साल पहले स्टेज पर तीन पंक्तियां बोलने का मौका मिला था। शाहजहांपुर में स्टेज पर पहली बार चढ़ा और दर्शकों की तालियों और तारीफ ने ऐसा प्रेरित किया कि कदम इस तरफ चल पड़े। मैंने करीब से संघर्ष का अनुभव किया है। ‘भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन’ में दीपक का संघर्ष है। भोपाल के हादसे के बारे में सभी कुछ न कुछ जान

बदला जमाने के साथ : अदनान सामी

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-अजय ब्रह्मात्मज लंबे समय के बाद अदनान सामी की आवाज ‘किल दिल’ के गाने में सुनाई पड़ी। ‘साथिया’ के बाद शाद अली, गुलजार और अदनान की तिकड़ी का जादू जगा। अदनान इन दिनों गायकी के फ्रंट पर कम एक्टिव हैं। जिंदगी की मुश्किलों और रिश्तों में आए बदलाव से वे बेअसर नहीं रहे। हालांकि इस दरम्यान उन्होंने कोर्ट से निकल कर स्टूडियो में रिकॉर्डिंग भी की। एक तरफ मुकदमे की सुनवाई चलती रही और दूसरी तरफ उनकी गायकी, जो अब सुनाई पड़ी। अदनान का नाम जेहन में आते ही जो छवि कौंधती है, उससे वे काफी अलग हो गए हैं। उनका वजन कम हो गया है। अब वे अधिक स्फूर्ति महसूस करते हैं। उन्होंने घर को नए तरीके से सजाया है और फिर से एक नई दुनिया रच रहे हैं, जिसमें गीत-संगीत और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट हैं। साथ नए जमाने के  नए जमाने के साथ कदम मिलाकर चल रहे अदनान सामी को नए गैजेट और तरीकों से कोई दिक्कत नहीं होती, अगर कोई संगीतकार उन्हें ह्वाट्स ऐप पर धुन भेजता है तो वे उसे सुनकर अपनी गायकी का रियाज कर लेते हैं। कई बार मोबाइल या फेसबुक के मैसेज के जरिए गीतों के बोल आ जाते हैं। अदनान मानते हैं कि इन तकनीकी सुविधाओं से हमारी जिंदगी

दरअसल : सेंसर के यू/ए सर्टिफिकेट का औचित्य

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अजय ब्रह्मात्मज अगर आप केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की हिंदी वेबसाइट पर जाएंगे तो वहां पहले पृष्ठ पर ही बताया गया है कि किन-किन श्रेणियों में प्रमाण पत्र दिए जाते हैं। चार श्रेणियां हैं- अंग्रेजी में उन्हें यू, यू/ए, ए और एस कहते हैं। हिंदी में उन्हें अ, व /अ और अ लिखा गया है। हिंदी में चौथी श्रेणी एस का विवरण नहीं है। इसके साथ सेंसर प्रमाणन बोर्ड के हिंदी पृष्ठ पर वर्तनी की अनेक गलतियां हैं। सबसे पहले तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय में सूचना को ही ‘सुचना’ लिखा गया है। नीचे उद्धृत पंक्तियों में दर्षक, प्रर्दषण, और मार्गदर्षन भी गलत लिखे गए हैं। चलचित्र अधिनियम, 1952, चलचित्र (प्रमाणन) नियम,1983 तथा 5 (ख) के तहत केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए मार्गदर्शिका का अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है। फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित करते हैं। ’ अ’- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्षन ’व’- वयस्क दर्षकों के लिए निर्बन्धित ’अव’- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रर्दषन के लिए किन्तु 12 वर्ष से कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्षन के साथ फिल्म देखन