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काम अनूठे ही करता हूं - रणवीर सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज     रणवीर सिंह अभी विश्राम कर रहे हैं। ‘बाजीराव मस्तानी’ की शूटिंग के समय अपने घोड़े आर्यन से गिर जाने के कारण उनके कंधे का एक लिगमेंट फट गया था। दो हफ्ते पहले उसकी सर्जरी हुई। रणवीर ने ऑपरेशन बेड से अपनी सेल्फी शेयर की तो कुछ ने इसे उनके हौसले से जोड़ा तो कुछ ने इसे उनकी पर्सनैलिटी से जोड़ कर दिखावे की बात की। रणवीर बताते हैं,‘क्या हुआ कि ऑपरेशन बेड पर एनेस्थीसिया की तैयारी चल रही थी तभी कोई सेल्फी की मांग करने लगा। मैंने उसे अपनी स्थिति का हवाला देकर तत्काल मना कर दिया। बाद में मैंने सोचा कि सेल्फी दे देनी चाहिए थी। वह नहीं दिखा तो मैंने खुद ही सेल्फी ली और उसे शेयर कर दिया। पहले कभी किसी ने ऐसा नहीं किया था। मुझे अच्छा लगा। मैं तो हमेशा वही करता हूं,जो पहले किसी ने नहीं किया हो। मेरे लिए वह मस्ती थी।’ राजस्थान में अस्पताल में जांच के समय भी प्रशंसकों न उन्हें घेर लिया था। रणवीर को इनसे दिक्कत नहीं होती। उन्हें तब उलझन होती है,जब कोई खाते वक्त या वाशरूम इस्तेमाल करते समय सेल्फी या तस्वीर उतारने की मांग करता है। वे ऐसी एक घटना सुनाते हैं,‘मुंबई के एक पांच सितारा हो

बॉम्‍बे वेल्‍वेट : किरदार और कलाकार

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किरदार और कलाकार -कायजाद खंबाटा/करण जौहर दक्षिण मुंबई का कायजाद खंबाटा एक अखबार का मालिक है। पहली मुलाकात में ही वह जॉनी बलराज को ताड़ लेता है। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को हवा देता है। साथ ही कभी-कभार उसके पंख भी कतरता रहता है। धूर्त, चालाक और साजिश में माहिर खंबाटा के जटिल किरदार को पर्दे पर करण जौहर ने निभाया है।     ‘बॉम्बे वेल्वेट’ मेरी दुनिया और मेरी फिल्मों की दुनिया से बिल्कुल अलग है। अनुभवों के बावजूद इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मैं अनुराग को कोई सलाह नहीं दे सकता था। मैं तो वहां एक छात्र था। अनुराग से सीख रहा था। मेरी फिल्में लाइट के बारे में होती हैं। यह डार्क फिल्म है। मैं स्विचबोर्ड हूं तो यह फ्यूज है। बतौर एक्टर मैंने सिर्फ अनुराग के निर्देशों का पालन किया है।     फिल्म का माहौल और किरदार दोनों ही मेरे कंफर्ट जोन के बाहर के थे। अनुराग मेरे बारे में श्योर थे। उनके जेहन में मेरे किरदार की तस्वीर छपी हुई थी। वे खंबाटा के हर एक्शन-रिएक्शन के बारे में जानते थे। मुझे उन्हें फॉलो करना था। अनुराग ने कहा था कि हर इंसान के अंदर एक डार्क स्ट्रिक होता है। मुझे अपने अंदर से उसी हैव

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे वेल्‍वेट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज स्टार : 4.5 हिंदी सिनेमा में इधर विषय और प्रस्तुति में काफी प्रयोग हो रहे हैं। पिछले हफ्ते आई ‘पीकू’ दर्शकों को एक बंगाली परिवार में लेकर गई, जहां पिता-पुत्री के बीच शौच और कब्जियत की बातों के बीच ही जिंदगी और डेवलपमेंट से संबंधित कुछ मारक बातें आ जाती हैं। फिल्म रोजमर्रा जिंदगी की मुश्किलों में ही हंसने के प्रसंग खोज लेती है। इस हफ्ते अनुराग कश्यप की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ हिंदी सिनेमा के दूसरे आयाम को छूती है। अनुराग कश्यप समाज के पॉलिटिकल बैकड्राप में डार्क विषयों को चुनते हैं। ‘पांच’ से ‘बॉम्बे वेल्वेट’ तक के सफर में अनुराग ने बॉम्बे के किरदारों और घटनाओं को बार-बार अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। वे इन फिल्मों में बॉम्बे को एक्स प्लोर करते रहे हैं। ‘बॉम्बे वेल्वेेट’ छठे दशक के बॉम्बे की कहानी है। वह आज की मुंबई से अलग और खास थी। अनुराग की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ 1949 में आरंभ होती है। आजादी मिल चुकी है। देश का बंटवारा हो चुका है। मुल्तान और सियालकोट से चिम्मंन और बलराज आगे-पीछे मुंबई पहुंचते हैं। चिम्मन बताता भी है कि दिल्ली जाने वाली ट्रेन में लोग कट रहे थे, इसलिए वह ब

बॉम्‍बे वेल्‍वेट : यों रची गई मुंबई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    पीरियड फिल्मों में सेट और कॉस्ट्यूम का बहुत महत्व होता है। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में इनकी जिम्मेदारी सोनल सावंत और निहारिका खान की थी। दोनों ने अपने क्षेत्रों का गहन रिसर्च किया। स्क्रिप्ट को ध्यान में रखकर सारी चीजें तैयार की गईं। पीरियड फिल्मों में इस पर भी ध्यान दिया जाता है कि परिवेश और वेशभूषा किरदारों पर हावी न हो जाएं। फिल्म देखते समय अगर यह फील न हो कि आप कुछ खास डिजाइन या बैकग्राउंड को देख रहे हैं तो वह बेहतर माना जाता है। अनुराग कश्यप ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘गुलाल’ में भी पीरियड पर ध्यान दिया था, पर दोनों ही फिल्में निकट अतीत की थीं। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में उन्हें  पांचवें और छठे दशक की मुंबई दिखानी थी। सड़क और इमारतों के साथ इंटीरियर, पहनावा, गीत-संगीत, भाषा पर भी बारीकी से ध्यान देना था।     निहारिका खान की टीम में आठ सदस्य थे। उन्होंने रेफरेंस के लिए आर्काइव, लायब्रेरी, वेबसाइट, पुरानी पत्र-पत्रिकाएं और परिचितों के घरों के प्रायवेट अलबम का सहारा लिया। रोजी, खंबाटा, जॉनी बलराज और जिमी मिस्त्री जैसे मुख्य किरदारों के साथ ही चिमन, पुलिस अधिकारी, ड्रायवर, पट

बॉम्बे वेल्वेट : मूल विचार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    आज की मुंबई और तब का बॉम्बे भारत का ऐसा अनोखा शहर है, जहां आजादी के पहले से लोग कुछ करने और पाने की तलाश में आते रहे हैं। नौ द्वीपों के बीच की खाड़ी को पाटकर मुंबई शहर बना। महानगर के विकास में अनके कहानियां दफन हो गईं। छठे-सातवें दशक की मुंबई में एक तरफ मिल मजदूरों का आंदोलन था तो दूसरी तरफ रियल एस्टेट के गिद्धों की नजर हासिल की गई उन खाली जमीनों पर थी, जिन पर गगनचुंबी इमारतें खड़ी होनी थीं। शहर के इस बदलते परिदृश्य में रोजी नरोन्हा और जॉनी बलराज बॉम्बे आते हैं। अपनी सुरक्षा और महत्वाकांक्षा की वजह से वे शहर के गर्भ में चल रहे कुचक्र में फंसते हंै। पांचवे-छठे दशक की मुंबई की पृष्ठभूमि में रोजी और बलराज की इस प्रेम कहानी में अपराध, हिंसा और छल के धागे हैं। दो मासूम दिलों की छटपटाहट भी हैं, जो अपनी खुशी और जिंदगी के लिए शहर के अमीरों के मोहरे बनते हैं। वे बदलते शहर के विकास की चक्की में पिसते हैं।     मुंबई शहर का रहस्य अनुराग कश्यप को आकर्षित करता रहा है। पहली फिल्म ‘पांच’ से लेकर ‘अग्ली’ तक की यात्रा में वे इस शहर के रहस्य और गुत्थियों को समझने और खोलने की कोश

बॉम्‍बे वेल्‍वेट के गीत - धड़ाम धड़ाम

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धड़ाम धड़ाम दवा ना काम आए दुआ बचा न पाए  सिर्फ हाय...  धड़कनें गूंजती  धड़ाम धड़ाम दर-ब-दर घूमतीं  धड़ाम धड़ाम धड़कनें गूंजतीं  धड़ाम धड़ाम मलाल में.... हम पे बीती है जो भी  कहना चाहते थे हम  क्‍यों चुप रहने की तुम ने  खामखां में दी कसम   अब है गिला तुम्‍हें  हम ने दगा तुम्‍हें  है दिया जान के क़दम क़दम  इल्‍ज़ाम ये हम पे है  सितम सितम... धड़कनें गूंजतीं  धड़ाम धड़ाम मलाल में...   तुम रुठे तो हम टूटे  इतने हम क़रीब हैं  हारे तुम को तो समझे  कितने हम ग़रीब हैं    हम सहरा की तरह  तुम बादल हो मेरा बारिशें ढूंढतीं धड़ाम धड़ाम धड़कनें गूंजती  धड़ाम धड़ाम दर-ब-दर घूमतीं  धड़ाम धड़ाम धड़कनें गूंजतीं  धड़ाम धड़ाम मलाल में.... धड़कनें  धड़ाम धड़ाम गूंज के धड़ाम धड़ाम जैसे मौत की सज़ा सुना रहीं  धड़कनें धड़ाम धड़ाम पूछ के धड़ाम धड़ाम कितनी सांसें हैं बचीं  गिना रहीं  धड़ाम धड़ाम धड़ाम  मलाल में...

बॉम्‍बे वेल्‍वेट के गीत - क ख ग

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क ख ग ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार का  उल्‍टा है क ख ग घ  क्‍यो जो दर्द दे  तड़पाए भी  लगता है प्‍यारा वही  क्‍यों टूटे ये दिल  कहलाए दिल तभी  तैरने की जो कोशिशें करे  काहे डूब जाता है  सब भुला के जो डूब जाए क्‍यों  वही तैर पाता है   जो हर खेल में जीता यहां दिलबर से हारा वो भी  क्‍यों टूटे ये दिल  कहलाए दिल तभी  ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार का  उल्‍टा है क ख ग घ धत्‍त तेरी  इसकी हर सज़ा क़बूल है जिसे  यहां वही...वही बरी हुआ है  इस पे जो मुक़द्दमा करे अजी वही ...वही मरा है  बताओ क्‍यों इस जेल से  भागा है जो  दोबारा लौटा वो भी  क्‍यों टूटे ये दिल कहलाए दिल तभी  ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार का  उल्‍टा है क ख ग घ

बॉम्‍बे वेल्‍वेट के गीत -मोहब्‍बत बुरी बीमारी

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मोहब्‍बत बुरी बीमारी लगी तूझे तो तेरी जि़म्‍मेदारी मोहब्‍बत बुरी बीमारी ये बेरहम जिसको काटे पानी नहीं दारू वो मांगे महबूब की तस्‍वीर टांगे लगती है हल्‍की पड़ती है भारी मोहब्‍बत बुरी बीमारी छूने से होती नहीं ये नज़रों के रस्‍ते से आए झगड़ा है इसका अक़ल से मासूम दिल पे क़ब्‍ज़ा जमाए सूरत से भोली नियत शिकारी मोहब्‍बत बुरी बीमारी

जीवन के फ्लैशबैक में सिने-प्रेम -विवेक भटनागर

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आज चालीस की उम्र पार चुके फिल्मप्रेमी जब अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखते हैं, तो उन्हें फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी और घरवालों की बंदिशों के बीच तमाम रोचक प्रसंग याद आ जाते हैं। इन्हींदिलचस्प संस्मरणों को समेटा गया है हाल में प्रकाशित 'सिनेमा मेरी जान' में... विवेक भटनागर सिनेमा हमेशा से सामान्य लोगों के लिए जादू की दुनिया रहा है। तीन-चार दशक पहले तो यह जादू सिर चढ़कर बोलता था, क्योंकि उस समय मनोरंजन का एकमात्र सस्ता और आधुनिक साधन फिल्में थीं। दूसरे टाकीजों का रिक्शों पर लाउड स्पीकर पर रोचक ढंग से प्रचार, फिल्म का प्रमुख सीन समेटे पेंटिंग-पोस्टर, बाजार में फिल्म की कहानी, डायलॉग और उसके गानों से सजी आठ-दस पेज की चौपतिया का बिकना भी उस दौर के बच्चों और युवाओं का ध्यान फिल्मों की ओर खींचते थे। इसके अलावा फिल्म देखकर आए फिल्मी सहपाठियों का बड़े रोचक ढंग से कहानी सुनाने, मुंह से ढिशुं-ढिशुं... ढन..ढन...निकालने का अंदाज भी फिल्मों की ओर खींचता था। उस दौर में, सच में यह जादू ही था, जिसके मायाजाल में बच्चे न फंस सकेें, इसके सारे प्रयोजन घर के बड़े-बुजुर्ग

परिवार की रीढ़ है मां : दीपिका पादुकोण

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-अजय ब्रह्मात्मज     दीपिका पादुकोण की शुजीत सरकार निर्देशित ‘पीकू’ रिलीज हो चुकी है। इम्तियाज अली निर्देशित ‘तमाशा’ की शूटिंग समाप्ति पर है। इन दिनों वह संजय लीला भंसाली की ‘बाजीराव मस्तानी’ की शूटिंग कर रही हैं। इसकी शूअिंग के सिलसिले में वह फिल्मसिटी के पास ही एक पंचतारा होटल में रह रही हैं। समय बचाने के लिए यह व्यवस्था की गई है। दीपिका पिछले दिनों काफी चर्चा में रहीं। ‘माई च्वॉयस’ वीडियो और डिप्रेशन की स्वीमृति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया गया। दीपिका थोड़ी खिन्न हैं,क्योंकि सोशल मीडिया और मीडिया पर चल रहे विमर्श ने उसे अलग परिप्रेक्ष्य में रख दिया है। दीपिका देश की अन्य हमउम्र लड़कियों की तरह स्वतंत्र हैं। मिजाज की कामकाजी लड़की हैं। उन्हें परिवार से बेहद प्यार है। इधर मिली पहचान की वजह से वह अपनी फिल्मों के चुनाव और एक्टिंग के प्रति अधिक सचेत हो गई हैं। उन्हें इसके अनुरूप तारीफ भी मिल रही है।     ‘पीकू’ देख चुके दर्शकों को दीपिका के किरदार के बारे में मालूम होगा। पीकू के बारे में दीपिका के विचार कुछ यूं हैं, ‘वह कामकाजी लड़की है। अपने परिवार का भी ख्याल रखती है। अपने पित