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फिल्‍म समीक्षा : वज़ीर

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चुस्‍त और रोमांचक -अजय ब्रह्मात्‍मज        अमिताभ बच्‍चन को पर्दे पर मुक्‍त भाव से अभिनय करते देखना अत्‍यंत सुखद अनुभव होता है। ‘ वजीर ’ देखते हुए यह अनुभव गाढ़ा होता है। निर्देशक बिजॉय नांबियार ने उन्‍हें भरपूर मौका दिया है। फिल्‍म देखते हुए ऐसा लगता है कि निर्देशक ने उन्‍हें टोकने या रोकने में संकोच किया है। अदाकारी की उनकी शोखियां अच्‍छी लगती हैं। भाषा पर पकड़ हो और शब्‍दों के अर्थ आप समझते हों तो अभिनय में ऐसी मुरकियां पैदा कर सकते हैं। फरहान अख्‍तर भी फिल्‍म में प्रभावशाली हैं। अगर हिंदी बोलने में वे भी सहज होते तो यह किरदार और निखर जाता। भाषा पर पकड़ और अभिनय में उसके इस्‍तेमाल के लिए इसी फिल्‍म में मानव कौल को भी देख सकते हैं। अभी हम तकनीक और बाकी प्रभावों पर इतना गौर करते हैं कि सिनेमा की मूलभूत जरूरत भाषा को नजरअंदाज कर देते हैं। इन दिनों हर एक्‍टर किरदारों के बाह्य रूप पर ही अधिक मेहनत करते हैं।                                                          अभिनय के भाव और अर्थ को वे लगातार हाशिए पर डाल रहे हैं। समस्‍या यह है कि निर्देशक भी एक हद के बाद आग्रह छोड़ देते

फिल्‍म समीक्षा : चौरंगा

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नहीं बदली है सामाजिक संरचना -अजय ब्रह्मात्‍मज     बिकास रंजन मिश्रा की ‘ चौरंगा ’ मुंबई फिल्‍म फेस्टिवल में बतौर सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍म 2014 में पुरस्‍कृत हुई थी। इंडिया गोल्‍ड अवार्ड मिला था। अब जनवरी 2016 में यह भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। इसे सीमित स्‍क्रीन मिले हैं। इस फिल्‍म के प्रति वितरकों और प्रदर्शकों की उदासीनता कुछ वैसी ही है,जो इस फिल्‍म की थीम है। भारतीय समाज में दलितों की स्थिति से भिन्‍न नहीं है हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में यथार्थपरक और स्‍वतंत्र सिनेमा।इस फिल्‍म के निर्ताता संजय सूरी और ओनिर हैं।     बिकास रंजन मिश्रा ने ग्रामीण कथाभूमि में ‘ चौरंगा ’ रची है। शहरी दर्शकों को अंदाजा नहीं होगा,लेकिन यह सच है कि श्‍याम बेनेगल की ‘ अंकुर ’ से बिकास रंजन मिश्रा की ‘ चौरंगा ’ तक में देश के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना और सामंती व्‍यवस्‍था में कोई गुणात्‍मक बदलाव नहीं आया है। जमींदार और नेता मिल गए हैं। दलितों का शोषण जारी है। आज भी धनिया जमींदार की हवस की शिकार है। वह अपनी स्थिति पर बिसूरने के बजाए जमींदार को राजी करती है कि उसके बेटे पढ़न

चवन्‍नी 2015

चवन्‍नी के पाठकों में बढ़ोत्‍तरी हुई है। इस साल कमेंट और प्रतिक्रियाएं कम मिलीं। हो यूं रहा है कि पाठक और परिचित फेसबुक और ट्वीटर पर ही टिप्‍पणी कर संतुष्‍ट हो लेते हैं। इस साल खयाल रखें कि ब्‍लॉग पर आर्टिकल के नीचे टिप्‍पणी करें। फायदा  यह होगा कि भविष्‍य में ब्‍लॉग पढ़ते समय दूसरे पाठक आप की टिप्‍पणियां भी पढ़ सकेंगे। आप की मारीफ और आलोचना से बल और संबल मिलता है। प्‍लीज पढ़ना जारी रखें और टिप्‍पणी करना भी। 2015 में कुल 1,84,533 पाठकों ने चवन्‍नी का पठन-पाठन किया। आप बताएं कि इसे कैसे आप के लिए अधिक उपयागी बनाया जा सकता है। 2016 में कुछ नया करने के साथ चवन्‍नी को वेबसाइट का रूप देने की भी योजना है।यह सब आपके सुझाव और सहयोग से ही हो सकता है। वीडियो बलॉग भी आरंभ करना है। 2016 में चवन्‍नी पर आप की उपस्थिति का आंकड़ा यों रहा.... जनवरी- 15,331 फरवरी- 13,836 मार्च- 14,906 अप्रिल- 20,000 मई- 23,238 जून- 14,992 जुलाई- 13,528 अगस्‍त- 12,183  सितंबर- 13,163 अक्‍टूबर- 11,806 नवंबर-  13,126 दिसंबर- 18,424 कुल- 1,84,533 सब से ज्‍यादा पाठक(23,238) मई में आए

उस साहस को सलाम : अक्षय कुमार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सन् 1990। 13 अगस्‍त से 11 अक्‍टूबर,1990 । 1990 में कुवैत में ईराक ने घुसपैठ की। ईराक-कुवैत के इस युद्ध में वहां रह रहे भारतीय फंस गए थे। हालांकि तत्‍कालीन विदेश मंत्री आई के गुजराल ने ईराक के राष्‍ट्रपति से मिलकर भारतीयों के सुरक्षित निकास की सहमति ले ली थी,लेकिन समस्‍या थी कि कैसे कुवैत के विभिन्‍न्‍ इलाकों से भारतीयों को अमान लाया जाए और फिर उन्‍हें मुंई तक की एयरलिफ्ट दी जाए। ऐसे संगीन वक्‍त में भारतीय मूल के रंजीत कटियाल ने खास भूमिका निभायी। खुद को भारतीय से अधिक कुवैती समझने वाले रंजीत कटियाल ने मुसीबत के मारे भारतीयों को सु‍रक्षित मुंबई पहुंचाने की जिममेदारी ली। उनकी मदद से 56 दिनों में 1,11,711 भारतीयों की निकासी मुमकिन हो सकी। दुनिया की इस सबसे बड़ी निकासी और उसमें रंजीत कटियाल की भूमिका के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। कहते हैं अमेरिकी दबाव में इस घटना और समाचार को दबा दिया गया। 25 सालों के बाद राजा कृष्‍ण मेनन ने रंजीत कटियाल की जिंदगी और मातृभूमि के प्रति प्रेम के इस साहिसक अभियान को ‘ एयरलिफ्ट ’ के रूप में पर्दे पर पेश कर रहे हैं। इसमें

दरअसल : 2015 की मेरी पसंद की 10 फिल्‍में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     हर साल 100 से ज्‍यादा फिल्‍में हिंदी में रिलीज होती हैं। उनमें से 10 का चुनाव आसान नहीं होता। यकीन करें जो ऑब्‍जेक्टिव होने का दावा करते हैं,वे पसंद की राजनीति कर रहे हैं। वे किसी को खुश तो किसी को दुखी करने की फिक्र में रहते हैं। मेरी पसंद का अपना पक्ष है। कुछ को वह पक्षपात लग सकता है। दरअसल,जब हम अपनी पसंद बता रहे होते हैं तो उसके साथ हमारी समझ,संवेदना,विचार,सौंदर्य और अनुभूति भी जाहिर होती है। इन फिल्‍मों को पसंद करने के अनेक कारण हैं। 1.डॉली की डोली : अभिषेक डोगरा निर्देशित यह फिल्‍म मुझे पसंद है। उसे उमाशंकर सिंह ने लिखा है। सोनम कपूर के अभिनय में निर्दोष सरलता है। उनकी इस खूबी को अभिषेक ने उभारने का मौका दिया। राजकुमार राव छोटी सी भूमिका में ही सही...फिल्‍म का प्रभाव बढ़ा देते हैं। 2.दम लगा कर हईसा : शरत कटारिया की यह फिल्‍म अपनी कथाभूमि और भावभूमि के कारण मुझे पसंद है। हिंदी सिनेमा से हिंदी समाज ही गायब हो गया है। शरत ने इस फिल्‍म के किरदारों और उनकी प्रतिक्रियाओं और व्‍यवहार में हरिद्वार के एक मध्‍यवर्गीय परिवार की संदनात्‍मक कहानी पेश की ह

खेल के साथ रिश्‍तों की कहानी है ‘साला खड़ूस’-राजकुमार हिरानी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     राजकुमार हिरानी ‘ पीके ’ से सहनिर्माता बन गए थे। उसके पहले वे विधु विनोद चापड़ा की ‘ परिणीता ’ , ’ एकलव्‍य ‘ और ‘ फरारी की सवारी ’ में क्रिएटिव प्रड्यूसर रहे। स्‍वतंत्र निर्माता के तौर पर उनकी पहली फिल्‍म ‘ साला खड़ूस ’ होगी। इस फिल्‍म में आर माधवन और रितिका सिंह ने मुख्‍य भूमिकाएं निभाई हैं। प्रस्‍तुत है बतौर निर्माता राजकुमार हिरानी से हुई बातचीत के अंश.....- निर्माता बनने का खयाल क्‍यों और कैसे आया ? 0 यह संयोग से हुआ। चाहता था कि कुछ प्रड्यूस करूं। इंतजार था कि कोई अच्‍छी स्क्रिप्‍ट आए या कोई असिस्‍टैंट तैयार हो। हुआ यों कि एक दिन माधवन मेरे पास आ गए। उन्‍होंने  20 मिनट में एक कहानी सुनाई। वे चाहते थे कि मैं उसे प्रेजेंट करूं। कहानी अच्‍छी लगी तो मु लगा कि इनवॉल्‍व होना चाहिए। उन्‍होंने साथ आने का प्रस्‍ताव दिया और मैंने स्‍वीकार कर लिया।- बाधवन से आप की दोस्‍ती और स्क्रिप्‍ट दोनों ने आप को राजी किया या...0 माधवन के साथ मैंने काम किया है। उन्‍हें अर्से से जानता हूं। मिलना-जुलना रहता ही है। हमारी मुलाकात के समय तक माधवन अपनी बॉडी पर काम

रोम रोम में बसने वाले राम से रोम रोम रोमांटिक तक

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हाल ही में 'मस्‍तीजादे' फिल्‍म का एक गाना 'रोम रोम रोमांटिक' रिलीज हुआ है। इसे मनोज  मुंतशिर ने लिखा है। मीका सिंह और अमाल मलिक के गाए इस गीत का संगीत अमाल मलिक ने ही तैयार किया है। आज से 47 साल पहले 1968 में आई 'नीलकमल' में एक गीत था ' हे रोम रोम में बसने वाले राम'। आशा भोंसले के गाए उस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा था और उसका संगीत रवि ने तैयार किया  था। दोनों गीतों में 'रोम रोम' की समानता ने मेरा ध्‍यान खींचा। मैं इसे पतन या उत्‍थान की नजर से नहीं देख रहा हूं। दोनों को यहां पेश करने का उद्देश्‍य मात्र इतना है कि हम गीत-संगीत की इस जर्नी पर गौर करें। दोनों गीतों के बोल और वीडियो भी पेश हैं। हे रोम रोम में बसने वाले राम हे रोम रोम में बसनेवाले राम जगत के स्वामी, हे अंतर्यामी, मैं तुझसे क्या माँगू आस का बंधन तोड़ चूकी हूँ तुझपर सबकुछ छोड़ चूकी हूँ नाथ मेरे मैं क्यो कुछ सोचू, तू जाने तेरा काम तेरे चरण की धूल जो पाये वो कंकर हीरा हो जाये भाग मेरे जो मैने पाया, इन चरणों में धाम भेद तेरा कोई क्या पहचाने जो तुझसा हो, वो तुझे जाने ते

सवाल-जवाब : दिसंबर 2015

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दोस्‍तों, कल यह बातचीत फेसबुक पर हुई। 2016 में यह सिलसिला जारी रहेगा। आप की रुचि के अनुसार इसे मासिक से पाक्षिक भी किया जा सकता है।  कल की बातचीत यहां पोस्‍ट कर रहा हूं। भविष्‍य में यह मेरे और आप के काम आएगा। आप बताएं कि यह आयोजन कैसा लगा और इसे किस रूप में आगे बढ़ाया जाए। Ajay Brahmatmaj Yesterday at 00:23 · दोस्तों आज आखिरी रविवार है। मैं हाजिर हूं हिंदी सिनेमा 2015 से जुड़े सवालों के लिए। आप पूछें या लिखें। Kunal Kishor · Friends with Sanjay Masoomm hindi cinema me ab as lily (boldness) q aane lgi kya aane wala time kya super cool hai hum jaise cinema ka hoga aakhir sensor board aisi filmo ko bann q ni krti qki ye present hindi cinena aur inki future k liye khatra h ab to hum apne bachho ko theature me movie le jane k liye 20 br sochte h kya ye sb bnd ni ho skta Like · Reply · Yesterday at 00:28 Ajay Brahmatmaj सवाल फिर से लिखें। शब्‍इ पूरे लिखेंगे तो सवाल समझ में आएगा। Unlike · Reply · 1 · 22 hrs