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नायिकाओं में झलकता है मेरा अक्‍स - पूजा भट्ट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पूजा भट्ट की फिल्‍मों का मिजाज अलग होता है। वह अपनी पेशगी से चौंकाती हैं। हालांकि उनकी फिल्‍मों के केंद्र में औरतें होती हैं...बोल्‍ड,बिंदास और आक्रामक,लेकिन साथ में पुरुष भी रहता है। उनके संबंधों में यौनाकर्षण रहता है,जो बाद में भावनाओं के ज्‍वार-भाटे में डूबता-उतराता है। पूजा की फिल्‍में खूबसूरत होती हैं। सीतमत बजट में वह फिल्‍मों की सेटिंग करती हैं। बैकड्राप में दिख रही चीजें भी सोच-समझ के साथ एस्‍थेटिक्‍स के साथ रखी जाती हैं। उनकी फिल्‍मों की हीरोइनें चर्चित होती हैं। बिपाशा बसं और सनी लियोनी उदाहरण हैं। इस बार ‘ कैबरे ’ में उन्‍होंने रिचा चड्ढा को पेश किया है। कैबरे की कहानी अपनी नई फिल्‍म ‘ कैबरे ’ के बारे में वह शेयर करती हैं, ’ यह दिखने मेकं केवल रिचा चड्ढा की फिल्‍म लग रही होगी,क्‍योंकि अभी तक गाने और बाकी तस्‍वीरों में रिचा की ही तस्‍वीरें घूम रही हैं। वह पसंद भी की जा रही है। यह रिचा यानी रजिया के साथ एक पत्रकार की भी कहानी है। वह शराब के नशे में धुत रहता है। खुद पर से उसका यकीन उठ गया है। आज का सिस्‍टम कई ईमानदार लोगों को तोड़ देता है।

दरअसल : राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार : प्रक्रिया और प्रासंगिकता

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते 3 मई को राष्‍ट्रपति के हाथों सभी विजेताओं को राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार दिए गए। अब यह तारीख राष्‍ट्रपति की आधिकारिक डायरी में दर्ज कर दी गई है। पहले राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार प्रदान करने की कोई तारख निश्चित नहीं थी। राष्‍ट्रपति की सुविधा से तारीख तय करने में विलंब हो जात था। छह-छह महीने की देरी हो जाती थी। पुरस्‍कार पाने का उत्‍साह भी कम हो जाता था। क्‍या आप जाने हैं कि राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार प्रदान करने की तारीख 3 मई ही क्‍यों निश्चित की गई है ? दरअसल, 3 मई को ही भारत की पहली फिल्‍म रिलीज हुई थी। इसके निर्देशक दादासाहेब फालके थे। उनकी स्‍मृति में ही फिल्‍मों का सबसे बड़ा सम्‍मान दादासाहेब फालके पुरस्‍कार दिया जाता है। 2015 की फिल्‍मों के लिए दिए गए 63 वें राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों में इस बार हिंदी फिल्‍मों और उनसे जुड़े कलाकारों और तकनहशियनों की संख्‍या ज्‍यादा है। यह स्‍वाभाविक है। पुरस्‍कार के निर्णायक मंडल की रुचि और स्‍वभाव से फर्क पड़ता है। हम ने देखा है कि निर्णायक मंडल के अध्‍यक्ष की भाषा से पलड़ा झ़ुकता है। हानांकि इसे कोई स्‍वीकार नहीं कर

कान और कानपुर के दर्शक मिले मुझे- नवाजुद्दीन सिद्दीकी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज नवाजुद्दीन सिद्दीकी तीसरी बार कान फिल्‍म फेस्टिवल जा रहे हैं। वे आज ही उड़ान भर रहे हैं। तीसरे ट्रिप में ‘ रमन राघव 2.0 ’ उनकी आठवीं फिल्‍म होगी। कान फिल्‍म फेस्टिवल से एक रिश्‍ता सा बन गया है उनका। इस बार नवाज की चाहत है कि वे वहां अपने समय का सदुपयोग करें। परिचय का दायरा बढ़ाएं। दो दिनों पहले मंगलवार को उनकी फिल्‍म ‘ रमन राघव 2.0 ’ का ट्रेलर भी जारी हुआ। एक बार फिर अपने जोरदार परफारमेंस की उन्‍होंने झलक दी. .. -पहला सवाल यही है कि कहां के दर्शकों के बीच अधिक खुशी मिलती है- कान या कानपुर ? 0 मैं तो चाहूंगा कि मेरी फिल्‍में कान और कानपुर दोनों जगहों में सरही जाएं। कई बा ऐसा होता है कि कान में तो सराहना मिल जाती है,लेकिन कानपुर फिल्‍म पहुंच ही नहीं पाती। इस बार मैं दोनों जगहों के दर्शकों के बीच अपनी पैठ बनाना चाहूंगा। -क्‍या कापनुर के दर्शकों की रुचि ‘ रमन राघव 2.0 ’ में होगी ? 0 बिल्‍कुल होगी। मर्डर,ह्यूमर और ह्यूमन स्‍टोरी रहती है अनुराग कश्‍यप के पास। उनकी फिल्‍में सराही जाती रही हैं। अनुराग कश्‍यप की फिल्‍में सिर्फ फस्टिवल के लिए नहीं होती

Promo - Guftagoo with Ajay Brahmatmaj

https://www.youtube.com/watch?v=pbNpt5I9Qko आज रात(रविवार) राज्‍य सभा टीवी पर रात 10.30 बजे भाई इरफान के साथ गुफ़्तगू। कल सुबह(सोमवार) 6.00 बजे रिपीट। आप सभी आमंत्रित हैं।

बना रखा है बैलेंस - रिचा चड्ढा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रिचा चड्ढा लगातार वरायटी रोल कर रही हैं। पिछले साल ‘मसान’ ने उन्हें अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति दी। अब वे ‘सरबजीत’ लेकर आ रही हैं। वे इसमें नायक सरबजीत की बीवी की भूमिका में हैं। इसके बाद इसी महीने उनकी ‘कैबरे’ भी आएगी। - दोनों फिल्मों में कितने दिनों का अंतर है? जी एक हफ्ते के । पहले सरबजीत आएगी। वैसे देखा जाए तो पहले कैबरे आने वाली थी। लेकिन फिल्म का काम शुरू नहीं किया गया था। फिर रिलीज डेट आगे कर दी गई है?   - कैसे देख रही हैं ‘ सरबजीत ’ को। नायक की भूमिका में ऱणदीप हुड्डा ने तो सारा खेल अपनी तरफ कर लिया है? हम जिसे देखते हैं हम उन्हीं की बात करते रहते हैं। असल में जबकि जो बैकड्रॉप में होते हैं, वे वस्तु विशेष के बैक बोन होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि उनकी बात ें कम होती है ं । यह किसी भी फी ल्ड में हो सकता है।   वैसे आप के किरदार का नाम क्या है? साथ ही इस किरदार को कैसे देखती हैं आप ? उसका नाम सुखदीप है । कैरेक्टर क्रिएशन के लिए मैं सुखदीप को ज्यादा तंग नहीं करना चाहती थी। यह 2011 - 12 के आस - पास की घटना है। अभी भी उस महिला का द

बोलने दो काम को - अर्जुन कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अर्जुन कपूर जोश में हैं। की एंड का की कामयाबी ने उनका आत्‍मविश्‍वास बढ़ा इिदया है। चार सालों में सात फिल्‍मों में अलग-अलग किरदार निभा कर उन्‍होंने देश के महानगरों और छोटे शहरों के दर्शकों के बीच प्रशंसक बना लिए है। उनकी अगली फिल्‍म हाफ गर्लफ्रेंड है। इसकी तैयारियों में जुटे अर्जुन की योजना बिहार जाने और वहां के युवकों से मिलने-जुलने की है। वे अपने ल‍हजे पर काम कर रहे हैं। - की एंड का को जो सफलता मिली,उसकी कितनी उम्मीद थी? 0फिल्म साइन करते समय मुझे विश्वास था कि यह फिल्म हमारे देश की पचास प्रतिशत फीमेल ऑडियंस   कनेक्ट करेंगी। पर मेरे किरदार को इतना प्यार मिलेगा, इस बारे में मैंने नहीं सोचा था। सबसे इस तरह का किरदार निभाने के लिए मेरी प्रशंसा की है। मुझसे कहा कि यह डेयरिंग का काम है। आज के जमाने में हीरो बॉडी दिखाता है। लड़ाई करता है। तुमने एक अलग तरीके का काम किया है । मैं खुश हूं कि मेरे स्क्रिप्ट सेंस को सराहा गया है। दस आइडिया में से हम एक आइडिया चुनते हैं। कुल मिलाकर एक पॉजिटिव फीलिंग   रही। -अब यहां से रास्ता किस तरफ जा रहा है?

फिल्‍म समीक्षा : वन नाइट स्‍टैंड

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क्षणिक सुख अंतिम सच नहीं -अमित कर्ण मौजूदा युवा वर्ग रिश्‍तों से जुड़े कठिन सवालों से चौतरफा घिरा हुआ है। वे प्यार चाहते हैं, पर समर्पण एकतरफा रहने की अपेक्ष करते हैं। कई युवक-युवतियां प्यार, आकर्षण व भटकाव के बीच विभेद नहीं कर पा रहे हैं। ढेर सारे लोग बेहद अलग इन तीनों भावनाओं को एक ही चश्‍मे से देख रहे हैं। यह फिल्म उनके इस अपरिपक्व नजरिए व उससे उपजे नतीजों को सबके समक्ष रखती है। यह साथ ही शादीशुदा रिश्‍ते के प्रति लोगों की वफादारी में आ रही तब्दीली की वस्‍तुस्थिति से अवगत करवाती है। यह उनकी लम्हों में की गई खता के परिणाम की तह में जाती है। हिंदी सिने इतिहास में ऐसा कम हुआ है, जब मर्द की बेवफाई को औरत की नजर से पेश किया गया हो। उस कसूर को औरत के नजरिए से सजा दी गई हो। जैसा ‘कभी अलविदा ना कहना’ में था। इस फिल्म की निर्देशक जैस्मिन मोजेज डिसूजा यहां वह कर पाने में सफल रही हैं। इस फिल्म का संदेश बड़ा सरल है। वह यह कि क्षणिक सुख को अंतिम सत्य न माना जाए।     कहानी शादीशुदा युवक उर्विल, अजनबी सेलिना के भावनाओं में बहकर जिस्मानी संबंध बना लेने से शुरू होती है। सेलिना उस संबं

फिल्‍म समीक्षा : ट्रैफिक

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स्‍पीड और भावनाओं का रोमांच -अजय ब्रह्मात्‍मज मलयालम और तमिल के बाद राजेश पिल्‍लई ने ‘ ट्रैफिक ’ हिंदी दर्शकों के लिए निर्देशित की। कहानी का लोकेशन मुंबई-पुणे ले आया गया। ट्रैफिक अधिकारी को चुनौती के साथ जिम्‍मेदारी दी गई कि वह धड़कते दिल को ट्रांसप्‍लांट के लिए निश्चित समय के अंदर मुंबई से पुणे पहुंचाने का मार्ग सुगम करे। घुसखोर ट्रैफिक हवलदार गोडबोले अपना कलंक धोने के लिए इस मौके पर आगे आता है। मुख्‍य किरदारों के साथ अन्‍य पात्र भी हैं,जो इस कहानी के आर-पार जाते हैं। मलयालम मूल देख चुके मित्र के मुताबिक लेखक-निर्देशक ने कहानी में काट-छांट की है। पैरेलल चल रही कहानियों को कम किया,लेकिन इसके साथ ही प्रभाव भी कम हुआ है। मूल का खयाल न करें तो ‘ ट्रैफिक ’ एक रोमांचक कहानी है। हालांकि हम सभी को मालूम है कि निश्चित समय के अंदर धड़कता दिल पहुंच जाएगा,फिर भी बीच की कहानी बांधती और जिज्ञासा बढ़ाती है। फिल्‍म शाब्दिक और लाक्षणिक गति है। हल्‍का सा रहस्‍य भी है। और इन सब के बीच समर्थ अभिनेता मनोज बाजपेयी की अदाकारी है। मनोज अपनी हर भूमिका के साथ चाल-ढाल और अभिव्‍यक्ति बदल देते ह