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दरअसल : रमन राघव के साथ अनुराग कश्‍यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अनुराग कश्‍यप ने ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता की कसक को अपने साथ रखा है। उसे एक सबक के तौर पर वे हमेशा याद रखेंगे। उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों के ढांचे में कुछ नया और बड़ा करने की कोशिश की थी। मीडिया और फिल्‍म समीक्षकों ने ‘ बांबे वेलवेट ’ को आड़े हाथों लिया। फिल्‍म रिलीज होने के पहले से हवा बन चुकी थी। तय सा हो चुका था कि फिल्‍म के फेवर में कुछ नहीं लिखना है। ‍यह क्‍यों और कैसे हुआ ? उसके पीछे भी एक कहानी है। स्‍वयं अनुराग कश्‍यप के एटीट्यूड ने दर्जनों फिल्‍म पत्रकारों और समीक्षकों को नाराज किया। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और फिल्‍म पत्रकारिता में दावा तो किया जाता है कि सब कुछ प्रोफेशनल है,लेकिन मैंने बार-बार यही देखा कि ज्‍यादातर चीजें पर्सनल हैं। व्‍यक्तिगत संबंधों,मान-अपमान और लाभ-हानि के आधार पर फिल्‍मों और फिल्‍मकारों का मूल्‍यांकन होता है। इसमें सिर्फ मीडिया ही गुनहगार नहीं है। फिल्‍म इंडस्‍ट्री का असमान व्‍यवहार भी एक कारक है। कहते हैं न कि जैसा बोएंगे,वैसा ही काटेंगे। बहरहाल, ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता को पीछे छोड़ कर अनुराग कश्‍यप ने ‘ रमन राघव 2.

सिस्‍टम की खामियों की पड़ताल

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तारणहार बनते कैरेक्‍टर कलाकार

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-अमित कर्ण हाल की कुछ फिल्‍मों पर नजर डालते हैं। खासकर ‘ बजरंगी भाईजान ’ , ‘ दिलवाले ’ , ‘मसान’, ‘ बदलापुर ’ , ‘ मांझी- द माउंटेनमैन ’ , ‘ हंटर ’ , पर। उक्‍त फिल्‍मों में एक कॉमन पैटर्न है। वह यह कि उन्‍हें लोकप्रिय करने में जितनी अहम भूमिका नामी सितारों की थी, उससे कम उन फिल्‍मों के ‘कैरेक्‍टर आर्टिस्‍ट‘ की नहीं थी। ‘ बजरंगी भाईजान ’ और ‘ बदलापुर ’ से नवाजुद्यीन सिद्यीकी का काम गौण कर दें तो वे फिल्‍में उस प्रतिष्‍ठा को हासिल नहीं कर पाती, जहां वे आज हैं। ‘मसान’ के किरदार आध्‍यात्मिक सफर की ओर ले जा रहे होते हैं कि बीच में पंकज त्रिपाठी आते हैं। शांत और सौम्‍य चित्‍त इंसान के किरदार में दिल को छू जाते हैं। ‘ दिलवाले ’ में शाह रुख-काजोल की मौजूदगी के बावजूद दर्शक बड़ी बेसब्री से संजय मिश्रा का इंतजार कर रहे होते हैं। थोड़ा और पीछे चलें तो ‘नो वन किल्‍ड जेसिका’ में सिस्‍टम के हाथों मजबूर जांच अधिकारी और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स’ में दत्‍तों के भाई बने राजेश शर्मा की अदाकारी अाज भी लोगों के जहन में है। ‘विकी डोनर’ की बिंदास दादी कमलेश गिल और सिंगल मदर बनी डॉली अहलूवालिय

मनोरोग के इलाज में शर्म कैसी - राधिका आप्‍टे

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- स्मिता श्रीवास्‍तव राधिका आप्टे सधे व सटीक कदम बढ़ा रही हैं। वह शॉर्ट फिल्म , थिएटर , वेब सीरीज और फिल्मों में संतुलन बना कर चल रही हैं। साउथ में भी सक्रिय हैं। हाल में उन्होंने रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म की शूटिंग पूरी की है। 29 मई को उनकी फिल्म ‘ फोबिया ’ रिलीज हो रही। यह एग्रोफोबिया पर आधारित है। इस बीमारी से पीडि़त शख्स को अपने आसपास के माहौल से जुड़ी किसी भी सामाजिक स्थिति का सामना करने में घबराहट होती है। भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से डरता है। वैसे लोगों को हमेशा डर सताता रहता है कि घर से बाहर निकलते ही बाहर की दुनिया उसे खत्म कर देगी। फिल्म के निर्देशक ‘ रागिनी एमएमएस ’ व ‘ डर: एट द मॉल ’ बना चुके पवन कृपलानी हैं।         राधिका कहती हैं ,‘ फोबिया एक लडक़ी महक की कहानी है। वह पेंटर है। मुंबई में अकेले रहती है। आत्मनिर्भर है। बहुत आत्मविश्वासी हैं। उसके साथ एक हादसा हो जाता है। उसकी वजह से वह एग्रोफोबिया से पीडि़त हो जाती है। हमारे देश में लोग इस बीमारी से ज्यादा वाकिफ नहीं हैं। अगर किसी को पैनिक अटैक आ जाए तो उसे पागल समझने लगते हैं। फिल्म के लिए पवन कृपलानी ने

इरफान के साथ बातचीत

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इरफान से हुई बात-मुलाकात में हर बार मुलाकात का समय खत्‍म हो जाता है,लेकिन बातें पूरी नहीं हो पातीं।एक अधूरापन बना रहता है। उनकी फिल्‍म 'मदारी' आ रही है। इस मौके पर हुई बातचीत में संभव है कि कोई तारतम्‍य न दिखे। यह इंटरव्‍यू अलग मायने में रोचक है। पढ़ कर देख लें...,  -अजय ब्रह्मात्‍मज -मदारी का बेसिक आइडिया क्या है? 0 यह एक थ्रिलर फिल्म है, जो कि सच्ची घटना से प्रेरित है। इस फिल्म में हमने कई सच्ची घटनाओं का इस्तेमाल किया है। ये घटनाएं बहुत सारी चीजों पर हमें बांध कर रखती है। हर आदमी में एक नायक छुपा होता है। वह अपनी पसंद से किस तरह चीजों को चुनता है। उससे कैसे चीजें आकार लेती हैं। उस व्यक्ति के व्यक्तित्व में बदलाव होता है।मेरी सोच यही है कि कहीं ना कहीं आदमी वह काम करने को मजबूर हो,जिससे उसे अपने अंदर के नायक के बारे में पता चले। हमें कई बार किसी को फॅालो करने की आदत हो जाती है। हमें लगता है कि कोई आएगा और हमारी जिंदगी सुधार देगा। हमारी यह सोच पहले से है। हम कहीं ना कहीं उस सोच को चैलेंज कर रहे हैं। हम उस सोच को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। हमें खुद के  हीरो क