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फिल्‍म समीक्षा : परी

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अनुष्‍का शर्मा का साहसिक प्रयास फिल्‍म समीक्षा : परी -अजय ब्रह्मात्‍मज प्रोसित राय निर्देशित ‘परी’ की नायिका और निर्माता अनुष्‍का शर्मा हैं। बतौर निर्माता यह उनकी तीसरी फिल्‍म है। 10 सालों के अपने करिअर में ‘परी’ समेत 16 फिल्‍में कर चुकी अनुष्‍का शर्मा की हिम्‍म्‍त की दाद देनी होगी कि उन्‍होंने स्‍वनिर्मित हर फिल्‍म में कुछ नया करने की कोशिश की है। हालांकि हर फिल्‍म में वह स्‍वयं नायिका हैं,लेकिन इससे उनके प्रयास आत्‍मकेंद्रित नहीं हो जाते। उन्‍होंने तीनों ही फिल्‍मों में अलहदा और अनोखे विषय उठाए हैं। और सबसे खास बात है कि उन्‍होंने बिल्‍कुल नए निर्देशकों को मौका दिया है। ‘एनएच 10’ के निर्देशक नवदीप सिंह ने एक फिल्‍म जरूर डायरेक्‍ट की थी,लेकिन ‘फिल्‍लौरी’ और ‘ परी’ के निर्देशक नए रहे हैं। दोनों की यह पहली फिल्‍म है। ‘परी’... इसके टैग लाइन में निर्माताओं ने सही लिखा है कि ‘इट्स नॉट अ फेअरीटेल’। सच्‍ची,यह परिकथा नही है। इसकी कथा-पटकथा निर्देशक प्रोसित रॉय ने अभिषेक बनर्जी के साथ मिल कर लिखी है। संवाद अन्विता दत्‍त के हैं। हिंदी फिल्‍मों की यह खास परंपरा है,जिसमें फिल्‍म क

पहला होली गीत

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फागन की रुत आई रे जरा बाजे बाँसरी बाल मोहन हरजाई रे नहीं बाजे बाँसरी फागन की रुत ... सोने की गागर में रंग बनाया   रूप की पिचकारी लाई रे जरा बाजे बाँसरी फागन की रुत ... जोबन पे जोबन है शोख़ी पे शोख़ी नैनन में लाली आई रे जरा बाजे बाँसरी फागन की रुत ... मेरा सन्देशा कोई उनसे कहना फिर से तेरी याद आई रे जरा बाजे बाँसरी मेरे हुए आज मैं जिनकी हो ली होली के दिन होली आई रे जरा बाजे बाँसरी फागन की रुत ... इस गीत को हिंदी फिल्‍मों का पहला होली गीत कह सकते हैं। संयोग से इस फिल्‍म का नाम भी ‘होली’ है। रंजीत मूवीटोन के लिए इस फिल्‍म का निर्देशन ए आर कारदार ने किया था। ए आर कारदार मूलत: लाहौर के फिल्‍मकार थे।  लाहौर फिल्‍म इंडस्‍ट्री की स्थापना और विस्तार में उनकी बड़ी भूमिका रही है। 1930 में वे लाहौर से कोलकाता चले गए थे। सात सालों तक कोलकाता में काम करने के बाद वे 1937 में मुंबई आये। उन्होंने चंदूलाल शाह की प्रोडक्शन कंपनी रंजीत मूवीटोन के साथ फिल्मों का निर्देशन आरम्भ किया। यहीं उन्होंने 'होली' का निर्देशन किया। 'होली' 1940 में बनी थी। इस फ़िल्म

सिनेमालोक : श्री देवी की याद में

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सिनेमालोक श्री देवी की याद में -अजय ब्रह्मात्‍मज हम हिंदी भाषी और हिंदी दर्शक्‍ अपनी भाषा और समाज के दायरे में इस तरह लिप्‍त रहते हैं कि दूसरी भाषाओं के साहित्‍य और सिनेमा की कद्र नहीं करते। हमें अपनी हिंदी की दुनिया ही संपूर्ण लगती है। रविवार की सुबह आई श्री देवी के आकस्मिक निधन की मनहूस खबर के बाद वेब ,‍ इंटरनेट , अखबार और सोशल मीडिया पर उनसे संबंधित सामग्रियों और जानकारियों की अति पोस्टिंग हो रही है। इनमें से अधिकांश में उनकी हिंदी फिल्‍मों और मुंबई के जीवन की ही बातें हो रही हैं। हिंदी फिल्‍मों में तो उनकी पहली फिल्‍म ‘ सालवां सावन ’ 1979 में आई थी। उसके पहले वह अनेक तमिल और तेलुगू फिल्‍मों में काम कर चुकी थीं। हिंदी के दर्शक और पाठक उन फिल्‍मों के बारे में बातें नहीं करते , क्‍योंकि वे उनके बारे में नहीं जानते। और जानना भी नहीं चाहते। सिर्फगूगल कर लें तो भी मालूम हो जागा कि उन्‍होंने 1967 से 1979 के बीच लगभग एक दर्जन फिल्‍मों के औसत से 100 से अधिक फिल्‍मों में काम किया। कमल हासन के साथ ही उनकी 27 फिल्‍में हैं। अगर दक्षिण की भाषाओं की उनकी फिल्‍मों पर गौर करें तो उ

श्री देवी की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्‍म 'सदमा'

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श्री देवी की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज मैंने श्री देवी के आकस्मिक निधन की खबर आने के बाद फेसबुक के मित्रों से पूछा था कि श्री देवी की उनकी पसंदीदा फिल्‍म कौन सी है। मुझे 255 एंट्री मिली। मैंने गौर किया कि उनकी पॉपुलर फिल्‍मों की सूची में उनकी दक्षिण भारत की फिल्‍में नहीं है। केवल एक मित्र सूर्यन मौर्या ने एक तमिल फिल्‍म ‘ पतिनारु वयाथिनिले ’ का नाम लिया था। मैं जोर देकर यह बात दोहराना चाहता हूं कि सिनेप्रेमी और श्री देवी के हिंदी प्रशंसक उनकी तमिल और तेलुगू की फिल्‍में जरूर देखें। इस साल आयोजित होने वाले फिल्‍म फेस्टिवलों के निदेशकों से मेरा आग्रह रहेगा कि वे श्री देवी की फिल्‍मों के पुनरवालोकन में उनकी दक्षिण भारतीय फिल्‍में अवश्‍य दिखाएं। हिंदी फिल्‍मों में उनकी ख्‍याति कमर्शियल फिल्‍मों के स्‍टार के तौर पर है। उनकी उपलब्धि यह नहीं है कि उन्‍हें ‘लेडी अमिताभ’ कहा गया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि और जिसे रेखांकित भी किया जाना चाहिए कि 54 साल की उम्र में ही उनका फिल्‍म करिअर 50 सालों का रहा। पांच दशकों का फिल्‍म करिअर सहज और आसान नहीं है। बहरहाल,मेरे सर्वेक्षण