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सिनेमालोक : मंटो और इस्मत साथ पहुंचे कान

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सिनेमालोक मंटो और इस्मत साथ पहुंचे कान - अजय ब्रह्मात्मज कैसा संयोग है ? इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो एक-दूसरे से इस कदर जुड़ें हैं कि दशकों बाद वे एक साथ कान फिल्म फेस्टिवल में नमूदार हुए। इस बार दोनों सशरीर वहां नहीं थे , लेकिन उनकी रचनाएं फिल्मों की शक्ल में कान पहुंची थीं। मंटो के मुश्किल दिनों को लेकर नंदिता दास ने उनके ही नाम से फिल्म बनाई है ‘ मंटो ’. इस फिल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी शीर्षक भूमिका निभा रहे हैं। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल ‘ उन सर्टेन रिगार्ड ’ श्रेणी में प्रदर्शित हुई। वहीँ इस्मत चुगताई की विवादस्पद कहानी ‘ लिहाफ ’ पर बानी फिल्म का फर्स्ट लुक जारी किया गया। इसका निर्देशन रहत काज़मी ने किया है और तनिष्ठा चटर्जी व् सोना चौहान ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। दोनों अपनी रचनाओं पर बानी फिल्मों के बहाने एक साथ याद किये गए।   इस्मत और मंटो को पढ़ रहे पाठकों को मालूम होगा कि दोनों ही अपने समय के बोल्ड और और रियलिस्ट कथाकार थे। दोनों के अफसानों में आज़ादी के पहले और दरमियान का समाज खुले रूप में आता है। उन्होंने अपने समय की नंगी सच्चाई का वस्त

अब मेरे पास लोगों के सवालों के जवाब हैंः अभिनेता विनीत कुमार सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज विनीत कुमार सिंह को एक उभरता हुआ अभिनेता कहना ठीक नहीं होगा। वे पिछले करीब 18 वर्षों से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं। कई फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार निभाने के बाद अब जाकर इंडस्ट्री में उनकी खास पहचान बनी है।  विनीत कुमार सिंह ने करीब 18 साल पहले एक टैलेंट हंट के जरिये मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था। उन्होंने बहुत सारे छोटे-छोटे किरदार निभाये, फिल्म ‘चेन कुली की मेन कुली की’ (2007) का सहायक निर्देशन भी किया, लेकिन उनकी अलग पहचान बनी फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ (2013) और ‘गैंग्स ऑफ वासीपुर’ (2012) से। उसके बाद जब अनुराग कश्यप की ‘अग्ली’ (2013) का कान फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन हुआ तो लोगों ने उनके अभिनय की काफी सराहना की। लेकिन अब भी वे बतौर अभिनेता कमर्शियल सफलता से दूर थे। लेकिन ये साल उनके लिए बहुत खुशकिस्मत रहा। ‘मुक्काबाज’ में उनके अभिनय और पटकथा को ना सिर्फ सराहा गया बल्कि फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा प्रदर्शन किया। उसके बाद आई सुधीर मिश्र की ‘दास देव’, जिसका प्रदर्शन तो औसत रहा, लेकिन विनीत ने अपने सशक्त अभिनय से फिल्म में एक

दरअसल : नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘मंटो’

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दरअसल नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘ मंटो ’ - अजय ब्रह्मात्मज भारत से कुछ फ़िल्मकार , पत्रकार और समीक्षक मित्र कान फिल्म फेस्टिवल गए हैं। उनकी राय , टिपण्णी और समीक्षा पर यकीन करें तो नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘ मंटो ’ इस साल की बहुप्रतीक्षित फिल्म होगी। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल के ‘ उन सर्टेन रिगार्ड ’ खंड के लिए चुनी गयी है। इस फिल्म की निर्देशक नंदिता दास हैं। कान फिल्म फेस्टिवल की क्रिएटिव पवित्रता और वस्तुनिष्ठता बची हुई है। दुनिया भर के बेहतरीन फ़िल्में यहाँ देखने को मिल जाती हैं। यह पता चल जाता है कि इस साल का इंटरनेशनल सिनेमा सीन कैसा रहेगा ? वहां दिखाई जा चुकी फ़िल्में कुछ महीनों के बाद घूमती हुई देश के विभिन्न शहरों में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में पहुंचेंगी। मैं ‘ मंटो ’ को नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की फिल्म कह रहा हूँ। उन्होंने ही फिल्म में शीर्षक भूमिका निभाई है। कह सकते हैं कि किरदारों पर भी कलाकारों के नाम लिखे होते हैं। 2005 से सआदत हसन मंटो के जीवन पर फिल्म बनाने की कोशिशें जारी हैं। अनेक निर्देशकों ने सोचा। कुछ कलाकारों ने तैयारी की। बात आयी-गयी और फ़िल्में

फिल्म समीक्षा : अंग्रेजी में कहते हैं

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फिल्म समीक्षा बत्रा साहब की प्रेमकहानी अंग्रेजी में कहते हैं  - अजय ब्रह्मात्मज  हरीश व्यास की बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी 'अंग्रेजी में कहते हैं' संजय मिश्रा की अदाकारी के लिए देखी जानी चाहिए। अभिनेता संजय मिश्रा के दो रूप हैं। एक रूप में वे मुख्यधारा की मसाला फिल्मों में हंसाने के काम आते हैं।  इन फिल्मों में का हीरो कोई भी हो,दर्शकों को संजय मिश्रा का इंतज़ार रहता है। दूसरे रूप में वे तथाकथित छोटी फिल्मों में दर्शकों को रुलाते हैं। यूँ कहें कि आम दर्शकों के दर्द को परदे पर बखूबी उतारते हैं। 'अंग्रेजी में कहते हैं' में वे पोस्टल डिपार्टमेंट के मामूली कर्मचारी हैं। इस फिल्म में उनका नाम यशवंत बत्रा है। अगर बत्रा की जगह वे व्यास,मिश्रा या पांडेय होते या श्रीवास्तव,सिंह या चौधरी भी होते तो तो फिल्म बनारस का सही प्रतिनिधित्व करती है। तात्पर्य यह की हिंदी फिल्मों के निर्देशकों पर पंजाबी किरदारों का इतना दवाब रहता है की 'अंग्रेजी में कहते हैं' जैसी फिल्मों के नायक का सरनेम वे नहीं बदल पाते। मनो नायक बनने और इश्क़ करने का हक़ केवल पंजाबियों को है।  उनका

सिनेमालोक : निशाने पर अमिताभ बच्चन

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सिनेमालोक निशाने पर अमिताभ बच्चन - अजय ब्रह्मात्मज गौर करें तो पिछले कुछ दिनों से अमिताभ बच्चन मिलेनियल पीढ़ी के निशाने पर हैं। दक्षिण के लोकप्रिय अभिनेता प्रकाश राज ने भी एक इंटरव्यू में सीधे शब्दों में उन्हें कायर कहा। आखिर क्या बात है की अमिताभ बच्चन की उक्ति और ख़ामोशी दोनों मायने रखती है ? दर्शक , पाठक , प्रशंसक और उनके आलोचक उनकी हर बात , गतिविधि और पोस्ट को गंभीरता से लेते हैं। अमिताभ बच्चन स्वयं मज़े लेते हैं और अपने विस्तारित परिवार से इंटरैक्ट करते हैं। इस लिहाज से वह अपनी पीढ़ी के ऐसे अकेले अभिनेता हैं , जो नयी पीढ़ी के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं। उनके साथ ाबतिया रहे हैं। हाँ , कई मुद्दों और मसलों पर वे ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं। यह उनका स्वाभाव है। वे विवादों से बचते हैं। कभी कोई पक्ष लेने या रखने से बचते हैं। वे खुद पर लगे आरोपों का भी जवाब नहीं देते। ऐसे समय में वे कोई और राग छेड़ देते हैं।   सभी की तरह वे भी ‘ अवेंजर्स :इंफिनिटी वॉर ’ देखने गए। फिल्म देख कर निकले तो साफ़ शब्दों में सोशल मीडिया पर लिख दिया ,’ अच्छा , भाईसाहब , बुरा न मानना , एक पिक्चर देखने गए