मुम्बई में भटकते रहे दर्शक

मालूम नही आप के शहर में क्या हाल रहा?मुम्बई में तो बुरा हाल था?सारे सिंगल स्क्रीन टूट रहे हैं और उनकी जगह मल्टीप्लेक्स आ रहे हैं.इसे अच्छी तब्दीली के रुप में देखा जा रहा है,जबकि टिकट महंगे होने से चवन्नी की बिरादरी के दर्शकों की तकलीफ बढ़ गयी है.उनकी औकात से बाहर होता जा रहा है सिनेमा.आज उनके लिए थोड़ी ख़ुशी की बात थी,क्योंकि मल्टीप्लेक्स के आदी हो चुके दर्शकों को आज सिंगल स्क्रीन की शरण लेनी पड़ी।

हुआ यों कि मल्टीप्लेक्स और निर्माताओं के बीच मुनाफे की बाँट का मामला आज दोपहर तक नहीं सुलझ पाने के कारण किसी भी मल्टीप्लेक्स में तारे ज़मीन पर और वेलकम नहीं लगी.चूंकि पीवीआर के बिजली बंधु तारे ज़मीन पर के सहयोगी निर्माता थे,इसलिए उनके मल्टीप्लेक्स में वह फिल्म लगी.वहाँ भी वेलकम को लेकर असमंजस बना रहा.दर्शकों को हर मल्टीप्लेक्स से निराश होकर आखिरकार सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर की शरण लेनी पड़ी.चवन्नी दो दिन पहले से टिकट लेने की कोशिश में लगा था.आज सुबह भी वह एक मल्टीप्लेक्स में पहुँचा तो बॉक्स ऑफिस पर बैठे कर्मचारी ने सलाह दी कि दो बजे आकर चेक करना.चवन्नी भला इतनी देर तक कैसे इंतज़ार करता.एक-एक कर वह आसपास के तीनों मल्टीप्लेक्स में गया.हर जगह उसे टिकट की जगह निराशा मिली.थक हार कर वह सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर पहुँचा.वहाँ उसे अपने जैसे कई लोग मिले।

हाँ वे सारे लोग फर्स्ट डे फर्स्ट शो वाले थे.एक सज्जन से मुलाक़ात तो बेहद रोचक रही.सफ़ेद दाढ़ी,सफ़ेद पगड़ी और सफ़ेद सलवार कमीज पहने एक बुजुर्ग सरदार जी मिले.चवन्नी ने देखा कि उनके हाथ काँप रहे हैं,लेकिन आंखो पर कोई चश्मा नहीं था.वे मल्टीप्लेक्स वालों को कोस रहे थे कि अपना मामला पहले क्यों माही सुलझा लेते.यह क्या कि शुक्रवार आ गया और पता ही नहीं है कि फिल्म लगेगी कि नहीं लगेगी?इस से बेहतर तो सिंगल स्क्रीन का ज़माना था कि फिल्म देखने को मिल ही जाती थी.चवन्नी की तरह वह भी कई मुल्तिप्लेक्स के चक्कर लगा कर वहाँ पहुंचे थे.उन्होने बताया कि वे पिछले ६४ सालों से फर्स्ट डे फर्स्ट शो देख रहे हैं.उन्होंने पहली फिल्म १९४३ में देखी थी.फिल्म थी अशोक कुमार की किस्मत.चवन्नी चौंका,उस ने सहज भाव से पूछा कि अगर एक ही हफ्ते कई फिल्में हों तो वे क्या करते हैं?फाटक से उन्होंने जवाब दिया जो सबसे अच्छी लग रही हो उसे सबसे पहले देखते हैं.सबसे अच्छी का फैसला वे स्टार देख कर करते हैं.चवन्नी को अफ़सोस हुआ कि उस के पास कैमरा क्यों नही था.वह इस ब्लॉग पर उनकी तस्वीर लगाता.

Comments

वाह!!
ऐसे दर्शक सिर्फ़ भारत या एशिया में ही संभव होंगे शायद।

फ़िल्मों और सितारों पर तो आपकी तकरीबन पोस्ट रहती हैं क्यों न कुछेक पोस्ट ऐसे ही दर्शकों पर हो जाए।
सही बात कही आपने

ऐसे दर्शकों का भी सम्‍मान होना चाहिए ।
Yunus Khan said…
हमारे दफ्तर में एक टेक्‍नीशियान हैं । वरली के रहने वाले वरलीकर । पिछले चालीस सालों से फर्स्‍ट डे,फर्स्‍ट शो देख रहे हैं । उनकी समीक्षाएं भी एक वाक्‍य की होती हैं । या कहें चार पांच शब्‍दों की । जैसे बंडल पिच्‍चर है रे । या फिर धांसू है । या फिर मैं तो सो गया था यार । वरलीकर को अफसोस है कि मल्‍टीप्‍लेक्‍स की वजह से उनके ज्‍यादा पैसे खर्च होते हैं । लेकिन बंदा अपने जुनून से बाहर नहीं निकल पा रहा है । रिटायरमेन्‍ट की दहलीज पर आने के बावजूद ।

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम