फिल्‍म समीक्षा एसिड फैक्ट्री

विदेशी प्रेरणा (चोरी) से बनी फिल्म

रेटिंग- **
-अजय ब्रह्मात्‍मज

विदेशी फिल्मों की थीम, प्रस्तुति और शैली से प्रेरित संजय गुप्ता ने समान स्वभाव के निर्देशक सुपर्ण वर्मा को एसिड फैक्ट्री के निर्देशन का मौका दिया। उनकी पिछली फिल्मों की तरह ही यह भी डार्क, स्पीड, थ्रिलर और एक्शन से भरी फिल्म है। ऐसी फिल्मों का एक दर्शक समूह भी है। इन्हें बड़े पर्दे पर एक्शन, चेज और एक्सीडेंट देखने में मजा आता है। एसिड फैक्ट्री ऐसे दर्शकों को ही ध्यान में रखते हुए बनायी गयी है। यह विदेशी फिल्म अननोन की भारतीय नकल है।

केपटाउन में एकत्रित भारतीयों की इस कहानी में कोई अंडरव‌र्ल्ड सरगना है तो कोई पुलिस अधिकारी है। एक समृद्ध नागरिक भी है। विदेशी पृष्ठभूमि में बनी ऐसी फिल्मों में सारे पात्र बखूबी हिंदी बोलते हैं, जबकि अपने ही देश के पात्र अब अंग्रेजी बोलने लगे हैं। बहरहाल, एसिड फैक्ट्री में छह किरदार बेहोशी के आलम से जागते हैं तो अपनी याददाश्त खो बैठते हैं। उन्हें याद नहीं कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन? हमारी याददाश्त ही शायद हमें भला-बुरा बनाती है और दुश्मनी सिखाती है। अन्यथा हर इंसान सिर्फ जिंदा रहना चाहता है और उसके लिए वह दूसरे की मदद लेने से नहीं हिचकता। फिल्म का सातवां किरदार बाहर है। उसके इशारे पर ही सब कुछ होना है। याददाश्त खोने से दुश्मन दोस्त के खेल में व्यवधान पड़ जाता है। बाद में सबकी याददाश्त धीरे-धीरे लौटती है और तब तक पुलिस भी आ जाती है। अपराधी पकड़े जाते हैं। पुलिस विजयी होती है और समृद्ध नागरिक सुरक्षित अपने परिवार में लौट जाता है।

छल-कपट और धोखे की इस फिल्म में एक्शन का नयापन है, जो अननोन विदेशी फिल्म से फ्रेम-दर-फ्रेम उठा लिया गया है। चोरी की यह फिल्म चुस्त, आकर्षक और बांधनेवाली है। फिल्म की फोटोग्राफी और संपादन पर विशेष ध्यान दिया गया है। सारे किरदारों की स्टाइलिंग पर उनके चरित्र-चित्रण से ज्यादा ध्यान दिया गया है। नए सिनेमा का यह भी एक प्रकार है।

कलाकारों में डैनी डेंजोगप्पा, मनोज बाजपेयी और इरफान खान दिए गए दृश्यों और संवादों को ही कारगर बना देते हैं। यह उनकी योग्यता है। फरदीन खान, आफताब शिवदासानी, डिनो मोरिया, दीया मिर्जा खुद के साथ निर्देशक की भी सीमा जाहिर करते हैं। चारों थके नजर आते हैं। यह फिल्म अंतिम प्रभाव में निराश करती है।



Comments

Satya Vyas said…
ajay ji aapki compilation "jagi raaton ke kisse padhi " achhi lagi
but shayad kuch der se padhi to irrelevant bhi lagi .

or sanjay gupta ka hang over is film me bhi bakhubi dikhta hai .

kitna ank dete hain 5 me se >

satya

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