खास है पुनरावलोकन (रेट्रोस्‍पेक्टिव)

-अजय ब्रह्मात्‍मज

विदेश में फिल्मकार, प्रोडक्शन हाउस, ऐक्टर और फिल्म से संबंधित तकनीशियनों पर केंद्रित फिल्म समारोहों और रेट्रोस्पेक्टिव (पुनरावलोकन) के आयोजन होते हैं। ऐसे आयोजनों में फिल्मप्रेमी और आम दर्शक पहुंचते हैं। दो से सात दिनों में अपने प्रिय कलाकारों, तकनीशियनों, लेखकों या निर्देशकों की फिल्मों का आनंद उठाने के साथ वे संबंधित फिल्मों के बारे में अपना नजरिया भी बदलते हैं।

ऐसे आयोजनों का सामान्य उद्देश्य फिल्मों से संबंधित किसी खास व्यक्ति के योगदान का रेखांकन ही होता है। एक साथ सारी फिल्में देखने का प्रभाव बिल्कुल अलग होता है। हम ज्यादा स्पष्ट होते हैं। मुंबई में पिछले दिनों फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा की फिल्मों का ऐसा ही पुनरावलोकन हुआ। 30 मार्च से 4 अप्रैल के बीच जुहू के एक मल्टीप्लेक्स में फिल्म अध्येता, पत्रकार, शोधार्थी और छात्रों ने विधु विनोद चोपड़ा की फिल्में देखीं। खास बात थी कि विधु विनोद चोपड़ा के निर्देशन में बनी फिल्मों के साथ उन फिल्मों को भी शामिल किया गया था, जिनके वे निर्माता थे।

विधु खुद को भिन्न किस्म का निर्माता मानते हैं। वे सिर्फ मुनाफे के लिए फिल्में नहीं बनाते, इसलिए अपने बैनर की सभी फिल्मों में उनका क्रिएटिव योगदान रहता है। उनके बैनर की फिल्मों परिणीता, लगे रहो मुन्नाभाई, मुन्नाभाई एमबीबीएस और 3 इडियट्स को सजाने-संवारने और रिलीज करने तक में उनकी बड़ी भूमिका रही है।

इस आयोजन का एक उल्लेखनीय पक्ष भी रहा। मुंबई में आयोजित होने की वजह से विधु विनोद चोपड़ा प्रदर्शित फिल्मों से संबंधित तकनीशियनों और कलाकारों को संस्मरण और विमर्श के लिए बुला सके। सभी प्रदर्शित फिल्मों पर एक से डेढ़ घंटे तक उन्होंने थिएटर में मौजूद दर्शकों से बातें कीं और उनके सवालों के जवाब दिए। खासकर फिल्म और मीडिया स्कूल के छात्रों को इस इंटरैक्शन से बहुत फायदा हुआ। उन्होंने फिल्म निर्माण के अनुभव कलाकारों और तकनीशियनों से साक्षात सुने। अपनी तमाम जिज्ञासाएं रखीं और उन्हें उद्वेलित किया।

विधु विनोद चोपड़ा के पुनरावलोकन से सबक लेकर अगर तमाम हमारे फिल्मकार इस तरह के आयोजन देश के दूसरे शहरों में भी करें, तो दर्शकों को इससे सीधा लाभ होगा। खासकर मीडिया स्कूल के छात्र फिल्मों के बारे में ठोस, विशद और गहरी जानकारी हासिल कर सकेंगे। अभी तकपुनरावलोकन के आयोजन फिल्म समारोहों के साथ जुड़े रहे हैं। आम दर्शक और फिल्म से जुड़े छात्र ऐसे समारोहों में प्रवेश ही नहीं कर पाते और फिर महोत्सवों में आयोजकों का ध्यान पुनरावलोकन पर केंद्रित भी नहीं रहता। उन्हें ढेर सारे इवेंट के बीच पुनरावलोकन भी निबटाना होता है।

दूसरी ओर देखें तो दूसरे शहरों में कलाकारों और तकनीशियनों की शिरकत मुंबई जैसी नहीं हो सकती। फिल्म की चर्चा के लिए स्थानीय फिल्म विशेषज्ञों का सहारा लिया जा सकता है। फिल्मकार के साथ फिल्म से संबंधित किसी एक कलाकार और तकनीशियन को बुलाया जा सकता है। जरूरत है कि ऐसी पहल अवश्य हो। स्थानीय प्रशासन थिएटरों की मदद से व्यक्ति या विषय विशेष पुनरावलोकन का आयोजन कर सकते हैं। ऐसे आयोजनों से लोगों में फिल्मों का व्यावहारिकज्ञान बढ़ेगा।

दर्शक फिल्म देखने के प्रति अधिक संवेदनशील होंगे। वे सिर्फ मनोरंजन की चाहत के लिए फिल्म नहीं देखेंगे। इसी बहाने हम अपने फिल्मकारों, कलाकारों और तकनीशियनों के योगदान के रेखांकन के साथ उनका सार्वजनिक अभिनंदन भी कर सकेंगे। वक्त आ गया है कि दर्शकों और फिल्मों के बीच के रिश्ते का पारंपरिक समीकरण टूटे और नए मजबूत रिश्ते बनें। कई फिल्में अपनी रिलीज के समय छोटी महसूस होती हैं, लेकिन समय के साथ दर्शक उनका महत्व बढ़ा देते हैं। पुनरावलेकान इस प्रोसेस को समझने में मदद कर सकते हैं।


Comments

Amit Gupta said…
एक विचार को सीधे साफ़ और सरल तरीके से पेश करता हुआ लेख , सुझाव और समाधान का सुन्दर समावेश हैं असली फिल्म पत्रकारिता से मिलने का अवसर देकर धन्यवाद

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