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उल्लेखनीय और दर्शनीय है जोधा अकबर

-अजय ब्रह्मात्मज हिदायत-मोबाइल फोन बंद कर दें, सांसें थाम लें, कान खुले रखें और पलकें न झुकने दें। जोधा अकबर देखने के लिए जरूरी है कि आप दिल-ओ-दिमाग से सिनेमाघर में हों और एकटक आपकी नजर पर्दे पर हो। सचमुच लंबे अर्से में इतना भव्य, इस कदर आकर्षक, गहरी अनुभूति का प्रेम, रिश्तों की ऐसी रेशेदारी और ऐतिहासिक तथ्यों पर गढ़ी कोई फिल्म आपने नहीं देखी होगी। यह फिल्म आपकी पूरी तवज्जो चाहती है। इस धारणा को मस्तिष्क से निकाल दें कि फिल्मों का लंबा होना कोई दुर्गुण है। जोधा अकबर भरपूर मनोरंजन प्रदान करती है। आपको मौका नहीं देती कि आप विचलित हों और अपनी घड़ी देखने लगें। जैसा कि अमिताभ बच्चन ने फिल्म के अंत में कहा है- यह कहानी है जोधा अकबर की। इनकी मोहब्बत की मिसाल नहीं दी जाती और न ही इनके प्यार को याद किया जाता है। शायद इसलिए कि इतिहास ने उन्हें महत्व ही नहीं दिया। जबकि सच तो यह है कि जोधा अकबर ने एक साथ मिल कर चुपचाप इतिहास बनाया है। इसी इतिहास के कुछ पन्नों से जोधा अकबर वाकिफ कराती है। मुगल सल्तनत के शहंशाह अकबर और राजपूत राजकुमारी जोधा की प्रेमकहानी शादी की रजामंदी के बाद आरंभ होती है। आशुतोष ग

मिथ्या: अधूरे चरित्र, कमजोर पटकथा

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-अजय ब्रह्मात्मज रजत कपूर ने अलग तरह की फिल्में बनाकर एक नाम कमाया है। ऐसा लगने लगा था कि इस दौर में वे कुछ अलग किस्म का सिनेमा कर पा रहे हैं। उनकी ताजा फिल्म मिथ्या इस उम्मीद को कम करती है। इस फिल्म में वे अलग तरीके से हिंदी फिल्मों के फार्मूले के शिकार हो गए है। मिथ्या निराश करती है। वीके एक्टर बनने की ख्वाहिश रखता है। वह कोशिश करता है और किसी प्रकार जूनियर आर्टिस्ट बन पाया है। उसकी मुश्किल तब खड़ी होती है,जब वह मुंबई के एक डॉन राजे सर का हमशक्ल निकल आता है। विरोधी गैंग के लोग उसे अगवा करते हैं और उसे अद्भुत एक्टिंग एसाइनमेंट देते हैं। उसे राजे सर बन जाना है और फिर अगवा किए गैंग का काम करना है। मजबूरी में वह तैयार हो जाता है। इस एक्टिंग की अपनी दिक्कतें हैं। वह किसी तरह इस जंजाल से निकलना चाहता है। इस कोशिश में उससे ऐसी गलतियां होती हैं कि वह दोनों गैंग का टारगेट बन जाता है। और जैसा कि ऐसी स्थिति में होता है। आखिरकार उसे अपनी जान देनी पड़ती है। हिंदी फिल्मों में हमशक्ल का फार्मूला इतना पुराना और बासी हो गया है कि रजत कपूर उसमें कोई नवीनता नहीं पैदा कर पाते। हमशक्ल की फिल्मों में लॉजि

छोटे फिल्म फेस्टिवल की सार्थकता

-अजय ब्रह्मात्मज गोरखपुर, पटना, गया, भोपाल, जयपुर, शिमला जैसे शहरों के साथ ही मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में भी छोटे पैमाने पर अनेक फिल्म फेस्टिवल होते रहते हैं। दरअसल, देश की दूसरी तमाम गतिविधियों की तरह फिल्म फेस्टिवल के भी श्रेणीकरण और वर्गीकरण हो गए हैं। और उन श्रेणियों और वर्गो के आधार पर उनकी चर्चा होती है और उनका पैमाना भी तय होता है। एक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल है, जोकि पिछले चार सालों से गोवा में ही हो रहा है। भारत सरकार ने तय किया है कि वह हर साल इसे गोवा में ही आयोजित करेगी और चंद सालों में उसे कान, बर्लिन, वेनिस और टोरंटो की तरह महत्वपूर्ण इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल बना देगी। हालांकि पिछले चार सालों में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला। लेकिन हो सकता है कि पांचवें साल में कोई चमत्कार हो जाए। गोवा के अतिरिक्त कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, पुणे और तिरुअनंतपुरम के फिल्म फेस्टिवल राष्ट्रीय महत्व रखते हैं। क्योंकि इन फेस्टिवलों में भी सिनेप्रेमी और फिल्मकार पहुंचते हैं। चूंकि इन सभी फिल्म फेस्टिवल का बजट अपेक्षाकृत ज्यादा होता है, इसलिए फिल्मों का चुनाव अच्छा रहता है। देश और

मैंने युवा अकबर का किरदार निभाया है: रितिक रोशन

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-अजय ब्रह्मात्मज रितिक रोशन को इंटरव्यू के लिए पकड़ पाना लगभग उतना ही मुश्किल काम है, जितनी दिक्कत उन्हें किसी फिल्म के लिए राजी करने में किसी निर्देशक को होती होगी। आप अपनी फिल्मों के चुनाव के प्रति काफी सावधान रहते हैं। क्या वजह रही कि जोधा अकबर के लिए हाँ कहा? पीरियड, कॉस्टयूम और अकबर तीनों में से क्या आपको ज्यादा आकर्षित कर रहा था? मेरे लिए अकबर आकर्षण और चुनौती दोनों थे। कोई मिल गया और धूम 2 की मेरी भूमिका को देखते हुए जोधा अकबर में मेरी भूमिका एकदम अलग है। इसके लिए मुझे खास तरह से तैयारी करनी पड़ी। 14 किलो का कवच पहनकर मैंने स्वयं को किसी पुराने योद्धा की तरह से महसूस किया। मेरी कोशिश रही है कि अकबर के बारे में जो भी जानकारी है, उसके आधार पर उनके एटीट्यूड को ईमानदारी से पर्दे पर उतार सकूं। अकबर के लिए मैंने ढेर सारी किताबें पढ़ीं। मुगल काल और अकबर के बारे में सारी जानकारियां एकत्रित कीं। उन्हें आत्मसात किया। शूटिंग शुरू करते समय मैंने सारी जानकारियां दिमाग से निकाल दीं। आप इस फिल्म को किस नजरिये से देखते है? जोधा अकबर का मकसद मनोरंजन करना है, शिक्षा देना या डाक्यूमेंट्री नहीं है। म

हाय रामा, क्या है ड्रामा

-अजय ब्रह्मात्मज लगता है इस फिल्म की सारी क्रिएटिविटी शीर्षक गीत में ही खप गई है। अदनान सामी के गाए गीत में शब्दों से अच्छा खेला गया है। सुनने में भी अच्छा लगता है। इस गीत के चित्रांकन में फिल्म के सारे कलाकार दिखे हैं, लेकिन शुरू के क्रेडिट के समय ही यह गाना खत्म हो जाता है। उसके बाद फिल्म आरंभ होती है, तो फिर उसके खत्म होने का इंतजार शुरू हो जाता है। रामा रामा क्या है ड्रामा में निर्देशक एस चंद्रकांत ने कामेडी क्रिएट करने की असफल कोशिश की है। अमूमन स्फुट विचार को लेकर बनाई गई फिल्मों का यही हश्र होता है। अधूरी कहानी और आधे-अधूरे किरदारों को लेकर फिल्म पूरी कर दी जाती है। इस फिल्म में निर्देशक एक संदेश देना चाहते हैं कि बीवी का जिंदगी में खास महत्व होता है और सफल दांपत्य के लिए पति-पत्नी को थोड़ा बहुत एडजस्ट करना चाहिए। फिल्म का सारा भार राजपाल यादव के कंधों पर है और उनके कंधे इस फिल्म को ढो नहीं पाते। बाकी कलाकारों का उन्हें लापरवाह सहयोग मिला है। हां, फिल्म में अंग्रेजी के गलत शब्दों का इस्तेमाल करते हुए मिसरा जी (संजय मिश्रा) आते हैं तो राजपाल यादव के साथ उनकी जोड़ी जमती है। अनुपम

कैरेक्टर में ढलने की जरूरत क्यों?

-अजय ब्रह्मात्मज यह खबर लोगों ने पढ़ी और देखी जरूर होगी। मधुर भंडारकर चाहते हैं कि उनकी फिल्म की नायिका किसी मॉडल की तरह छरहरी दिखे। इसी कारण वे प्रियंका चोपड़ा पर वजन कम करने का दबाव भी डाल रहे हैं। कहा जा रहा है कि शूटिंग के पहले प्रियंका को अपना वजन आठ किलोग्राम घटाना है। वे अभी तक आधे में पहुंची हैं। इस खबर के पीछे का सच यह है कि आजकल निर्देशक चरित्रों के अनुसार एक्टर के कायिक परिवर्तन पर बहुत जोर दे रहे हैं। दरअसल, एक्टर भी इससे आ रहे फर्क को महसूस करने के बाद ऐसे परिवर्तन के लिए सहज ही तैयार हो जा रहे हैं। ज्यादा पीछे न जाएं और पिछले साल की फिल्मों को याद करें, तो तीन एक्टर इस नए ट्रेंड के सबूत के तौर पर दिखते हैं। गुरु में अभिषेक बच्चन, ओम शांति ओम में शाहरुख खान और तारे जमीं पर में आमिर खान॥। सच तो यह है कि इन तीनों ने ही फिल्म के चरित्र के अनुसार अपना वजन बढ़ाने और घटाने के साथ ही शरीर पर अलग ढंग से मेहनत भी की। गुरु के मुख्य किरदार के लिए अभिषेक बच्चन को अपना वजन बढ़ाना पड़ा। मध्यांतर के बाद में वे काफी तोंदिले और मोटे दिखाई पड़ते हैं। तोंद तो विशेष मेकअप से बनाई गई थी, लेकिन

कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन यानी संडे

-अजय ब्रह्मात्मज कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन तीनों को उचित मात्रा में मिला कर रोहित शेट्टी ने अपने किरदारों के साथ ऐसा घोला कि एक मनोरंजक फिल्म तैयार हो गई है। रोहित ने पारंपरिक तरीके से एक-एक कर अपने प्रमुख किरदारों को पेश किया है। किरदारों को स्थापित करने के बाद उनके ट्रैक आपस में मिलना शुरू करते हैं। शुरू में एक कंफ्यूजन बनता है, जो इंटरवल तक सस्पेंस में तब्दील हो जाता है। फिल्म के शुरू में चेजिंग होती है। उस समय हीरो राजवीर चांदनी चौक की गलियों, मुंडेरों और छतों पर दौड़ता-छलांग लगाता दिखाई पड़ता है। फिल्म के अंत में भी चेज है, लेकिन वह कारों में हैं। कारें नाचती हुई पलटती हैं। कारों को उड़ाने, पलटाने और ध्वस्त कराने में रोहित को आनंद आता है। सहर (आयशा टाकिया) और राजवीर (अजय देवगन) की इस प्रेम कहानी में कुमार (इरफान खान) और बल्लू (अरशद वारसी) भी आते हैं। सहर की जिंदगी से एक संडे मिसिंग है और फिल्म का सस्पेंस इसी संडे से जुड़ा है। इरफान खान ने स्ट्रगलिंग एक्टर का सुंदर काम किया है। आखिरकार वे भोजपुरी फिल्मों के सिंगिंग स्टार बन जाते हैं, लेकिन इस उपलब्धि को छोटी नजर से पेश किया गया है। फ

शुरू हो फिल्मों की पढ़ाई

-अजय ब्रह्मात्मज अब स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में फिल्मों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का वक्त आ गया है। दरअसल, आज फिल्में हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गई हैं। हर व्यक्ति फिल्में देखता है और यही वजह है कि फिल्में और उनके स्टार हमारी बातचीत और विमर्श का हिस्सा बन गए हैं। फिल्मों के इस प्रसार और प्रभाव के बावजूद अभी तक सामाजिक स्तर पर फिल्मों के प्रति हमारा रवैया सहज नहीं हो पाया है, क्योंकि इसे एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल करने को हम तैयार नहीं हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र कोर्स या किसी कोर्स के हिस्से के तौर पर सिनेमा की पढ़ाई आरंभ जरूर हो गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इन दिनों हर तरह की प्रतियोगिता की परीक्षाओं में सिनेमा से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं। इन प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थी अपने सामान्य ज्ञान या उपलब्ध सीमित जानकारियों के आधार पर ही जवाब देते हैं। अभी तक कोई व्यवस्थित पुस्तक या संदर्भ स्रोत नहीं है, जहां से विधिवत और क्रमिक जानकारी ली जा सके। फिल्मों पर आ रही पुस्तकें मुख्य रूप से स्टार या फिल्म पर ही केंद्रित होती हैं, क्योंकि ट्रेंड, इतिहास और

बांबे टू बैंकाक की बकवास ट्रिप

-अजय ब्रह्मात्मज हैदराबाद ब्लू जैसी फिल्म से करियर आरंभ कर हिंदी में इकबाल और डोर जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके नागेश कुकनूर आखिरकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुचक्र के शिकार हो ही गए। अपने सुर से हट कर उन्होंने नई तान छेड़ी और उसमें बुरी तरह से असफल रहे। बांबे टू बैंकाक नागेश की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है। बावर्ची शंकर सिंह (श्रेयस तलपड़े) रेस्तरां में छूट गए हैंडबैग में मोटी रकम देख कर लालच में आ जाता है। वह पैसे चुरा कर भागता है। गफलत में वह एयरपोर्ट पहुंच जाता है। फिर मौका पाकर बचने के लिए वह बैंकाक जा रहे डाक्टरों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल हो जाता है। डॉक्टर भाटवलेकर बन कर बैंकाक पहुंचे शंकर की समस्याएं दोतरफा हैं। एक तो उसे डॉक्टरी का कोई ज्ञान नहीं है और दूसरे पहली नजर में ही उसे एक थाई लड़की जासमीन (लेना) भा जाती है, जो उसकी भाषा नहीं समझती। अनेक गलतफहमियों के बीच दोनों का प्यार पल्लवित होता है। इस फिल्म में एक अलग ट्रैक अंडरव‌र्ल्ड डान जैम उर्फ जमाल खान (विजय मौर्या) का भी चलता है। शंकर उसी के पैसे लेकर भागा है। बांबे टू बैंकाक में द्विभाषी संवाद हैं। कभी थाई, कभी हिंदी और

फिल्मों के बाद सीरियल के रिमेक

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-अजय ब्रह्मात्मज लगभग बीस साल पहले दूरदर्शन के दिनों में रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण और बी।आर. चोपड़ा के महाभारत के प्रसारण ने इतिहास रचा था। कहते हैं, महाभारत और रामायण के प्रसारण के समय मुहल्ले और गलियां सूनी हो जाती थीं। चूंकि टीवी उस वक्त तक घर-घर नहीं पहुंचा था, इसलिए पड़ोसी परिवारों के लोग एक साथ बैठकर इन पौराणिक धारावाहिकों का आनंद उठाते थे। पिछले बीस वर्षो में दर्शकों और टीवी कार्यक्रमों में भारी बदलाव आ चुका है, लेकिन लगता है टीवी मनोरंजन का इतिहास खुद को दोहराने की स्थिति में आ गया है। बड़े जोर-शोर से एक नए चैनल पर रामायण का प्रसारण होने जा रहा है और महाभारत की तैयारियां चल रही हैं। नए रामायण से हम नवीनता या प्रयोग की उम्मीद नहीं कर सकते, क्योंकि इसे सागर आ‌र्ट्स के बैनर के तहत ही बनाया जा रहा है। हां, बीस साल पहले इसके निर्देशक रामानंद सागर थे। अब निर्देशन की कमान उनके पोते शक्ति सागर ने संभाली है। कहना मुश्किल है कि कहानी और प्रस्तुति के स्तर पर कितना परिवर्तन होगा। वैसे, शक्ति सागर ने बताया है कि पिछली बार जो चीजें छूट गई थीं, इस बार वे सारी चीजें दिखाई जाएंगी। सवाल

माई नेम इज.. सच्चाई से टकराव

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म से नए अभिनेता निखिल द्विवेदी का करियर शुरू हुआ है। निखिल अपनी पहली फिल्म के लिहाज से संतुष्ट करते हैं। उनमें पर्याप्त संभावनाएं हैं। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर से आए अभिनेता की एक बड़ी दिक्कत पर्दे पर आकर्षक दिखने की होती है, चूंकि उसकी ग्रूमिंग वैसी नहीं रहती, इसलिए कैमरे से दोस्ती नहीं हो पाती। निखिल में भी पहली फिल्म का अनगढ़पन है। अनाथ एंथनी (निखिल) को सिकंदर भाई (पवन मल्होत्रा) का सहारा मिलता है। वे उसे फादर ब्रेगैंजा (मिथुन चक्रवर्ती) के पास शिक्षा के लिए भेजते हैं। एंथनी बड़ा होकर बारटेंडर बन जाता है। वह जिस पब में काम करता है, उसके मालिकों में सिकंदर भाई भी हैं। एंथनी की ख्वाहिश एक्टर बनने की है। उसकी ख्वाहिश को मूर्ति (सौरभ शुक्ला) का समर्थन मिलता है। उसे एक फिल्म मिलती है। फिल्म की असिस्टेंट डायरेक्टर रिया से एंथनी को प्यार हो जाता है। कहानी मोड़ लेती है, जब फिल्म में शेक्सपियर के नाटक जूलियस सीजर से मिलती-जुलती स्थिति बनती है। एंथनी एक घटना का गवाह है, अगर वह सच बता दे तो सिकंदर भाई समेत सारे अपराधी पकड़े जाएंगे और हो सकता है कि उसका फिल्मी करियर ही

निखिल द्विवेदी: उभरा एक नया सितारा

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-अजय ब्रह्मात्मज देश भर के बच्चे, किशोर और युवक फिल्में देख कर प्रभावित होते हैं। वे उनके नायकों की छवि मन में बसा लेते हैं कि मैं फलां स्टार की तरह बन जाऊं। जहां एक ओर आज देश के लाखों युवक शाहरुख खान बनना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर 20-25 साल पहले सभी के ख्वाबों में अमिताभ बच्न थे। उन्हीं दिनों इलाहाबाद के एक मध्यवर्गीय परिवार के लड़के निखिल द्विवेदी ने भी सपना पाला। सपना था अमिताभ बच्चन बनने का। उसने कभी किसी से अपने सपने की बात इसलिए नहीं की, क्योंकि उसे यह मालूम था कि जिस परिवार और पृष्ठभूमि में उसकी परवरिश हो रही है, वहां अमिताभ बच्चन तो क्या, फिल्मों में जाने की बात करना भी अक्षम्य अपराध माना जाएगा! ऐसी ख्वाहिशों को कुचल दिया जाता है और माना जाता है कि लड़का भटक गया है। वैसे, आज भी स्थिति नहीं बदली है। आखिर कितने अभिनेता हिंदी प्रदेशों से आ पाए? क्या हिंदी प्रदेश के युवक किसी प्रकार से पिछड़े या अयोग्य हैं? नहीं, सच यही है कि फिल्म पेशे को अभी तक हिंदी प्रदेशों में सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। दिल में अपना सपना संजोए निखिल द्विवेदी पिता गोविंद द्विवेदी के साथ मुंबई आ गए। मुंबई महा

साल के आखिरी और पहले हफ्ते का अपशकुन

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शकुन-अपशकुन पर बहुत ध्यान दिया जाता है। संयोग और घटनाओं के कारण परिणामों के दोहराव से शकुन-अपशकुन का निर्धारण होता है और फिर बगैर किसी लॉजिक और पुनर्विचार के उसका पालन भी होने लगता है। धारणाएं अंधविश्वास का रूप ले लेती हैं और अंधविश्वास धारणाएं बदल देती हैं। पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि साल के आखिरी हफ्ते या पहले हफ्ते में रिलीज हुई फिल्में अच्छा बिजनेस नहीं करती हैं। शायद इसीलिए ज्यादातर निर्माता कोशिश यही करते रहते हैं कि उनकी फिल्में इन हफ्तों में न फंसें। पिछले हफ्ते हनुमान रिट‌र्न्स और शोबिज रिलीज हुई। दोनों फिल्मों का बिजनेस उत्साहजनक नहीं रहा। इस हफ्ते की बात करें, तो कोई भी उल्लेखनीय फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। हल्ला बोल, माई नेम इज एंथनी घोनसाल्विस और बॉम्बे टू बैंकॉक तीनों फिल्में 11 जनवरी को रिलीज होंगी। बहुत पहले महेश भट्ट की कसूर और राज जैसी फिल्में पहले हफ्तों में आने के बाद भी कामयाब रही थीं। महेश भट्ट कहते हैं, मुझे इंडस्ट्री के इस अंधविश्वास की जानकारी है। फिल्म अपने कॉन्टेंट और प्रेजेंटेशन से चलती है। इसलिए मैं अपश

रिटर्न आफ हनुमान: निराश करती है फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए रिटर्न आफ हनुमान के निर्माताओं ने पापुलर हो चुकी एनीमेशन फिल्म हनुमान की छवि का भरपूर इस्तेमाल किया। फिल्म देखने गए। अचानक पर्दे पर दिखा कि रिटर्न आफ हनुमान सिक्वल के तौर पर नहीं बनाई गई है। यह पूरी तरह से काल्पनिक कहानी है। चलिए मान लिया कि काल्पनिक कहानी है तो कल्पना के घोड़े कुछ मामलों में क्यों ठिठक गए? रिटर्न आफ हनुमान के मारुति को बगैर पूंछ के भी दिखाया जा सकता था। मिथक और फैंटेसी का घालमेल बच्चों को कन्फ्यूज करता है। फिल्म में मनोरंजन है, लेकिन वह एनीमेशन और मारुति के चमत्कारी कारनामों के कारण है। मारुति की कहानी को मिथ से जोड़कर दिखाने की वजह महज इतनी रही होगी कि दर्शक उसके कारनामों पर यकीन कर सकें। एनीमेशन फिल्मों में इतिहास और मिथ से हीरो तलाशने की कोशिश जारी है। पहली बार हनुमान देखने के बाद लगा था कि बाल हनुमान के रूप में हीरो मिल गया है, लेकिन मारुति अवतार में बाल हनुमान जंचते नहीं हैं। फिल्म में हिंदी फिल्मों के मशहूर कलाकारों की आवाजों की मिमिक्री का तुक भी समझ में नहीं आया। कहीं रिटर्न आफ हनुमान वैसे शहरी बच्चों के लिए त

औसत से भी नीचे है शोबिज

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में मीडिया निशाने पर है। शोबिज इस साल आई तीसरी फिल्म है, जिसमें मीडिया की बुराइयों को दर्शाया गया है। शोबिज समेत तीनों ही फिल्में मीडिया की कमियों को ऊपर-ऊपर से ही टच कर पाती हैं। रोहन आर्य (तुषार जलोटा) अचानक स्टार बन जाता है। आरंभ में ही इस स्टार की शरद राजपूत (सुशांत सिंह) नामक पत्रकार से बकझक हो जाती है। शरद राजपूत कैसे पत्रकार हैं कि तस्वीरें भी खीचते हैं और टीवी चैनलों में भी दखल रखते हैं। बहरहाल, उन दोनों की आपसी लड़ाई में कहानी आगे बढ़ती है और एक नाटकीय मोड़ लेती है। रोहन की कार में पत्रकार एक लड़की को देखते हैं। वो उसका पीछा करते हैं। पत्रकारिता में आए कथित पतन के बावजूद पत्रकार शोबिज के पत्रकारों जैसी ओछी हरकत नहीं करते। बहरहाल, कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। पता चलता है कि कार में रोहन के साथ तारा नाम की वेश्या थी। बड़ा स्कैंडल बनता है, लेकिन रोहन पूरे मामले को अपने हाथ में लेता है। हिंदी फिल्मों का हीरो है न ़ ़ ़ वह अकेले ही मीडिया से टकराता है और आखिरी दृश्य में मीडिया की भूमिका पर एक प्रवचन भी देता है। शोबिज किसी भी स्तर पर प्रभावित नहीं क

कुछ अलग और उल्लेखनीय फिल्में

-अजय ब्रह्मात्मज नए विषय, नए प्रयोग या प्रस्तुति की नवीनता को हमेशा अपेक्षित सराहना नहीं मिलती, क्योंकि कई बार दर्शक भी उन्हें नकार देते हैं, लेकिन एक अरसा गुजरने के बाद हम उन फिल्मों को दोबारा जब देखते हैं, तो उनका महत्व समझ में आता है। इसके साथ कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं, जिनसे कोई अपेक्षा नहीं रहती, लेकिन दर्शक उनसे अभिभूत नजर आते हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह फिल्मों के विकास का भी यही मंत्र है। पुरानी चीजें छूटती हैं और नई कोशिशें जुड़ती हैं। इस साल सबसे ज्यादा चर्चा भेजा फ्राई की हुई। छोटे बजट में मामूली एक्टरों को लेकर बनी यह फिल्म शहरी दर्शकों को खूब पसंद आई। इस फिल्म में शहरी ऊब, घुटन और हास्य को नए तरीके से पेश किया गया था। फिल्म ने कई स्तरों पर शहरी दर्शकों को लुभाया। गौर करें, तो यह फिल्म छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटरों में बिल्कुल नहीं चली, लेकिन मल्टीप्लेक्स से मिले व्यापार ने इसे उल्लेखनीय फिल्म बना दिया। अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग की तीखी आलोचना हुई और समीक्षकों ने उसे सहज रूप में नहीं लिया। अनुराग के प्रति कठोर रवैया अपनाते हुए समीक्षकों ने इस फिल्म को धो ड

वेलकम-रोचक आइडिया, नाकाम कोशिश

-अजय ब्रह्मात्मज वेलकम का तामझाम भव्य और आकर्षक है। एक साथ नए-पुराने मिला कर आधा दर्जन स्टार, एक हिट डायरेक्टर और उसके ऊपर से हिट प्रोडयूसर ़ ़ ़ फिल्म फील भी दे रही थी कि अच्छी कामेडी देखने को मिलेगी, लेकिन वेलकम ऊंची दुकान, फीका पकवान का मुहावरा चरितार्थ करती है। फिल्म का आइडिया रोचक है। दो माफिया डान हैं उदय शेट्टी और मंजनू। वो अपनी बहन की शादी किसी ऐसे लड़के से करना चाहते हैं, जो सीधा-सादा नेक इंसान हो। उनकी हर कोशिश बेकार जाती है, क्योंकि कोई भी शरीफ खानदान उनके परिवार से रिश्तेदारी नहीं चाहता। तीन संयोग बनते हैं। तीनों ही संयोगों में संजना और राजीव की जोड़ी बनती है। पहले संयोग में मंजनू को राजीव पसंद आता है। वह राजीव के मामा से रिश्ते की बात करता है। दूसरे संयोग में राजीव और संजना के बीच प्यार हो जाता है। तीसरे संयोग में मामा को राजीव के लिए संजना पसंद आती है। इस छोटी और अतिरेकी कहानी को लेखक-निर्देशक ने इतना लंबा खींचा कि फिल्म कमजोर पड़ जाती है। हंसी पैदा करने के लिए जोड़ी गई घटनाएं अलग प्रसंगों के तौर पर तो हंसाती हैं, पर कहानी में कुछ जोड़ नहीं पातीं। वेलकम बिखरी हुई कामेडी

स्ट्रेंजर्स: भूली भटकी स्टाइलिश फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज क्या सचमुच विदेश में बसे भारतीय वहां के समाज से अलग-थलग रहते हैं? क्या वे मिलते ही हिंदी में बातें करने लगते हैं? विदेश में पूरी तरह से शूट की गई हिंदी फिल्मों से जो तस्वीर बनती है, वह बिल्कुल सच्ची नहीं लगती। आनंद राय की स्ट्रेंजर्स भी ऐसी भूलों का शिकार हुई है। लंदन पहुंचने वाली एक ट्रेन के फ‌र्स्ट क्लास कूपे में दो भारतीय मूल के यात्री मिलते हैं। दोनों अजनबी हैं। उनकी आपस में बातचीत आरंभ होती है तो पता चलता है कि दोनों ही अपनी-अपनी बीवियों से तंग हैं। किसी भी प्रकार उनसे मुक्ति चाहते हैं। इंटरवल तक दोनों की योजना बनती है कि वो एक-दूसरे की बीवी की हत्या कर देंगे। पहली हत्या होती है और फिर हमें अजनबी व्यक्तियों के बीच अचानक सी लग रही घटना और योजना की असलियत मालूम होती है। फिल्म में कई सवाल अनुत्तरित हैं। अब पति-पत्नी के बीच तलाक बहुत अनहोनी बात नहीं रही। अगर राहुल और संजीव बीवियों से तंग थे तो उनसे छुटकारा पाने के लिए तलाक ले सकते थे। उन्होंने तलाक का रास्ता न चुन कर उन्हें हलाक करने की क्यों सोची? राहुल और प्रीति या संजीव और नंदिनी के संबंधों में प्रेम नहीं है, लेकि

सलाम! शबाना आजमी...दस कहानियाँ

-अजय ब्रह्मात्मज एक साथ अनेक कहानियों की फिल्मों की यह विधा चल सकती है, लेकिन उसकी प्रस्तुति का नया तरीका खोजना होगा। एक के बाद एक चल रही कहानियां एक-दूसरे के प्रभाव को बाधित करती हैं। संभव है भविष्य के फिल्मकार कोई कारगर तरीका खोजें। दस कहानियां में सिर्फ तीन याद रहने काबिल हैं। बाकी सात कहानियां चालू किस्म का मनोरंजन देती हैं। दस कहानियां के गुलदस्ते में पांच कहानियों के निर्देशक संजय गुप्ता हैं। ये हैं मैट्रीमोनी, गुब्बारे, स्ट्रेंजर्स इन द नाइट, जाहिर और राइज एंड फाल। इनमें केवल जाहिर अपने ट्विस्ट से चौंकाती है। फिल्म की सभी कहानियों में ट्विस्ट इन द टेल की शैली अपनायी गई है। जाहिर में मनोज बाजपेयी और दीया मिर्जा सिर्फ दो ही किरदार हैं। यह कहानी बहुत खूबसूरती से कई स्तरों पर प्रभावित करती है। मेघना गुलजार की पूर्णमासी का ट्विस्ट झकझोर देता है। मां-बेटी की इस कहानी में बेटी की आत्महत्या सिहरा देती है। रोहित राय की राइस प्लेट को शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह के सधे अभिनय ने प्रभावशाली बना दिया है। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला की भूमिका में शबाना की चाल-ढाल और संवाद अदायगी उल्लेखनीय है।

खोया खोया चांद

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-अजय ब्रह्मात्मज सुधीर मिश्र की फिल्म खोया खोया चांद सातवें दशक की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बैकड्राप पर बनी है। माहौल, लहजा और पहनावे से सुधीर मिश्र ने उस पीरियड को क्रिएट किया है। खास बात है कि फिल्म में पीरियड कहानी पर हावी नहीं होता। वह दर्शकों को धीरे से सातवें दशक में ले जाता है। खोया खोया चांद के मुख्य किरदार किसी मृत या जीवित व्यक्ति पर आधारित नहीं हैं, लेकिन उनमें हम गुजरे दौर के अनेक कलाकारों और फिल्मकारों को देख सकते हैं। नायक जफर अली नकवी (शाइनी आहूजा) में एक साथ गुरुदत्त, कमाल अमरोही और साहिर लुधियानवी की झलक है तो निखत (सोहा अली खान) में मीना कुमारी और मधुबाला के जीवन की घटनाएं मिलती हैं। फिल्म की कहानी व्यक्ति केंद्रित नहीं है। जफर और निखत के माध्यम से सुधीर मिश्र ने उस दौर के द्वंद्व और मनोभाव को चित्रित करने की कोशिश की है। प्रेम कुमार (रजत कपूर) और रतनमाला (सोनिया जहां) सातवें दशक की फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि किरदार हैं। जफर और निखत की निजी जिंदगी और उनके रिश्तों की अंतर्कथाओं में फिल्म उलझ जाती है। सुधीर मिश्र एक साथ कई पहलुओं को छूने और सामने लाने के प्रयास में मु