हाल-ए-दिल:21वीं सदी में आजादी के समय का प्रेम

-अजय ब्रह्मात्मज
कई बार फिल्मों के शीर्षक ही उनकी क्वालिटी का अहसास करा देते हैं। 21वीं सदी में हाल-ए-दिल नाम थोड़ा अजीब सा लगता है न? यह फिल्म भी अजीब है। शिमला से मुंबई तक फैली इस कहानी में न तो महानगर मुंबई की आधुनिकता दिखती है और न शिमला की स्थिर भावुकता। फिल्म का बड़ा हिस्सा ट्रेन में है, लेकिन वहां भी जब वी मेट जैसी कहानी और प्रसंगों की छुक-छुक नहीं है।
संजना पिछली सदी की यानी आजादी के आसपास की लड़की और प्रेमिका लगती है। रोहित के प्यार में डूबी संजना अंत-अंत तक शेखर की भावनाओं को नजरअंदाज करती है। और फिर रोहित जैसे परिवेश का युवक इस सदी में अपनी प्रेमिका से अलग किए जाने पर भला क्यों नींद की गोलियां खाएगा? कहीं कुछ गड़बड़ है। किरदारों को गढ़ने में लेखक से मूल गलतियां हो गई हैं। उसके बाद जो कहानी लिखी जा सकी, वह विश्वसनीय नहीं लगती। इसके अलावा फिल्म की रफ्तार इतनी धीमी है कि किरदारों से सहानुभूति के बजाय ऊब होने लगती है। युवा धड़कनों की प्रेम कहानी में मन उचाट हो जाए तो लेखक और निर्देशक की विफलता स्पष्ट है। इस फिल्म में तीन नए एक्टर हैं। अमिता पाठक के स्वाभाविक गुणों के अनुरूप संजना नहीं है। वह संजना के चरित्र में ढल भी नहीं पातीं। फिल्म की नायिका की आवश्यक ग्रूमिंग नहीं की गयी। कई दृश्यों में तो वह अपनी उम्र से बड़ी दिखती हैं। शेखर सुमन के बेटे अध्ययन सुमन का व्यक्तित्व आकर्षक है। उनकी स्क्रीन पे्रजेंस है, लेकिन उनके किरदार को ढंग से विकसित नहीं किया गया है। नकुल मेहता को अपनी प्रतिभा दिखाने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला है। वह निराश नहीं करते। इस फिल्म से अध्ययन सुमन और नकुल मेहता को व्यक्तिगत फायदा होगा। हां, कई बार फिल्म असफल रहती है, लेकिन उसके अभिनेता सफल साबित होते हैं।

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