फ़िल्म समीक्षा:विदेश, आ देखें ज़रा और एक

दीपा मेहता की साधारण फिल्म 'विदेश '

दीपा मेहता ख्यातिलब्ध निर्देशक हैं। उनकी फिल्मों से भारतीय दर्शक परिचित हैं। भारतीय परिवेश में सामाजिक मुद्दों और महिलाओं पर केंद्रित उनकी फिल्मों पर विवाद भी हुए हैं। वह संवेदनशील फिल्मकार हैं, लेकिन विदेश में उनसे चूक हो गई है। फिल्म का विषय उनकी सोच और शैली का है पर चित्रण कमजोर है। लुधियाना की लड़की चांद (प्रिटी जिंटा) की शादी राकी (वंश भारद्वाज) से हो जाती है। अपनी आंखों में सपने लिए वह कनाडा पहुंचती है। वहां शुरू से ही उसे पति के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता है। विदेशी भूमि में लाचार और विवश चांद की मदद जमाइका की रोजा करती है। रोजा उसे एक बूटी देती है और बताती है कि यदि वह इसे पति को पिला दे तो वह उस पर आसक्त हो जाएगा। चांद कोशिश करती है, लेकिन घोल का रंग लाल होता देख उसे बाहर फेंक आती है। संयोग से उसे नाग पी लेता है। वह इछाधारी नाग है। नाग उसके पति के रूप में आकर उसे भरपूर प्रेम देता है। असली और मायावी पति के बीच चांद की दुविधा और बढ़ती है..। दीपा मेहता ने रियल कहानी में एक फैंटेसी जोड़ी है। लेकिन फैंटेसी फिल्म का प्रभाव बढ़ाने के बजाए घटा देता है। गिरीश कर्नाड के नाटक नाग मंडल की कथा को फिल्म में डालकर उन्होंने अपनी फिल्म ही कमजोर कर दी है। लोककथा का आधुनिक चित्रण हास्यास्पद लगता है। कहते हैं कि इस फिल्म को विदेशों में काफी सराहना मिली है और प्रिटी जिंटा को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के दो पुरस्कार भी मिले हैं। पहले भी बगैर मेकअप के प्रताडि़त महिला की भूमिका निभाने से कई अभिनेत्रियों को श्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार मिले हैं। कभी इस पर गौर करना चाहिए कि वे पुरस्कार कितने सही और उचित रहे हैं? हां, वंश भारद्वाज ने प्रशंसनीय अभिनय किया है। ऐसा नहीं लगता कि यह उनकी पहली फिल्म है। विदेश दीपा मेहता की साधारण फिल्म है। यह परिवेश के बजाए परिवार की कहानी बन गई है। ससुराल में चांद की प्रताड़ना की वजह समझ में नहीं आती। संकेत रूप में कुछ संवाद हैं और स्थितियां हैं, लेकिन दीपा उन्हें ठोस तरीके से स्थापित नहीं करतीं।
रेटिंग :*1/2

नहीं है दम 'आ देखें जरा'

जहांगीर सुरती का आइडिया रोचक है और उन्होंने पूरे स्टाइल से उसे शूट भी किया है, लेकिन फिल्म में प्रसंग और घटनाओं की कमी है। नतीजा यह होता है कि थोड़ी देर की उत्सुकता और जोश के बाद फिल्म ठंडी हो जाती है। थ्रिलर फिल्म की सफलता इसमें है कि दर्शक अपनी सीट पर बैठे पर्दे पर आंखें गड़ाए रहें। यह तभी मुमकिन है, जब लेखक कल्पनाशील हो और निर्देशक उसकी कल्पना साकार कर सके।
रे आचार्या (नील नितिन मुकेश) की फोटोग्राफी कुछ खास नहीं चल रही है। संयोग से उसे अपने नाना का एक कैमरा मिलता है, जो भविष्य की तस्वीरें ले सकता है। रे कैमरे की मदद से अपनी गरीबी दूर करता है। लेकिन इस चक्कर में वह रा और प्रशासन की निगाहों में आ जाता है। उसके पीछे अधिकारी लग जाते हैं। एक बार उसे अपनी खिंची तस्वीर के काले प्रिंट मिलते हैं। काला प्रिंट मतलब मौत..। उसकी निश्चित मौत में छह दिन बचे हैं? अब रे की कोशिश है कि वह अपनी मौत को रोके, कैमरा सही हाथों में पहुंचाए और इस बीच अपनी प्रेमिका सिमी का दिल भी जीत ले। चूंकि हिंदी फिल्म है, इसलिए रे की तीनों कोशिशें पूरी होती हैं। लेकिन इस कोशिश में धड़-पकड़, खून-खराबा और मुंबई से बैंकाक तक की भागदौड़ चलती है। अगर लेखक का सपोर्ट मिलता और घटनाएं रोचक होतीं तो यह फिल्म ज्यादा रोमांचित करती। आ देखें जरा की शुरुआत अच्छी है, लेकिन इंटरवल तक आते-आते फिल्म बैठ जाती है। नील की संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं। कुछ दृश्यों में वह प्रभावित करते हैं। उनका एक अलग लुक है। इस लिहाज से फिल्म का चुनाव सही था, किंतु उनके किरदार पर मेहनत नहीं की गई। बिपाशा बसु सिर्फ मादक भाव-भंगिमाओं में ही ठीक लगती हैं।
रेटिंग : *1/2



कहानी पुरानी, एक्शन पुराना 'एक'

संगीत सिवन कामेडी फिल्मों के बाद फिर से एक्शन फिल्म बनाने की कोशिश में लगभग 25 साल पीछे चले गए हैं। कहानी ट्रीटमेंट, एक्शन और एक हद तक एक्टिंग भी तीन दशक पुरानी लगती है। परिवार का प्यार पाकर अपराधी के नेकदिल बनते किरदारों की फिल्में हम देख चुके हैं। एक में नंदू संयोग से एक परिवार का सदस्य बन जाता है। वहां रहते हुए वह बदलता है। अपनी भावनाओं को पहचानता है और एक अच्छे इंसान में तब्दील हो जाता है। फिल्म में मुंबई से पंजाब तक की भागदौड़ और पृष्ठभूमि है। नंदू की तलाश में लगे सीबीआई अधिकारी की भूमिका में नाना पाटेकर को शौकीन और मसखरा मिजाज दिया गया है। बाबी देओल के लिए इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। वह ऐसी घिसी-पिटी फिल्में कर चुके हैं। नाना पाटेकर अपनी भूमिका से संघर्ष करते दिखे। कई दृश्यों में उनका संघर्ष स्पष्ट हो जाता है। संगीत सिवन ने एक्शन दृश्यों में मुख्य रूप से पुरानी स्टंट शैली को रखते हुए कुछ प्रयोग किए हैं। फिर भी मारपीट और भागदौड़ की फिल्मों के शौकीन दर्शकों को एक एक हद तक ही संतुष्ट कर पाएगी।
रेटिंग : *

Comments

तेज और अच्छी जानकारी
bharat said…
Deepa mehta, girish karnad, videshon mein taarif.
phir bhi aap aisa likhte hain. Aapke confidence par humein pura confidence hai.

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