कुछ खास:पौधा माली के सामने इतराए भी तो कैसे-विशाल भारद्वाज

विशाल भारद्वाज ने पिछले दिनों पूना मे आयोजित सेमिनार में अपनी बातें कहीं। इन बातों मे उनकी ईमानदारी झलकती है। वे साहित्य और सिनेमा के रिश्ते और फिल्म में नाटक के रूपांतरण पर अपनी फिल्मों के संदर्भ में बोल रहे थे। वे पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट में आमंत्रित थे।


जो चाहते हो सो कहते हो, चुप रहने की लज्जत क्या जानो
ये राज-ए-मुहब्बत है प्यारे, तुम राज-ए-मुहब्बत क्या जानो
अल्फाज कहां से लाऊं मैं छाले की तपक समझाने को
इकरार-ए-मुहब्बत करते हो, इजहार-ए-मुहब्बत क्या जानो

कहना नहीं आता मुझे, बोलना आता है।
मेरी चुप से गलतफहमियां कुछ और भी बढ़ीं
वो भी सुना उसने, जो मैंने कहा नहीं

मुझे लगा कि चुप रहा तो बहुत कुछ सुन लिया जाएगा। तो अब जो कह रहा हूं, उसमें वह सुन लीजिए जो मैं नहीं कह पा रहा हूं।

साहित्य से मेरा रिश्ता कैसे बना? मैं उसकी बातें करूंगा। उन बातों में कोई मायने मिल जाए, अगर ये हो तो मुनासिब होगा। कल से मैं लोगों को सुन रहा हूं । ऐसा लग रहा है कि कितना कम देखा है, कितना कम सुना है और कितना कम आता है।

माली के सामने पौधा इतराए भी तो कैसे? (गुलजार साहब की तरफ इशारा)। मेरे माली बौठे हुए हैं। गुलजार साहब ने तो.. मैं देख भी नहीं रहा हूं उनकी तरफ।

मेरी ाारणा है कि आम दर्शक औसत काम की पूजा करते हैं। मैं उसी आम दर्शक का हिस्सा हूं। मैं उससे अलग नहीं हूं।

मैंने संगीत निर्देशक के तौर करिअर शुरू किया। "माचिस" के बाद मुझे सीरपसली लिया गयात्र "माचिस" से पहले मैं अपनी ाुनें सुनाता था तो लोग खरीदते नहीं थे। कुछ तो करना था। पौसे कमाने के लिए मैंने झूठ बोलना शुरू किया। मैं ाुनें सुनाता था और कहता था कि पाकिस्तान के एक ाुन से चोरी की है। फिर वह ाुन लोगों को पसंद आ जाती थी। इस तरह मेरा काम चलने लगा था। अपने मौलिक काम को चोरी कह के बेचना मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरी समझ में भी आया कि ट्रेड के गुर सीख लेना जरूरी है। वहां से सफर आरंभ हुआ।

"माचिस" के वक्त में गुलजार साहब ने ऐसे ही एक दिन टिप्पणी की। उन्होंने कहा एक दिन तू एक दिन फिल्ममेकर बन जाओगे। मालूम नहीं उन्होंने मुझ में क्या देखा होगा। लेकिन उनकी बात मेरे अचेतन में रह गयी। "माचिस" के बाद कुछ सालों तक काम मिला और फिर करिअर खत्म होना शुरू हो गया। मुझे लगा कि अब काम मिलना बंद हो जाएगा। कुछ करना पड़ेगा। मुझे लगा कि फिल्में बनाना शुरू करते हैं। फिर अपनी ाुनें खुद ही ले लूंगा। इस तरह खुद को रोजगार देता रहूंगा। यही सोच कर "मकड़ी" बनायी। छोटी सी मौलिक कहानी थी। उस समय अनुराग कश्यप ने सुझाव दिया कि मुझे "थ्रोन ऑफ ब्लड" देखनी चाहिए। पहली बार मैंने कुरोसावा का नाम सुना। उस फिल्म की कहानी और फ्लेवर मेरे अचेतन में रह गए।

"मकड़ी" के बाद मेरा मन था कि अंडरवल्र्ड पर फिल्म बनाऊं। सच कहूं तो मुझे हिंसा, गोलीबारी, बंदूक, भागदौड़ की कहानियां अच्छी लगती हैं। तब सोचा कि राम गोपाल वर्मा ने अंडरवल्र्ड को इस तरह निचोड़ लिया है तो मैं क्या बनाऊं? गैंगस्टर फिल्में आम तौर पर गैंगवार में खत्म होती हैं। किस ने किस को पहले मारा, किस को बाद में मारा। मौत के साथ फिल्में खत्म होती है। दूसरी तरफ गुलजार साहब की "अंगूर" भी दिमाग में थी। वह मजेदार फिल्म थी। अपनी बात करूं तो साहित्य से मेरा कोई नाता नहीं था। "मर्चेंट ऑफ वेनिस" पढ़ी थी। किसी तरह याद कर पास हो गया था। शेक्सपियर से मेरा उतना ही वास्ता था। "अंगूर" की वजह से नाता बढा। साहित्य के संदर्भ में कह रहा हूं .. साहित्य का मतलब है कुछ सीरियस लोग गहरे में बौठकर ऐसी बात करेंगे जो बहुत ही बोरिंग होगी। साहित्य का यही इंप्रेशन था कि इसमें पल्प तो है ही नहीं। पल्प नहीं है तो एंटरटेनमेंट होगा नहीं। मुझे लगा है कि आम दर्शक आज भी ऐसे ही सोचता है। साहित्य का नाम आते ही वे थोड़ा पीछे हट जाते हैं कि एंटरटेनमेंट तो इसमें नहीं मिलने वाला है। लोग गहरी और सीरियस बातें करेंगे साहित्य में।

एक बार आलाप (बाला मांजगांवकर का बेटा) के साथ मैं देहरादून से दिल्ली आ रहा था। मैं सफर में बोर हो रहा था। मैंने उससे पूछा कि कोई किताब है तुम्हारे पास। उसने मुझे "शेक्सपियर टेल्स" दी। उसमें चार-चार पेज में शेक्सपीयर के नाटकों की कहानियां थीं। मैंने उस दिन "मौकबेथ" पढ़ी। चार पेज की कहानी थी। मैं अंडरवल्र्ड की कहानी खोज रहा था। मुझे लगा कि "मौकबेथ" की कहानी इतनी नाटकीय है।इतना ड्रामा है। ये बोरिंग है ही नहीं ज्यादा मजेदार कहानी है। मुंबई पहुंचते ही मैंने वह प्ले मंगाया। मुकश्कल है श्ेक्सपीरियन लैंग्वेज को समझना। मैंने ऐसी किताब ढूंढी,जिस में एक तरफ शेक्सपीरियन लैंग्वेज थी और एक तरफ इंकग्लश लैंग्वेज। फिर मैं फेस्टिवल में गया तो मैंने वो सब याद भी कर लिया था कि जवाब देना पड़ेगा तो शेक्सपीरियन लैंग्वेज बोल दूंगा। लिखने लगा म्तो उसी से चेक भी करता रहा कि बहुत ज्यादा गलत तो नहीं जा रहा। कहीं ऐसा न हो कि मैं कुछ अलग ही फिल्म बना लूं और कहता फिरूं की "मौकबेथ" है। मेरा अज्ञान मेरे काम आ गया। मुझे पता ही नहीं था कि मैं किस चीज पर हाथ रख रहा हूं। हाथ रखना कोई इग्नोरेंट आदमी ही कर सकता है। कहना कि हमने "मौकबेथ" बना ली। पर वहां दोस्त काम आए बहुत। गुलजार साहब तो थे ही। नसीर भाई, पंकज जी। नसीर भाई ने जब उस पर स्टैम्प लगाया कि यह बहुत अच्छी स्क्रिप्ट है। तुम बना लो इसे। मैं कोई सा भी रोल करूंगा। कॉप का प्वाइंट उनको अच्छा लगा। उन्होंने खुद ऑफर किया - उन्होंने कहा कि मैं और ओम कॉप का रोल करेंगे। तभी "मैकबेथ" में कैरेक्टर चैंज कर दिया। तो ये एक नादानी में हो गया। ठीक-ठाक हो गया। एक्टर भी बहुत अच्छे थे और स्क्रिप्ट ऐसी ही थी, सोर्स उसका "मकबेथ " रहा। मैंने उसकी स्पिरिट को कहीं से बरकरार रखा। उस समय अब्बास था मेरे साथ। हमलोगों ने उसकी स्पिरिट को पकड़ने की कोशिश की। हमलोगों ने कहा कि इसकी स्पिरिट को कैच करने की कोशिश करते हैं। इसके टेक्स्ट के पीछे नहीं भागेंगे। उस वजह से शायद एक रोल लिखा हुआ था। ये भी सोचा कि कर लेते हैं देखा जाएगा। मान लेते हैं कि हम ही यंक्सपीयर थे चार सौ साल पहले। उसके बाद रिकॉगनिशन मिला तो हिम्मत थोड़ी बढ़ गई - बशीर बद्र साहब का शेर -"अभी अपने इशारों पर हमें चलना नहीं आया। सड़क की लाल पीली बत्तियों को कौन देखेगा।" क्रॉस करो, दूसरा सिंग्नल भी तोड़ो। हिम्मत आ गई। "ओमकारा" में थोड़ी रेस्पॉकन्सबलिटी थी। लेकिन जावेद साहब ने पिछली बार कहा था और कि शायद सच कहा था कि - "मकबूल" में मैंने एक शेक्सपीयर को फेल किया और "ओमकारा" में शेक्सपीयर ने मुझे फेल किया । पता नहीं कौन किसका एग्जाम ले रहा था। पर जावेद साहब ने मेरा एग्जाम जरूर लिया है यहां पर। अब हिम्मत हो गई है और अब ये समझ में आया कि अब मैं चाह रहा हूं ओरिजनल करने की कोशिश करूं। मशहूर और ताकतवर होने का लोभ छोड कर मैं फिल्में बनाऊं। मणि कौल ने कल जो एक बात कही। मुझे लगता है कि मैं शायद उस लाइन के लिए पुणे आया था। स्ट्रक्चर और टेक्सचर लेखक के तौर पर मैं स्ट्रक्चर पर इतना घ्यान देता रहा। अब टेक्सचर पर यान दूंगा। एक्ट वन, एक्ट टू, एक्ट,बिगनींग, मिडिल एण्ड प्लॉट प्वाइंट वन। प्लॉट प्वाइंट टू लग-लग के उसमें कहीं टेक्सचर पर यान ही नहीं दे रहे थे। अगर मुझे स्ट्रक्चर पर काम करना हो तो लिखूं ना। टेक्सचर का जो खूबसूरत जुमला मैं वापस से लेकर जा रहा हूं। अब से मैं स्ट्रक्चर के बजाए अैक्सचर पर काम करूंगा। इसी के साथ अब मुझे जाना भी है। मेरी फ्लाइट है मुझे जाना भी है। अगर मेरे लिए कोई सवाल है तो गुलजार साहब जवाब देंगे।


Comments

बेहद ईमानदार वक्तव्य !
Reetika said…
wallah kya saafgoi hai...
sanjeev5 said…
स्क्रिप्ट लिखने वाले अच्छा मजमून लिख लेते हैं. और हम लोग बेचारे जो उनके प्रसंशक हैं उस कथावस्तु में सचाई ढूंढ लेते हैं. फ़िल्में दुप्पल में नहीं बन जाती हैं. विशाल के अनुसार वो फिल्म बनाते हैं अपने संगीत के लिए लेकिन ओमकारा के बाद जो भी बनाया है वो कोई ख़ास नहीं है. संगीत भी भूल गए से लगते हैं. अब हैदर का इंतज़ार है....यूं कह लो की आखरी मौका है उनके लिए ये बताने के लिए की उनमे कितनी सामर्थ है, मै ये अन्दर ही अंदर से चाहता हूँ की वो सफल हों.

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