फि‍ल्‍म समीक्षा : रक्‍त चरित्र

-अजय ब्रह्मात्‍मज

बदले से प्रेरित हिंसा


रक्त चरित्र: बदले से प्रेरित हिंसा

लतीफेबाजी की तरह हिंसा भी ध्यान आकर्षित करती है। हम एकटक घटनाओं को घटते देखते हैं या उनके वृतांत सुनते हैं। हिंसा अगर बदले की भावना से प्रेरित हो तो हम वंचित, कमजोर और पीडि़त के साथ हो जाते हैं, फिर उसकी प्रतिहिंसा भी हमें जायज लगने लगती है। हिंदी फिल्मों में बदले और प्रतिहिंसा की भावना से प्रेरित फिल्मों की सफल परंपरा रही है। राम गोपाल वर्मा की रक्त चरित्र उसी भावना और परंपरा का निर्वाह करती है। राम गोपाल वर्मा ने आंध्रप्रदेश के तेलुगू देशम पार्टी के नेता परिताला रवि के जीवन की घटनाओं को अपने फिल्म के अनुसार चुना है। यह उनके जीवन पर बनी बायोपिक (बायोग्रैफिकल पिक्चर) फिल्म नहीं है।

कानूनी अड़चनों से बचने के लिए राम गोपाल वर्मा ने वास्तविक चरित्रों के नाम बदल दिए हैं। घटनाएं उनके जीवन से ली है, लेकिन अपनी सुविधा के लिए परिताला रवि के उदय के राजनीतिक और वैचारिक कारणों को छोड़ दिया है। हिंदी फिल्म निर्देशकों की वैचारिक शून्यता का एक उदारहण रक्त चरित्र भी है। विचारहीन फिल्मों का महज तात्कालिक महत्व होता है। हालांकि यह फिल्म बांधती है और हमें फिल्म के नायक प्रताप रवि से जोड़े रखती है। अनायास हिंसा की गलियों में उसका उतरना और अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिंसक बदला लेना उचित लगने लगता है। राम गोपाल वर्मा ने प्रताप रवि और उसके परिवार की सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता को रेखांकित नहीं किया है। ऐसा करने पर शायद फिल्म गंभीर हो जाती और दर्शकों का कथित मनोरंजन नहीं हो पाता।

फिल्म जिस रूप में हमारे सामने परोसी गई है, उसमें राम गोपाल वर्मा अपनी दक्षता और अनुभव का परिचय देते हैं। उन्होंने अपने नैरेशन में घटनाओं और हत्याओं पर अधिक जोर दिया है। केवल शिवाजी राव और प्रताप रवि के संसर्ग के दृश्यों में ड्रामा दिखता है। रक्त चरित्र एक्शन प्रधान फिल्म है। एक्शन के लिए देसी हथियारों कट्टा, कटार, हंसिया का इस्तेमाल किया गया है, इसलिए पर्दे पर रक्त की उछलती बूंदे और धार दिखती हैं। राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म में हिंसा को कथ्य में पिरोने से अधिक ध्यान उसके दृश्यांकन में दिया है। मुमकिन है कुछ दर्शकों को मितली आए या सिर चकराए। राम गोपाल वर्मा ने रक्त और खून के साथ सभी क्रियाओं, विशेषणों, समास, उपसर्गो और प्रत्ययों का उपयोग किया है। गनीमत है कि उनके लेखकने रक्त के पर्यायों का इस्तेमाल नहीं किया है। रक्त चरित्र को आज के भारत की महाभारत के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश में उन्होंने अन्य भावनाओं को दरकिनार कर दिया है। इस फिल्म में पिता-पुत्र संबंध, परिवार के प्रति प्रेम, सत्ता की चाहत और वंचितों के उभार जैसी भावनाएं हैं। फिल्म वंचितों और समृद्धों के संघर्ष और अंतर्विरोध से आरंभ होती है, लेकिन कुछ दृश्यों केबाद ही व्यक्तिगत बदले की लकीर पीटने लगती है। प्रताप रवि कहता भी है कि बदला भी मेरा होगा। यह भाव ही फिल्म की सीमा बन जाता है और रक्त चरित्र हमारे समय के महाभारत के बजाए चंद व्यक्तियों के रक्तरंजित बदले की कहानी बन कर रह जाती है।

रक्त चरित्र विवेक ओबेराय और अभिमन्यु सिंह के अभिनय के लिए याद की जाएगी। विवेक ने अपनी पिछली फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है। उन्होंने प्रताप के क्रोध और प्रतिहिंसा के भाव को चेहरे, भाव और चाल में अच्छी तरह उतारा है। अभिमन्यु सिंह के रूप में हमें एक गाढ़ा अभिनेता मिला है। इस चरित्र के रोम-रोम से क्रूरता फूटती है और अभिमन्यु ने किरदार की इस मनोदशा को खूंखार बना दिया है। अन्य कलाकारों में सुशांत सिंह, राजेन्द्र गुप्ता, शत्रुघ्न सिन्हा और कोटा श्रीनिवास राव का सहयोग सराहनीय है।

फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर में चल रहे संस्कृत के श्लोक स्पष्ट होते तो फिल्म का प्रभाव बढ़ता। राम गोपाल वर्मा की अन्य फिल्मों की तरह ही बैकग्राउंड स्कोर लाउड और ज्यादा है।

रेटिंग- तीन स्टार


Comments

बढिया लिखा आपने .अब तो ये लगता है की पहले आपको पढ़ लिया जाए फिर फिल्म देखने का विचार बनाया जाए.
आपने ये नहीं बताया कि फिल्म देखी जाए कि नहीं।
amitesh said…
लगता है फिल देखनी चाहिए...

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