दरअसल....मुंबई में फिल्म समीक्षा


-अजय ब्रह्मात्मज
    मुंबई में इन दिनों फिल्म प्रिव्यू में दो सौ से अधिक दर्शक रहते हैं। उनमें से अधिकांश का दावा है कि वे फिल्म समीक्षक हैं। निर्माता और कारपोरेट कंपनियां किसी को नाराज नहीं करना चाहतीं। वे सभी को बिठा देती हैं। और सचमुच इतने सारे वेब साइट आ गए हैं। हर जगह फिल्मों के रिव्यू छप रहे हैं और उन पर सितारे टांके जा रहे हैं। थोड़ी देर के लिए आप भी असमंजस में पड़ सकते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? फिल्म रिलीज होने के बाद अखबारों में रिव्यू एड आ जाते हैं। कुछ निर्माता होर्डिंग्स भी टंगवा देते हैं। इनमें रेडियो जॉकी, अंक ज्योतिषी, किसी वेब समीक्षक आदि के साथ पत्र-पत्रिकाओं के नियमित समीक्षकों के भी नाम रहते हैं। समीक्षक या पत्र-पत्रिकाओं के नाम के आगे स्टार जड़ दिए जाते हैं, जो उन्होंने अपनी समीक्षा में दिए होंगे। एक सामान्य शर्त है कि स्टारों की संख्या चार या उससे अधिक हो। कभी-कभार जब जनमत 3-4 के बीच रहता है तो तीन स्टार भी शामिल कर लिए जाते हैं।
    इन दिनों रिलीज हो रही चंद फिल्मों के अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश फिल्मों को 2 से लेकर 4 स्टार तक मिलते हैं। कुछ समीक्षकों की उदारता इतनी बढ़ गई है कि वे पांच स्टार देने में भी नहीं सकुचाते। पांच स्टार यानी परफेक्ट फिल्म, लेकिन हम देखते हैं कि कुछ दिनों के बाद ही ऐसी फिल्में गुमनाम हो जाती हैं। किसी शोधार्थी के लिए यह अध्ययन का अच्छा एवं रोचक विषय हो सकता है कि फिल्मों को दिए जा रहे स्टार का क्या ट्रेंड है? फिल्मों की क्वालिटी और लोकप्रियता से उनका कोई संबंध है कि नहीं? ऐसे अध्ययन से इंटरेस्टिंग तथ्य सामने आएंगे। सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और मार्कण्डेय काटूज पत्रकारों की योग्यता का सवाल उठा रहे हैं। मुझे लगता है कि कुछ महीनों-सालों में फिल्म समीक्षकों की योग्यता का सवाल भी सामने आएगा। फिल्मों की समीक्षा की समुचित ट्रेनिंग की कोई व्यवस्था नहीं है। समीक्षकों और उनके संस्थानों की तरफ से भी ऐसी कोशिश नहीं होती कि जिम्मेदारी ली है तो उसकी अर्हताएं भी पूरी करें।
    और ये स्टार? मैंने महसूस किया है कि इन दिनों अधिकांश पाठक पूरा रिव्यू नहीं पढ़ते। वे स्टार देख कर ही फिल्म देखने या नहीं देखने का फैसला कर लेते हैं। अब फिल्मों के विमर्श और विश्लेषण पर न तो पाठक ध्यान देते हैं और न समीक्षक ही उन्हें तरजीह देते हैं। फिल्म समीक्षा में शब्दों की संख्या भी एक समस्या है। हर अखबार में स्थान सुनिश्चित हैं और अंतिम सामग्री होने की वजह से तय स्पेस में ही उसे ठूंस दिया जाता है। कई बार शब्द काटे जाते हैं और रिव्यू का अभिप्रेत बदल जाता है। कई बार समीक्षकों से पूछा और कहा जाता है कि उनका आशय स्पष्ट नहीं हो सका? कैसे स्पष्ट होगा, किसी ने मर्म समझे बगैर छंटाई कर दी।
    इन दिनों यह भी चर्चा चल रही है कि क्या समीक्षक प्रासंगिक रह गए हैं? पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि जिन फिल्मों को सराहना मिलती है, उन्हें आम दर्शक पसंद नहीं करता। जिन फिल्मों को समीक्षक नापसंद कर रहे हैं, उन्हें दर्शक 100 करोड़ क्लब में पहुंचा रहे हैं। दरअसल, कुछ फिल्में समीक्षा निरपेक्ष होती हैं। ऐसी फिल्मों का दर्शकों से सीधा कनेक्शन रहता है। समीक्षक कुछ भी लिखते रहे। वे फिल्में सफल हो जाती हैं। इन दिनों सफलता ही उत्तमता का पर्याय बन गई है। अब दर्शक भी फिल्मों को अच्छी या बुरी नहीं, बल्कि हिट और फ्लाप की नजर से देखते हैं। अगर कोई फिल्म अच्छा बिजनेस कर रही है तो वीकएंड के बाद उसके दर्शक बढ़ जाते हैं। ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ ताजा उदाहरण है।
    इन स्थितियों के बावजूद समीक्षा का महत्व बना रहेगा। समीक्षक और सराहना से ‘शिप ऑफ थीसियस’, ‘बीए पास’,‘पान सिंह तोमर’और ‘कहानी’ जैसी फिल्मों को फायदा होता है। उन्हें दर्शक मिलते हैं।

Comments

Unknown said…
सच कहूं तो आज-कल समीक्षा पढ़ने से मन ही उचट गया है। कुछ समीक्षक अच्छा लिख रहे है। फिल्म पर भी और फिल्म के विभन्न पहलुओं पर भी। जो हमे फिल्म को अलग-अलग एंगल से समझने में मदद करता है। समीक्षा आज भी लोग पढना चाहते है। उतने ही चाव से। लेकिन कुछ समीक्षक इतना बिटवीन द लाइन लिखते है, कि पढ़ने का मजा किरकिरा हो जाता है।

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