फिल्म समीक्षा : मुल्क

फिल्म समीक्षा : मुल्क 
समस्या और समाधान के 140मिनट 
-अजय ब्रह्मात्मज 

मुख्यधारा की फिल्मों के कलाकार ऋषि कपूर को अनुभव सिन्हा ने बनारस की एक गली में जाकर रोपा और उन्हें मुराद अली बना दिया.ऋषि कपूर और प्रतिक स्मिता बब्बर ही इस फिल्म में मुबई के पले-बढे मुख्य कलाकार हैं.इन दोनों की तब्दीली की मुश्किलें हैं.दोनों ही अपने किरदार को ओढ़ते हैं.खास कर प्रतीक शहीद जैसे प्रमुख किरदार को निभा नहीं पाते.उनका लहजा और व्यवहार बनारस का तो बिल्कुल नहीं लगता.दिक्कतें ऋषि कपूर के साथ भी हैं,लेकिन लुक,मेकअप ,संवाद और किरदार पर फिल्म की टीम का पूरा ध्यान होने से वे मुराद अली से लगते हैं.ऋषि कपूर का निजी लहजा उनके हर किरदार पर हावी हो जाता है.अगर वे लेखक-निर्देशक की मदद से उसे छोड़ने की कोशिश करते हैं तो उनके किरदार की गति में व्यतिक्रम पड़ता है.वह 'मुल्क' में भी है. मनोज पाहवा और ऋषि कपूर के साथ के दृश्यों को देख लें तो अंतर पता चल जायेगा.मुख्य किरदारों को रहने दें.फिल्म के सहयोगी किरदारों में आये उत्तर भारतीय कलाकारों को देखें तो उनकी सहजता ही ऋषि कपूर की कृत्रिमता जाहिर कर देती है.
अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' राजनीतिक और सामाजिक होने का एहसास देती है.वास्तव में यह भावनात्मक फिल्म है.हम और वो में तेज़ी से बंट रहे समाज के राजनीतिक पक्षों को खोजने और समझने की कोशिश नहीं है.किसी राजनीतिक पार्टी और विचार को अनेक कारणों से चिन्हित नहीं किया गया है.अपनी बहस के दौरान आरती मोहम्मद इस बंटवारे को लेकर चल रही हंसी और उदासी की तरफ इशारा तो करती है,लेकिन उसे रेखांकित नहीं करती.लेखक-निर्देशक ने सामाजिक चेतना और जागृति की सीमारेखा खींच रखी है.वे उससे बाहर नहीं जाते.यही वजह है कि सामाजिक यथार्थ को दिखाती यह फिल्म बनावटी और सुविधाजनक निष्कर्षों तक ले जाती प्रतीत होती है. आरती की मुल्क की परिभाषा स्पष्ट नहीं है.संवादों के प्रवाह में पता नहीं चलता,लेकिन जरा गौर से सुनें...वह कहती है मुल्क बंटता है रंग से भाषा से धर्म से जात से ...इस परिभाषा के आधार पर भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश को अलग-अलग मुल्क मानना ही मुश्किल हो जायेगा.मुल्क एक संप्रभुता सम्पन्न भौगोलिक ईकाई है,सरहदें उसे तय करती हैं.सामान रंग,भाषा,धर्म और जात होने पर भी देश अलग हो सकते हैं.देश बनने के राजनीतिक करण होते हैं इन सभी के साथ.
भावनात्मक स्तर पर एक फैमिली ड्रामा के रूप में यह इन्तेरेस्टिंग फिल्म है.भारत में बढ़ रहे अंतर्विरोध,साम्प्रदायिकता और वैमनस्य के सन्दर्भ में यह आज की समस्यायों को नहीं छूती.मुस्लमान परिवार में किसी एक युवक का भटक कर आतंकवादी हो जाना और बाकि हिन्दू समाज से उसके बहिष्कार की बातें करना थोड़ी पूरी घटना हो चुकी है. हिन्दू-मुसलमान यानी हम और वो की बातें बहुत आगे बढ़ चुकी हैं. पिछले 3-4 सालों में मामला लव जिहाद से आगे बढ़ कर मॉब लिंचिंग तक पहुँच चूका है.इन स्थितियों में सत् की ख़ामोशी सहमति के रूप में प्रकट हो रही है.'मुल्क' समय की विसंगतियों से पीछे की फिल्म है .
'मुल्क' की आरम्भिक दृश्य संरचना से आभास होता है कि बनारस मे 'नुक्कड़' चल रहा है.मध्यवर्गीय बस्ती है.पडोसी मिल-जुल कर रहते हैं.मजाक और पार्टियाँ करते हैं.एक-दुसरे के संग और साथ खाते-पीते हैं.चौबे जी तो मुराद अली के यहाँ कबाब भी चांपते हैं,जबकि उनकी पत्नी शाकाहारी खाने को भी हाथ नहीं लगातीं. कोई बुरा नहीं मानता.इलाहाबाद जा रही बस में आतंकवादी हमला होता है और मुराद अली की भाई बिलाल अली के बेटे पर संदेह होता है.यहाँ से स्थितियां और संबंधों के समीकरण बदल जाते हैं.अली के घर की दीवार पर लिख दिया जाता है कि पाकिस्तान जाओ.1992 में बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद से मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा और सीमित आक्रामकता घर करती है.दिशाहीन मुसलमान नौजवानों को गुमराह किया जाता है.निर्देशक तफसील में नहीं जाते कि उनका सरगना आया कहाँ से है?उन्हें जल्दी से अपनी कहानी पर आना है और उसे कोर्ट में ले जाना है.जहाँ अच्छे मुस्लमान और बुरे मुसलमान पर जिरह हो सके. हम और वो के हवाले से समाज में आई फांक को दिखाया जा सके.सिनेमाई आज़ादी रहती और मिलती है कि आप अपनी सुविधा से घटनाक्रम रखें और निहित लक्ष्य तक पहुंचे.लेखक-निर्देशक ने गंगा-जमुनी तहजीब के इस गुलदस्ते को मनमाफिक फूलों(घटना,संवाद और आक्षेप) से सजाया है.फिल्म आर्गेनिक तरीके से क्लाइमेक्स तक नहीं पहुँचती.फिल्म के अंत में जज साहेब सभी को सबक देते हैं.सबक के शब्द बहुत सावधानी से चुने गए हैं.
कलाकारों की शिद्दत और मेहनत का ज़िक्र ज़रूरी है.तापसी पन्नू ने आरती के किरदार को बखूबी निभाया है.वह मुस्लमान परिवार की बहू है.वह अपने ससुर के 65वें जन्मदिन में हिस्सा लेने आई है.वह एक सवाल के साथ घर में प्रवेश करती है कि बच्चे के जन्म के पहले उसका धर्म कैसे तय हो?मा हिन्दू है और पिता मुसलमान....लेखक-निर्देशक को नहीं मालूम किबगैर हिन्दू या मुस्लमान हुए भी बच्चे पल सकते हैं.हमारे आसपास ऐसे अनेक नागरिक मिल जायेंगे जो हिन्दू या मुसलमान परिवारों में जन्म लेने के बावजूद किसी धर्म का पालन नहीं करते.उनके बच्चे राजी-ख़ुशी बड़े होकर देश के ज़िम्मेदार नागरिक भी बने हैं.फिल्म में ऐसी अनेक खामियां हैं.मध्यवर्गीय परिवारों (हिन्दू या मुस्लमान) के सदस्यों की बॉडी लैंग्वेज अली परिवार के सदस्यों जैसी नहीं होती.खासकर जिनका उठाना-बैठना चौबे और सोनकर जैसे पड़ोसियों से हो.आशुतोष राणा ने कटु और अप्रिय संवादों से आरती के किरदार को जिरह का स्पेस दिया है.जज कुमुद मिश्रा प्रभावी हैं.भले ही उनमें 'जॉली एलएलबी' के सौरभ शुक्ल की झलक मिलती है.
यह फिल्म 'गर्म हवा' और 'नसीम' के धरातल पर उतरने की कोशिश करती है.इरादे में सही होने के बावजूद संवेदना और राजनीतिक चेतना की कमी से सुविधाजनक निष्कर्ष निक़ाल लेती है.
अवधि - 140 मिनट
*** तीन स्टार


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