सिनेमालोक : हिंदी फिल्मों के दर्शक

सिनेमालोक

हिंदी फिल्मों के दर्शक
-अजय ब्रह्मात्मज

पिछले 6 सालों में दिल्ली और हिंदी प्रदेशों मैं हिंदी फिल्मों के दर्शकों की संख्या बढ़ी है. इस बढ़त के बावजूद अभी तक हिंदी फिल्मों की कमाई  में मुंबई की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा होती है. ताजा आंकड़ों के अनुसार इस साल मुंबई की हिस्सेदारी 31.37 प्रतिशत रही है.2012 में मुंबई की हिस्सेदारी 36.28 प्रतिशत थी. लगभग 5 प्रतिशत  की कमी शिफ्ट होकर दिल्ली और दूसरी टेरिटरी में चली गई है. कारोबार के हिसाब सेभारत में 13 टेरिटरी की गणना होती है. दशकों से ऐसा ही चला रहा है. इनके नए नामकरण और क्षेत्रों के विभाजन पर कभी सोचा नहीं गया.  मसलन अभी भी सीपी, ईस्ट पंजाब और निजाम जैसी टेरिटरी चलती हैं. राज्यों के पुनर्गठन के बाद इनमें से कई टेरिटरी एक से अधिक राज्यों में फैली है. पारंपरिक रूप से दिल्ली और यूपी एक ही टेरिटरी मानी जाती है.
हिंदी प्रदेशों के हिंदी भाषी दर्शक इस भ्रमित गर्व में रहते हैं हिंदी फिल्में उनकी वजह से ही चलती हैं. सच्चाई यह है राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों को मिलाने के बावजूद फिल्मों की कुल कमाई में हिंदी प्रदेशों का प्रतिशत 25 से अधिक नहीं होता. बिहार-झारखंड का ही उदाहरण लें तो इस साल बढ़त के बावजूद उनका योगदान 2.9 प्रतिशत है. मैसूर,ईस्ट पंजाब और वेस्ट बंगाल का योगदान 5 प्रतिशत से अधिक ही है. हिंदीभाषी दर्शकों को निराधार इतराने से निकलना चाहिए. कोशिश होनी चाहिए कि वे थियेटर में जाकर फिल्में देखें. जाहिर सी बात है कि हिंदी प्रदेशों में ज्यों-ज्यों  मल्टीप्लेक्स बढ़ेंगे त्यों-त्यों दशकों में इजाफा होगा.
पिछले 6 सालों में मुंबई समेत सीआई, राजस्थान, निजाम और उड़ीसा में हिंदी फिल्मों के दर्शकों की संख्या में गिरावट आई है, जबकि दिल्ली-यूपी, ईस्ट पंजाब,सीपी, मैसूर, वेस्ट बंगाल, बिहार-झारखंड, आसाम और टीएनके में हिंदी फिल्मों के दर्शक बढे हैं.यह परिवर्तन शुभ है. दर्शकों की तादाद फिल्मों के विषय तय करती है. गौर करें तो पिछले कुछ सालों में हिंदी फिल्मों की कहानियां मुम्बई से निकल कर देश के अंदरूनी इलाकों में जा रही हैं. निश्चित ही हिंदी प्रदेशों में हिंदी फिल्मों के दर्शक हैं. यह स्वाभाविक है. दिक्कत यह है कि इन दर्शकों में से अधिकांश सिनेमाघरों में जाकर फिल्में नहीं देखते.इसके कई कारण हैं. सिनेमाघर लगातार टूट और बंद हो रहे हैं.कस्बों के सिनेमाघरों पर ताले लग रहे हैं.पहले रिपीट या देर से रिलीज की सुविधा होने से छोटे सिनेमाघरों में भी फिल्में आ जाती थीं. अब नई से नई फिल्म रिलीज के दिन ही देश-विदेश में पहुंच जाती हैं.रिलीज के वीकेंड ।इन ही दर्शक फिल्में देखना चाहते हैं. सिनेमाघर न होने से वंचित दर्शक दूसरे प्लेटफार्म पर फिल्में देख लेते हैं. मुम्बई के निर्माताओं को यकीन नहीं होगा,लेकिन यही कड़वा तथ्य है कि दर्शक स्मार्टफोन पर उनकी ताज़ा फिल्में देख रहे हैं.
दर्शकों की प्राथमिकताओं का खयाल रखते हुए निर्माताआ,वितरक और प्रदर्शकों को युक्ति निकालनी पड़ेगी. मोबाइल नेटवर्क,डाटा डिस्ट्रीब्यूटर और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की मदद से वे दर्शकों तक पहुंच कर खो रहे रेवेन्यू को हासिल कर सकते हैं. छोटे और स्मार्ट सिनेमाघरों के निर्माण पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. काम सीटों और आधुनिक सुविधाओं से लैस सिनेमाघर हों. स्थिति यह है कि राज्यों की राजधानियों के बाहर के शहरों-कस्बों में सिनेमाघर बनाने में प्रशासन और स्थानीय व्यापारियों का ध्यान नहीं है। इसके साथ ही मौजूद मल्टीप्लेक्स में टिकट दर भी कम करना होगा.

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