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तस्वीरों में 'कमीने'

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विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'कमीने' की चर्चा अभी से हो रही है.चवन्नी के पाठकों के लिए कुछ तस्वीरें.क्या ये तस्वीरें कुछ कहती हैं?

मैं खुद को जागरुक मानती हूं:कटरीना कैफ

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मैं खुद को जागरुक मानती हूं: कैटरीना डांसिंग डॉल और ग्लैमर गर्ल के नाम से मशहूर कैटरीना कैफ कबीर खान निर्देशित न्यूयॉर्क में माया का किरदार निभा रही हैं। यह भूमिका उनकी अभी तक निभायी गयी भूमिकाओं से इस मायने में अलग है कि फिल्म की कहानी सच को छूती हुई गुजरती है। उनके किरदार में भी वास्तविकता की छुअन है। बूम से हिंदी फिल्मों में आई कैटरीना कैफ ने अनी सुंदरता और अदाओं से खास पहचान बनायी है। वे पॉपुलर स्टार हैं, लेकिन अभी तक गंभीर और संवेदनशील भूमिकाएं उनसे दूर रही हैं। ऐसा लग रहा है कि न्यूयार्क की शुरूआत उन्हें नयी पहचान देगी। आप फिल्म के किरदार माया से किस रूप और अर्थ में जुड़ाव महसूस करती हैं? इस फिल्म का ऑफर मुझे कबीर खान ने दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि अभी तक मैंने सभी फिल्मों में ग्लैमरस रोल निभाए हैं। मेरे सारे किरदार आम दर्शकों की पहुंच से बाहर रहे हैं किसी सपने की तरह। मैं माया के रूप में आपको ऐसी भूमिका दे रहा हूं जो दर्शकों के अड़ोस-पड़ोस की लड़की हो सकती है। उससे सभी जुड़ाव महसूस करेंगे। हो सकता है कालेज में आप ऐसी लड़की से मिली हों। एक ऐसी लड़की, तो अपनी सी लगे।

दो तस्वीरें:माई नेम इज खान में काजोल और शाहरुख़

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यह फ़िल्म अभी बन रही है.करण जौहर अपने कलाकारों के साथ अमेरिका में इस फ़िल्म की शूटिंग कर रहे हैं.मन जा रहा है की करण पहली बार अपनी ज़मीन से अलग जाकर कुछ कर रहे हैं.हमें उम्मीद है कि काजोल और शाहरुख़ के साथ वे कुछ नया करेंगे...

हिन्दी टाकीज:तीन घंटे की फ़िल्म का नशा तीस दिनों तक रहता था-दुर्गेश उपाध्याय

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हिन्दी टाकीज-४१ दुर्गेश में गंवई सहजता है। मालूम नहीं उन्होंने कैसे इसे बचा लिया है? बातचीत में हमेशा हँसी की चाशनी रहती है और चवन्नी ने कभी किसी की बुराई नहीं सुनी उनसे. ईर्ष्या होती है उनकी सादगी से... उनका परिचय उनके ही शब्दों में...नाम दुर्गेश उपाध्याय, पेशा- बीबीसी पत्रकार,मुंबई में कार्यरत..पढ़ाई लिखाई कुछ गांव में बाकी की लखनऊ में..लखनऊ विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में मास्टर्स ..कैरिएर की शुरुआत मुंबई में की और पिछले कुछ सालों से फिल्मी और राजनैतिक पत्रकारिता में सक्रिय हैं..अच्छा खाना,बौद्दिक लोगों के साथ उठना बैठना,फिल्में देखना और पढ़ना खास शौक हैं..व्यक्तिगत तौर पर काफी भावुक हैं और गूढ विषयों जैसे ईश्वर का अस्तित्व,मानव विकास का इतिहास में गहरी दिलचस्पी,ओशो को पढ़ना पसंद है... मेरा मानना है कि अपनी कहानी कहना हमेशा थोड़ा कठिन काम होता है।आपको लगता है कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया॥फिल्मी दुनिया में रिपोर्टिंग का मेरा अनुभव भले ही ज्यादा ना हो लेकिन इस दौरान काफी दिलचस्प अनुभव हुए हैं..मसलन अमिताभ बच्चन के साथ इंटरव्यू और बिना चिप लगी मशीन से प्रीति जिंटा का आधा इंटरव्यू करना

फ़िल्म समीक्षा:न्यूयार्क

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दोस्ती, प्यार, आतंकवाद व अमेरिका -अजय ब्रह्मात्मज कबीर खान सजग फिल्मकार हैं। पहले काबुल एक्सप्रेस और अब न्यूयार्क में उन्होंने आतंकवाद के प्रभाव और पृष्ठभूमि में कुछ व्यक्तियों की कथा बुनी है। हर बड़ी घटना-दुर्घटना कुछ व्यक्तियों की जिंदगी को गहरे रूप में प्रभावित करती है। न्यूयार्क में 9/11 की पृष्ठभूमि और घटना है। इस हादसे की पृष्ठभूमि में हम कुछ किरदारों की बदलती जिंदगी की मुश्किलों को देखते हैं। उमर (नील नितिन मुकेश) पहली बार न्यूयार्क पहुंचता है। वहां उसकी मुलाकात पहले माया (कैटरीना कैफ) और फिर सैम (जान अब्राहम) से होती है। तीनों की दोस्ती में दो प्रेम कहानियां चलती हैं। उमर को लगता है कि माया उससे प्रेम करती है, जबकि माया का प्रेम सैम के प्रति जाहिर होता है। हिंदी फिल्मों की ऐसी स्थितियों में दूसरा हीरो त्याग की मूर्ति बन जाता है। यहां भी वही होता है, लेकिन बीच में थोड़ा एक्शन और आतंकवाद आता है। आतंकवाद की वजह से फिल्म का निर्वाह बदल जाता है। स्पष्ट है कि उमर और सैम यानी समीर मजहब से मुसलमान हैं। उन पर अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को शक होता है। कहते हैं 9/11 के बाद अमेरिका म

दरअसल:कई परतें थीं बाबू मोशाय संबोधन में

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-अजय ब्रह्मात्मज अमिताभ बच्चन के सुपर स्टार बनने से पहले के सुपर स्टार भी मकाऊ में आयोजित आईफा अवार्ड समारोह में उपस्थित थे। फिल्म इंडस्ट्री में उनके योगदान को रेखांकित करते हुए सम्मानित किया गया। उन्होंने भगवा रंग के कपड़े पहन रखे थे। चाल में पहले जैसी चपलता नहीं थी, लेकिन कदम डगमगा भी नहीं रहे थे। वे बड़े आराम और सधे पांव से मंच पर चढ़े। सम्मान में मिली ट्राफी ग्रहण की, फिर अमिताभ बच्चन को बाबू मोशाय संबोधित करते हुए अपनी बात कही। मकाऊ में आयोजित आईफा अवार्ड समारोह में हम सुपर स्टार राजेश खन्ना को सुन रहे थे। अपने अभिभाषण में उन्होंने एक बार भी अमिताभ बच्चन के नाम से संबोधित नहीं किया। बाबू मोशाय ही कहते रहे। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की फिल्म आनंद देख चुके दर्शकों को अच्छी तरह याद होगा कि इस फिल्म में अमिताभ बच्चन को राजेश खन्ना बाबू मोशाय ही कहते हैं। मकाऊ में मंच पर राजेश खन्ना के बाबू मोशाय संबोधन में लाड़, प्यार, दुलार, शिकायत, आशंका, प्रशंसा, मनमुटाव, अपेक्षा, उपेक्षा आदि भाव थे। हर दो पंक्ति के बाद बाबू मोशाय को अलग अंदाज में उच्चरित कर राजेश खन्ना कुछ नया जोड़ते रहे। थोड़ा

हिन्दी टाकीज:मेरा फ़िल्म प्रेम-अनुज खरे

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हिन्दी टाकीज-३६ अनुज खरे फिल्मों के भारी शौकीन हैं.चवन्नी को लगता है की अगर वे फिल्मों पर लिखें तो बहुत अच्छा रहे.उनसे यही आग्रह है की समय-समय पर अपनी प्रतिक्रियाएं ही लिख दिया करें.आजकल इतने मध्यम और साधन हैं अभिव्यक्ति के.बहरहाल अनुज अपने बारे में लिखते हैं...बुंदेलखंड के छतरपुर में जन्म। पिताजी का सरकारी नौकरी में होने के कारण निरंतर ट्रांसफर। घाट-घाट का पानी पीया। समस्त स्थलों से ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान देने का मौका आने पर मनुष्य प्रजाति ने लेने से इनकार किया खूब लिखकर कसर निकाली। पत्रकारिता जीविका, अध्यापन शौकिया तो लेखन प्रारब्ध के वशीभूत लोगों को जबर्दस्ती ज्ञान देने का जरिया। अपने बल्ले के बल पर जबर्दस्ती टीम में घुसकर क्रिकेट खेलने के शौकीन। फिल्मी क्षेत्र की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने की गलतफहमी। कुल मिलाकर जो हैं वो नहीं होते तो अद्भुत प्रतिभाशाली होने का दावा।जनसंचार, इतिहास-पुरातत्व में स्नातकोत्तर। शुरुआत में कुछ अखबारों में सेवाएं। प्रतियोगी परीक्षाओं के सरकारी-प्राइवेट संस्थानों में अध्यापन। यूजीसी की जूनियर रिसर्च फैलोशिप।पत्रकारिता की विशिष्ठ सेवा के लिए सरस्वती

दरअसल:फिल्म बिरादरी के बोल-वचन

-अजय ब्रह्मात्मज चुनाव समाप्त होने को आए। अगले हफ्तों में नई सरकार चुन ली जाएगी। सत्ता के समीकरण से अभी हम वाकिफ नहीं हैं, लेकिन यकीन रखें, देश का लोकतंत्र डावांडोल नहीं होगा। जो भी सरकार बनेगी, वह चलेगी। फिल्मों के स्तंभ में राजनीति की बात अजीब-सी लग सकती है। दरअसल, चुनाव की घोषणा के बाद फिल्मी हस्तियों ने वोट के लिए मतदाताओं को जागरूक करने के अभियान में आगे बढ़ कर हिस्सा लिया। आमिर खान ने कहा, अच्छे को चुनें, सच्चे को चुनें। दूसरी तरफ करण जौहर के नेतृत्व में अभिषेक बच्चन, करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा, रितेश देशमुख, रणवीर कपूर, असिन, इमरान खान, शाहिद कपूर, सोनम कपूर, जेनिलिया और फरहान अख्तर यह बताते नजर आए कि देश का बदलाव जनता के हाथ में है। करण जौहर का अभियान फिल्म स्टारों के उदास चेहरों से आरंभ होता है। सभी कह रहे हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। देश का कुछ क्यों नहीं हो सकता, क्योंकि सड़कों पर कचरा है, देश में प्रदूषण है, पुलिस रिश्वत लेती है और राजनीतिज्ञ अपराधी हैं। देश में आतंकवादी आकर हंगामा मचा देते हैं। इन सभी से निराश हमारे फिल्म स्टारों को लगता है कि कुछ नहीं हो सकता इस दे

फ़िल्म समीक्षा:९९

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-अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं देश का हर आदमी 99 के फेर में पड़ा है। बस, एक और मिल जाए, हो जाए या पा जाए तो सभी की सेंचुरी लग जाए। आम जीवन के इसी थीम को निर्देशकद्वय राज और डीके ने अपनी फिल्म का विषय बनाया है। उन्होंने मशहूर कामिक किरदार लारेल और हार्डी की तर्ज पर एक मोटा और एक दुबला-पतला किरदार चुना है। यहां सायरस भरूचा और कुणाल खेमू इन भूमिकाओं में हैं। मुंबई के दो छोटे जालसाज डुप्लीकेट सिम के धंधे में पकड़े जाने से बचने के लिए भागते हैं तो अपराध के दूसरे कुचक्र में शामिल हो जाते हैं। वे बुकी एजीएम का काम करने लगते हैं। उसी के पैसों की वसूली के लिए वे दिल्ली पहुंचते हैं। दिल्ली में उनका सामना विचित्र किरदारों से होता है। 99 नए किस्म की कामेडी है। पिछले कुछ समय से दर्शक एक ही किस्म की कामेडी देख कर ऊब चुके हैं, वैसे में 99 राहत की तरह है। निर्देशकद्वय ब्लैक कामेडी और ह्यूमर के बीच में अपने किरदारों को रख पाए हैं। इस फिल्म में मजेदार ब्लैक कामेडी की संभावना थी। फिल्म बीच में स्लो हो जाती है। कामेडी फिल्मों में घटनाएं तेजी से नहीं घटे तो कोफ्त होने लगती है। मुख्य किरदार सचिन [कुणाल खेमू] और

एहसास:समाज को जरूरत है गांधीगिरी की -महेश भट्ट

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देवताओं के देखने लायक था वह नजसरा। किसी ने उम्मीद नहीं की होगी कि न्यूयार्क में स्थित संयुक्त राष्ट्र की खामोश इमारत तालियों और हंसी से इस कदर गुंजायमान हो उठेगी। संयुक्त राष्ट्र केडैग हैम्सर्क गोल्ड ऑडिटोरियम में राज कुमार हिरानी की लगे रहो मुन्ना भाई देखने के बाद पूरा हॉल खिलखिलाहट और तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा। फिल्म के निर्देशक राज कुमार हिरानी और इस शो के लिए विशेष तौर पर गए फिल्म के स्टार यकीन नहीं कर पा रहे थे कि मुन्ना और सर्किट के कारनामों को देख कर दर्शकों के रूप में मौजूद गंभीर स्वभाव के राजनयिक इस प्रकार दिल खोल कर हंसेंगे और तालियां बजाएंगे। इस फिल्म में संजय दत्त और अरशद वारसी ने मुन्ना और सर्किट के रोल में अपने खास अंदाज में गांधीगिरी की थी। तालियों की गूंज थमने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी प्रतिक्रिया से फिल्म के निर्देशक का खुश होना स्वाभाविक और वाजिब है। इस सिनेमाई कौशल के लिए वाहवाही लूटने का उन्हें पूरा हक है, लेकिन उनके साथ हमारे लिए भी यह सोचना-समझना ज्यादा जरूरी है कि इस फिल्म को कुलीन और आम दर्शकों की ऐसी प्रतिक्रिया क्यों मिली? क्या यह गांधी का प्रभाव है, जिन