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Decoding Irrfan - shubhra gupta

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कल रविवार 31 मार्च 2013 को शुभ्रा गुप्‍ता ने दंडियन एक्‍सप्रेस में लिखा। Where does the National Award winner go from here? Irrfan is amongst those actors who are the quickest to invade your mind, and the slowest to leave it. As befits the kind of actor who wears someone's skin so close to his own that the two are practically indistinguishable, he's got himself a National Award for Best Actor for Paan Singh Tomar. The award is richly deserved, and as awards go, it is one of those choices which are faultless, recognising a great character played by a great chameleon. But it also led me to a question. Despite his obvious excellence, and the hunger he exhibits with each role, has Irrfan reached a plateau? A National Award for a particular role can have the effect of a straitjacket, quite apart from an actor's own predisposition, or rujhaan (a much more effective word for 'leaning towards'). Where does he go from here? That he is an actor of worth

श्रद्धांजलि पाकिस्‍तान फिल्‍म इंडस्‍ट्री उर्फ लॉलीवुड

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यह लेख चवन्‍नी के पाठकों के लिए बरगद से लिया गया है। पाकिस्‍तान फिल्‍म इंडस्‍ट्री के बारे में भी कुछ जान लें। इसे फारूक सुलेहरिया ने लिखा है। In terms of production, the late Lollywood was once rated as one of the world’s top ten film industries. Until the 1980s it was not called Lollywood. It was on the pattern of India’s Bollywood that it appropriated Hollywood’s name to become Lollywood. Paradoxically, all its life – marked by glory and shame – our dear, departed Lollywood lived in awe and envy of Bollywood. While Bollywood is busy celebrating its birth centenary (Raja Harishchandra – the first Indian movie by Dada Saheb Phalke – was released in 1913), the late Lollywood breathed its last almost a decade ahead of its would-be centenary in 2024 (In 1924, Daughter of Today was released from Lahore by G K Mehta). However, given the average age of institutions in Pakistan, it lived a long life. For instance, an entire province, fondly called East Pakistan, died at t

सुशांत सिंह राजपूत से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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  सुशांत सिंह राजपूत   ‘काय पो छे’ के तीन युवकों में ईशान को सभी ने पसंद किया। इस किरदार को सुशांत सिंह राजपूत ने निभाया। टीवी के दर्शकों के लिए सुशांत सिंह राजपूत अत्यंत पॉपुलर और परिचित नाम हैं। फिल्म के पर्दे पर पहली बार आए सुशांत ने दर्शकों को अपना मुरीद बना लिया। ‘काय पो छे’ की रिलीज के पहले ही उन्होंने यशराज फिल्म्स की मुनीश शर्मा निर्देशित अनाम फिल्म की शूटिंग कर दी थी। इस फिल्म को पूरी करने के बाद वे राज कुमार हिरानी की ‘पीके’ की शूटिंग आरंभ करेंगे। ‘काय पो छे’ की रिलीज के बाद सुशांत सिंह राजपूत के साथ यह बातचीत हुई है। - ‘काय पो छे’ पर सबसे अच्छी और बुरी प्रतिक्रिया क्या मिली? 0 अभी तक किसी की बुरी प्रतिक्रिया नहीं मिली। सभी से तारीफ मिल रही है। सबसे अच्छी प्रतिक्रिया मेरी दोस्त अंकिता लोखंडे की थी। उन्होंने कहा कि मैं इतने सालों से तुम्हें जानती हूं और ‘पवित्र रिश्ता’ में ढाई साल मैंने साथ में काम भी किया है। फिल्म देखते हुए न तो मुझे सुशांत दिखा और न मानव। एक शो में अपने दोस्तों के साथ गया था। फिल्म खत्म होने के बाद मुझे देखते ही दर्शकों की जो सीटी और तालियां मिली। वह

फिल्‍म समीक्षा : हिम्‍मतवाला

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बेमेल मसालों का मनोरंजन -अजय ब्रह्मात्‍मज  1983 में आई के राघवेन्द्र राव की हिम्मतवाला की रीमेक साजिद खान की हिम्मतवाला 1983 के ही परिवेश और समय में है। कपिलदेव के नेतृत्व में व‌र्ल्ड कप जीतने की कमेंट्री के अलावा फिल्म का एक किरदार बाल कर बताता है कि यह 1983 है। इस प्रकार पिछले बीस सालों में हिंदी सिनेमा के कथ्य और तकनीक में जो भी विकास और प्रगति है, उन्हें साजिद खान ने सिरे से नकार और नजरअंदाज कर दिया है। मजेदार तथ्य है कि साजिद खान की सोच और समझ में यकीन करने वाले निर्माता, कलाकार, तकनीशियन और दर्शक भी हैं। निश्चित ही हमारा देश भारत कई स्तरों पर एक साथ चल रहा है। मनोरंजन का एक स्तर साजिद खान का है। साजिद खान थैंक्स गॉड इटस फ्रायडे जैसा गीत सुनवाने और मॉडर्न फाइट दिखाने के बाद 1983 के गांव रामनगर ले जाते हैं। इस गांव में शेर सिंह, नारायण दास, गोपी, सावित्री आदि जैसे दुनिया से कटे किरदार रहते हैं। बरगद या पीपल के पेड़ के नीचे ग्राम सभा होती है। यहां पुलिस भी 2000 किलोमीटर दूर से आती है। रामनगर की ग्राम पंचायत में एक ही सरपंच है। उसने सभी ग्रामीणों की जमीन-जायदाद

हिंदीहित में निर्माता-निर्देशकों से सार्वजनिक अपील

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क्‍या आप ने दबंग का पोस्‍टर हिंदी में देखा है ? जिस पर DABANGG नहीं दबंग लिखा हो।  चलिए किसी और फिल्‍म का नाम याद करें और यह भी याद करें कि पोस्‍टर पर फिल्‍म का नाम देवनागरी में लिखा था या रोमन में ?               धीरे-धीरे निर्माता-निर्देशकों ने फिल्‍मों के नाम देवनागरी में लिखना बंद कर दिया है। कभी हिंदी,उर्दू और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में नाम आते थे। अभी अंग्रेजी का बोलबाला है। कास्‍ट एंड क्रू के नाम की पट्टी भी अंग्रेजी में चला दी जाती है। फर्स्‍ट लुक पोस्‍टर और विज्ञापनों में भी फिल्‍मों के नाम अंग्रेजी में ही चल रहे हैं। हिंदी फिल्‍मों के नाम सिर्फ रोमन में लिखने का संक्रामक चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। मान लिया गया है कि इतनी अंग्रेजी सभी जानते हैं कि रोमन में फिल्‍मों के नाम पढ़ और समझ सकें। किसी को परवाह नहीं है। ऐसा कोई नियम-अधिनियम भी नहीं है कि हिंदी फिल्‍मों के नाम देवनागरी में ही लिखे जाएं।           मुझे एक प्रसंग याद आता है। राकेश रोशन की कृष रिलीज होने वाली थी। उनके कुछ वितरक मिलने और समझने आए थे। उन्‍हें फिल्‍म के पोस्‍टर दिए गए। अग्रिम विज्ञापन और प्रचार का यह

नसीम बानो के साथ होली - मंटो

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सआदत हसन मंटो के मीना बाजार से होली का एक प्रसंग। यह प्रसंग परी चेहरा नसीम बानो से लिया गया है। यहां नसीम के बहाने मंटो ने होली का जिक्र किया है। फिल्‍मों पर होली पर लिखते समय हम सभी राज कपूर की आर के स्‍टूडियो से ही आरंभ करते हैं। उम्‍मीद है अगली होली में फिल्मिस्‍तान और एस. मुकर्जी का भी उल्‍लेख होगा। .......       यह हंगामा होली का हंगामा था। जिस तरह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की एक ‘ ट्रेडीशन ’ बरखा के आगाज पर ‘ मूड पार्टी ’ है। उसी तरह बम्बे टॉकीज की एक ट्रेडीशन होली की रंग पार्टी थी। चूंकि फिल्मिस्तान के करीब-करीब तमाम कारकुन बाम्बे टॉकीज के महाजिर थे। इसलिए यह ट्रेडीशन यहां भी कायम रही।       एस. मुकर्जी उस रंग पार्टी के रिंग लीडर थे। औरतों की कमान उनकी मोटी और हंसमुख बीवी (अशोक की बहन) के सिपुर्द थी। मैं शाहिद लतीफ के यहां बैठा था। शाहिद की बीवी इस्मत (चुगताई) और मेरी बीवी (सफिया) दोनों खुदा मालूम क्या बातें कर रही थीं। एकदम शोर बरपा हुआ। इस्मत चिल्लाई। ‘ लो सफिया वह आ गये...लेकिन मैं भी... ’       इस्मत इस बात पर अड़ गयी कि वह किसी को अपने ऊपर रंग फेंकने नहीं देगी।

संजय दत्‍त

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-अजय ब्रह्मात्मज  नि:स्संदेह संजय दत्त की लोकप्रियता में बीस सालों के बाद भी कोई कमी नहीं आई है। पिछली बार अप्रैल, 1993 में जेल जाने के समय वे अपने करियर के उत्कर्ष पर थे। साजन और यलगार जैसी हिट फिल्मों से पॉपुलर स्टार की अगली कतार में खड़े संजय दत्त की खलनायक रिलीज होने वाली थी। मुंबई बम धमाके में उनकी संलग्नता की खबर आने के बाद ही उनकी गिरफ्तारी की संभावना बढ़ गई थी। फिर भी उनके आशावादी मित्र सोच रहे थे कि पिता सुनील दत्त अपनी साख का इस्तेमाल करेंगे और उन्हें गंभीर सजा से बचा लेंगे। सुनील दत्त ने हमेशा संजू बाबा को सही राह पर लाने की कोशिश की। उनके दुर्गुणों को जानते हुए भी वे उनसे बेइंतहा प्यार करते रहे। 1993 में वे चाहकर भी अपने बेटे को जेल जाने से नहीं बचा सके क्योंकि तब उनका बेटा राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त पाया गया था। फिर भी पिता होने के नाते उन्होंने संजय को जरूरी भावनात्मक संबल दिया। कोर्ट के चक्कर से लेकर जेल जाने के बाद उनकी रिहाई और उन्हें सामान्य जिंदगी में लाने की हर कोशिश की। कोर्ट में हथियार रखने का मामला साबित होने के बाद भी उनके प्रति फिल्म ब

112 अरब का कारोबार

-अजय ब्रह्मात्मज     हाल ही में संपन्न हुए फिक्की फ्रेम्स में प्रस्तुत वार्षिक रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया कि एक अरब से ज्यादा जनसंख्या के देश में हर दर्शक तक कैसे पहुंचा जाए। मीडिया उद्योग में चौतरफा विकास और बढ़ोत्तरी है। फिर भी लाभ का आंकड़ा अपेक्षा और संभावना से काफी कम है। मीडिया उद्योग की सबसे बड़ी बाधा और सीमा जन-जन तक नहीं पहुंच पाने की है। हिंदी फिल्मों को संदर्भ ले तो बाक्स आफिस पर सर्वाधिक कलेक्शन का रिकार्ड बना चुकी ‘3 इडियट’ को भी केवल 3 करोड़ दर्शकों ने ही देखा। एक अरब से ज्यादा आबादी के देश में 3 करोड़ दर्शक तो 3 प्रतिशत से भी कम हुए। गौर करें तो ‘3 इडियट’ को ही टीवी प्रसारण के जरिए 30 करोड़ दर्शकों ने देखा। अब फिल्म निर्माता चाहते हैं कि डीटीएच के माध्यम से वे पहले ही दिन अधिकाधिक दर्शकों तक पहुंच जाएं।     पिछले दिनों दक्षिण के अभिनेता निर्देशक और निर्माता कमल हासन ने यह तय किया था कि वे डीटीएच के माध्यम से ‘विश्वरूप’ रिलीज करेंगे। घोषणा के बावजूद वितरकों और प्रदर्शकों के भारी दबाव की वजह से वे ऐसा नहीं कर सके। उनकी आरंभिक कोशिश विफल रही, लेकिन यह स्पष्ट संकेत

किशोर कुमार से प्रीतिश नंदी की बातचीत (1985)

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Source: The Illustrated Weekly of India 28 August, 1985 ( 2 yrs before Kishore Kumar's death)  Interviewer: Pritish Nandy ..... PN: I understand you are quitting Bombay and going away to Khandwa… KK: Who can live in this stupid, friendless city where everyone seeks to exploit you every moment of the day? Can you trust anyone out here? Is anyone trustworthy? Is anyone a friend you can count on? I am determined to get out of this futile rat race and live as I've always wanted to. In my native Khandwa, the land of my forefathers. Who wants to die in this ugly city? PN: Why did you come here in the first place? KK: I would come to visit my brother Ashok Kumar. He was such a big star in those days. I thought he could introduce me to KL Saigal who was my greatest idol. People say he used to sing through his nose. But so what? He was a great singer. Greater than anyone else. PN: I believe you are planning to record an album of famous Saigal songs…. KK: They asked

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत (वीडियो बातचीत )

2 मार्च 2013 को मुंबई में डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी से मैंने उनके निर्देशक होने से लेकर सिनेमा में उनकी अभिरुचि समेत साहित्‍य और सिनेमा के संबंधों पर बात की थी। मेरे मित्र रवि शेखर ने उसकी वीडियो रिकार्डिंग की थी। उन्‍होंने इसे यूट्यूब पर शेयर किया है। वहीं से मैं ये लिंक यहां चवन्‍नी के पाठकों के लिए दे रहा हूं। आप का फीडबैक इस नए प्रयास को आंकेगा और बताएगा कि आगे ऐसे वीडियो किस रूप में  पेश किए जाएं। पांच किस्‍तों की यह बातचीत एक साथ पेश है...यह बातचीत संजय चौहान के सौजन्‍य से संपन्‍न हुई थी। दोनों मित्रों को धन्‍यवाद ! पहली किस्‍त http://www.youtube.com/watch?v=K3vsQGenAyo दूसरी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=eBSsvIr6VN4 तीसरी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=fzwnPNjigbE चौथी किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=imvxn8VMDwc पांचवीं किस्‍त  http://www.youtube.com/watch?v=_JkdqS1XkWM