गांधी और फिल्म

{चवन्नी को अजय ब्रह्मात्मज का यह आलेख बापू की जयंती पर प्रासंगिक लगा।}

-अजय ब्रह्मात्मज
यह संयोग किसी फिल्मी कहानी की तरह ही लगता है। फैमिली फिल्मों में किसी संकट के समय नालायक बेटा कुछ ऐसा कर बैठता है, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा बच जाती है। 'लगे रहो मुन्ना भाई' ऐसे ही नालायक माध्यम का सृजन है, जिसे गांधी जी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन्होंने फिल्मों के प्रति अपनी बेरूखी और उदासीनता छिपा कर नहीं रखी। समय-समय पर वे इस माध्यम के प्रति अपनी आशंका जाहिर करते रहे। फिल्में देखने का उन्हें कोई शौक नहीं था और वह फिल्मी हस्तियों के संपर्क में भी नहीं रहे। उनकी मृत्यु के 59सालों के बाद उसी माध्यम ने उन्हें फिर से चर्चा में ला दिया है। 'लगे रहो मुन्ना भाई' ने विस्मृति की धूल में अदृश्य हो रहे गांधी को फिर से प्रासंगिक बना दिया है। किशोर और युवा दर्शक गांधी के मूलमंत्र सत्य और अहिंसा से परिचित हुए हैं और जैसी खबरें आ रही हैं, उससे लगता है कि गांधी का दर्शन हमारे दैनिक एवं सामाजिक व्यवहार में लौट रहा है।
गांधी पुरातनपंथी नहीं थे, लेकिन तकनीकी आधुनिकता से उन्हें परहेज था। कुटीर उद्योग के हिमायती गांधी औद्यौगिकीकरण और नियमित जिंदगी में मशीन के उपयोग को अधिक जरूरी नहीं मानते थे। वह खुद पेंसिल से लिखना पसंद करते थे और अपने जीवनकाल में आ चुके टाइपरायटर को उन्होंने हाथ नहीं लगाया। खादी उनका प्रिय कपड़ा था। चलती-फिरती तस्वीरों से अधिक भरोसा वे छपे हुए शब्‌दों पर करते थे। फिल्म इंडस्ट्री और फिल्मी हस्तियों ने उनसे संपर्क करने और उनके विचार जानने की असफल कोशिशें की। सन्‌ 1927 में इंडियन सिनेमेटोग्राफ कमेटी ने उनकी राय जानने के लिए एक प्रश्नावली भेजी तो उन्होंने उसका नकारात्मक जवाब दिया। उन्होंने लिखा, 'मैं आपकी प्रश्नावली के उत्तर के लिए अनुपयुक्त व्यक्ति हूं। मैंने कभी कोई सिनेमा नहीं देखा और मैं इसके प्रभाव से अनभिज्ञ हूं। अगर इस माध्यम में कोई अच्छाई है तो वह अभी सिद्घ होना बाकी है।' कुछ सालों के पश्चात भारतीय सिनेमा की रजत जयंती के अवसर पर स्मारिका के संदेश के लिए जब उनसे आग्रह किया गया तो उनके सचिव ने लिखा, 'नियमत: गांधी केवल विशेष अवसरों पर संदेश देते हैं और वह भी ऐसे उद्देश्यों के लिए जिनके गुणों पर कोई संदेह न हो। सिनेमा इंडस्ट्री की बात करें तो इसमें उनकी न्यूनतम रुचि है और इस संदर्भ में किसी को उनसे सराहना की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।' अपनी पत्रिका 'हरिजन' में एक संदर्भ में उन्हों स्पष्ट लिखा, 'मैं तो कहूंगा कि सिनेमा फिल्म ज्यादातर बुरे होते हैं।'
गाधी जी के ऐसे विरोधी विचारों को देखते हुए ही ख्वाजा अहमद अब्‌बास ने उन्हें एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने गांधी जी से फिल्म माध्यम के प्रति सकारात्मक सोच अपनाने की अपील की थी। अब्‌बास के पत्र का अंश है - 'आज मैं आपकी परख और अनुमोदन के लिए अपनी पीढ़ी के हाथ लगे खिलौने - सिनेमा को रखना चाहता हूं। आप सिनेमा को जुआ, सट्‌टा और घुड़दौड़ जैसी बुराई मानते हैं। अगर यह बयान किसी और ने दिया होता, तो हमें कोई चिंता नहीं होती ़ ़ ़ लेकिन आपका मामला अलग है। इस देश में या यों कहें कि पूरे विश्व में आपको जो प्रतिष्ठा मिली हुई है, उस संदर्भ में आपकी राय से निकली छोटी टिप्पणी का भी लाखों जनों के लिए बड़ा महत्व है। दुनिया के एक सबसे उपयोगी आविष्कार को ठुकराया या इसे चरित्रहीन लोगों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। बापू, आप महान आत्मा हैं। आपके हृदय में पूर्वाग्रह के लिए स्थान नहीं है। हमारे इस छोटे खिलौने सिनेमा पर ध्यान दें। यह उतना अनुपयोगी नहीं है, जितना दिखता है। इसे आपका ध्यान, आर्शीवाद और सहिष्णु मुस्कान चाहिए।'
ख्वाजा अहमद अबबास के इस आग्रह पर गांधी जी की प्रतिक्रिया नहीं मिलती। गांधीजी अपने विचार नहीं बदल सके। अगर वह आजादी के बाद के वर्षों में जीवित रहते और फिल्मों के प्रभाव को करीब से देख पाते तो निश्चित ही अपनी राय बदलते,क्योंकि गांधीजी अपने विचारों में कट्‌टरपंथी नहीं थे और दूसरों से सीखने-समझने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
भारतीय समाज और विश्व इतिहास में महात्मा गांधी के महत्व के संबंध में दो राय नहीं हो सकती। गांधी के सिद्घांतों ने पूरी मानवता को प्रभावित किया। बीसवीं सदी में दो विश्व युद्घों की विभीषिका के बीच अपने अहिंसक आंदोलन और सत्याग्रह से उन्होंने अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। भारतीय मानस में गांधी अचेतन रूप से मौजूद हैं। आज कुछ शिक्षकों और समाजशास्त्रियों को लग रहा है कि 'लगे रहो मुन्नाभाई' की वजह से गांधी पुनर्जीवित और प्रासंगिक हो गए हैं। सिनेमा के तात्कालिक प्रभाव को महत्वपूर्ण समझ रहे विश्लेषकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद गांधी के विचारों को ही राजकुमार हिरानी ने रेखांकित किया है। राजकुमार हीरानी के प्रयास को कम किए बगैर हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि गांधी की विचारों की स्वीकृति के पीछे उन विचारों की महानता ही है। कल्पना करें, यदि गांधी इतने लोकप्रिय और हर दिल में मौजूद नहीं रहते तो क्या 'लगे रहो मुन्नाभाई' का यही प्रभाव होता ़ ़ ़ कतई नहीं होता।
हां, गांधीवाद को गांधीगिरी का नाम देकर राजकुमार हीरानी ने गांधी के सिद्घांतों को आम बना दिया। मुन्नाभाई गुंडागिरी के तर्ज पर गांधीगिरी का शब्‌द का इस्तेमाल करता है और अपनी मासूम मुस्कान से हमारे दिल में जगह बना लेता है। दिल का भला यह मुन्ना बहुत पहले कभी राजू नाम से रुपहले पर्दे पर आता था और अपनी ईमानदारी से हमें रुलाता और प्रेरित करता था। राज कपूर ने वो राजू की छवि को ही अपनी फिल्मों में भुनाया, जो परिस्थिति का शिकार है, लेकिन अपनी दुष्टताओं के बावजूद नेकदिल इंसान है।
राजकुमार हीरानी ने गांधी के किरदार की फंतासी गढ़ी और फिल्म की पटकथा में ऐसा पिरोया कि वह पर्दे पर आने के वक्त भी खटकता नहीं है। ऐसा लगता ही नहीं कि वह फिल्म के अन्य किरदारों की तरह हाड़-मांस का बना व्यक्ति है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' में गांधी जी हैं और नहीं भी हैं। साक्षात दिखते समय भी मुन्ना उनको छू नहीं सकता, क्योंकि वह मुन्ना के दिमाग में हैं। उसके दिमाग का केमिकल लोचा ही दर्शकों के दिमाग में लोचा पैदा करता है और हम सभी गांधी से प्रभावित होकर सिनेमाघरों से निकलते हैं।
गांधी जी के परपोते तुषार गांधी ने 'गांधीगिरी' शब्‌द के प्रयोग पर सहमति जतायी और बिल्कुल सही कहा कि अगर गांधी जी आज जीवित होते तो शायद अपने सिद्घांतों के लिए गांधीगिरी शब्‌द का ही इस्तेमाल करते। गांधीगिरी में गांधीवाद के तत्व नहीं बदले हैं। सत्य और अहिंसा कारगर अस्त्र हैं गांधीवाद के और 'लगे रहो मुन्नाभाई' में उनका असर दिखता है।

Comments

VIMAL VERMA said…
अच्छा यहां पढकर तो अच्छा लगा, गांधी जी के बारे अच्छी जानकारी दि है आपने शुक्रिया.

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