गुरुदत्त पर एक किताब


-अजय ब्रह्मात्मज
नौ जुलाई को गुरुदत्त का जन्मदिन था। उनकी आकस्मिक मौत हो गई थी 1964 में। हिंदी फिल्मों के इतिहास में गुरुदत्त का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ इसलिए भी लिया जाता है, क्योंकि उनकी फिल्में प्यासा और कागज के फूल की गणना क्लासिक फिल्मों में होती है। वैसे, उनकी अन्य फिल्मों का भी अपना महत्व है। युवा फिल्मकार श्रीराम राघवन उनकी थ्रिलर फिल्मों से बहुत प्रभावित हैं, तो संजय लीला भंसाली को गुरुदत्त का अवसाद पसंद है। माना जाता है कि गानों के पिक्चराइजेशन में गुरुदत्त सिद्धहस्त थे। इतनी सारी खूबियों के धनी गुरुदत्त निजी जिंदगी में एकाकी और दुखी रहे। दरअसल, पत्नी गीता दत्त से उनकी नहीं निभी। वहीदा रहमान के प्रति अपने प्यार को वे कोई परिणति नहीं दे सके। उनके जीवन के इन पहलुओं पर कम लिखा गया है। कायदे से उनकी फिल्मों की विशेषताओं पर भी पर्याप्त चर्चा हिंदी फिल्मों के दर्शकों के बीच नहीं मिलती है। हमने मान लिया है कि वे महान फिल्मकार थे। हमने उनकी मूर्ति बना दी है और लेखों, बयानों और टिप्पणियों में उनका नामोल्लेख कर ही इस फिल्मकार को दर्शकों से जोड़ने की कोशिश की इतिश्री समझ लेते हैं।
इस बार गुरुदत्त के जन्मदिन के अवसर पर पेंग्विन ने उनके ऊपर एक किताब प्रकाशित की है, जिसे लिखा तो सत्या सरन ने है, लेकिन यह मुख्य रूप से अबरार अल्वी के संस्मरणों की एक बानगी है। अबरार अल्वी दस सालों तक गुरुदत्त के सहायक, लेखक और सलाहकार रहे। किताब का नाम है टेन इयर्स विद गुरुदत्त : अबरार अल्वीज जर्नी। सत्या सरन ने अपनी भूमिका में बताया है कि एक इंटरव्यू में अबरार अल्वी ने चुनौती दी थी कि क्या कोई उनकी बातों को लिखने या छापने के लिए तैयार है, क्योंकि उनके पास गुरुदत्त के बारे में बताने के लिए बहुत कुछ है। सत्या सरन ने उनकी यह चुनौती स्वीकार की और फिर इस किताब ने आकार लिया। पूरी किताब पढ़ने के बाद चंद घटनाओं और प्रसंगों की अंदरूनी व्याख्या के अलावा, ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती, जो गुरुदत्त के सृजनात्मक व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अपने संस्मरणों के जरिए अबरार अल्वी ने ज्यादातर खुद के बारे में ही बताया है। वे यह भी संकेत देते हैं कि आर पार से लेकर बहारें फिर भी आएंगी तक के लेखन में वे सहयोग देते रहे, लेकिन उन्हें समुचित क्रेडिट नहीं मिला। वे इस बात पर नाराज हैं कि उन्हें साहब बीबी और गुलाम का निर्देशक भी नहीं माना जाता। आम धारणा है कि गुरुदत्त ने इस फिल्म में अपना नाम नहीं दिया था। एक छोटा-सा सवाल उठता है कि अबरार अल्वी अगर इतने प्रतिभाशाली और समझदार लेखक हैं, तो गुरुदत्त के निधन के बाद उनकी प्रतिभा की सरिता कैसे सूख गई? वे अब तक कोई उल्लेखनीय फिल्म क्यों नहीं कर सके? स्थापित प्रतिभाओं और प्रतिमाओं के सम्मान को ग्रहण लगाने और क्षतिग्रस्त करने का काम उनके सहयोगी करते रहते हैं या फिर यह कोशिश रहती है कि उक्त सम्मान का कुछ अंश उन्हें भी मिल जाए! अबरार अल्वी इस कोशिश में असफल रहते हैं। वे अपने सहयोग और योगदान के जिन प्रसंगों का उल्लेख करते हैं, वे अमूमन हर फिल्म के कुछ दृश्य, संवाद या कुछ और प्रसंग हैं। यानी उनसे पूरी फिल्म नहीं बनती! गुरुदत्त के निधन केचौवालीस साल बाद क्रेडिट न मिलने का जिक्र कर मालूम नहीं अबरार क्या साबित करना चाहते हैं?
किताब को पढ़ते समय उम्मीद थी कि गुरुदत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान के रिश्तों के संदर्भ में कोई नई जानकारी मिलेगी, गुरुदत्त की मानसिक स्थिति और द्वंद्व को हम उनके सहयोगी के संस्मरणों के जरिए समझ सकेंगे, किंतु अफसोस की बात यह है कि अबरार अल्वी न तो गुरुदत्त के अवसाद और भावनात्मक संघर्ष को उजागर करते हैं और न घटनाओं या स्थितियों का विस्तृत ब्यौरा ही देते हैं! उनके संस्मरण सपाट हैं, जिनमें आत्मश्लाघा के अहंकारी अंश हैं। हो सकता है कि सत्या सरन संस्मरणों को संकलित और संगठित नहीं कर सकी हों, लेकिन उन्होंने किताब की एकरेखीय और क्रमिक रूपरेखा उनके संस्मरणों के आधार पर ही तय की होगी। किताब से गुरुदत्त के जीवन के दस महत्वपूर्ण सालों की ऐसी झलक नहीं मिलती है, जो फिल्मकार या व्यक्ति गुरुदत्त से जुड़े रहस्य को कम कर सके!

Comments

CG said…
पुस्तक समीक्षा के लिये धन्यवाद, अब ध्यान रहेगा की नहीं पढ़नी है :)
इस दिखावे की मायानगरी का हर इन्सान अन्दर से डरा हुआ और असुरक्षित महसूस करता है. और अगर आप बरगद की छाँव तले उगे हैं तो आपकी आखिरी उम्मीद भी धराशाई हो चुकी है. खुले में संघर्ष करने वाले औसत पौधे भी अपना विस्तार पा जाते है (दादा कोंडके, डेविड धवन जैसे कुछ).
जानकारी के लिए शुक्रिया ..जरुर पढूंगी इसको
Anonymous said…
अजय जी,जैसा आपके ब्लॉग का नाम है वैसी ही आपकी समीक्षा है. चवन्नी छाप!

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