खेल है विजन और वजन का-राकेश ओमप्रकाश मेहरा

हमलोगों ने डेढ़-दो साल पहले सोचा था कि अपने प्रोडक्शन में दूसरे डायरेक्टरों की फिल्मों का निर्माण करेंगे। मेरे पास कई युवा निर्देशक आते रहते थे। मुझे लगता था कि उन्हें सही प्लेटफार्म मिलना चाहिए। उसी दिशा में पहली कोशिश है 3 थे भाई।

कैसी फिल्म है यह?

यह तीन लड़ाके और लूजर भाइयों की कहानी है। हमने हल्के-फुल्के अंदाज में इसे पेश किया है। ओम पुरी, श्रेयस तलपडे और दीपक डोबरियल ने बहुत ही सुंदर काम किया है। इस फिल्म में मुझे अशोक मेहता, गुलजार, सुखविंदर सिंह और रंजीत बारोट के साथ काम करने में मजा आया। इंटरेस्टिंग फिल्म है।

इन दिनों ज्यादातर बड़े निर्माता-निर्देशक अपने प्रोडक्शन में छोटी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। आपका प्रयास कितना अलग है?

हम सिर्फ मुनाफे के लिए फिल्में नहीं प्रोड्यूस कर रहे हैं। फिल्म को सिर्फ बिजनेस के तौर पर मैंने कभी नहीं देखा है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ छोटी फिल्में ही दूसरे निर्देशकों को मिलेंगी। बजट तो फिल्म के कंटेंट के आधार पर डिसाइड होगा। कल को हो सकता है कि बड़े बजट की एक फिल्म कोई और डायरेक्ट कर रहा हो।

किस आधार पर निर्देशकों को चुन रहे हैं या भविष्य में चुनेंगे?

कहानी पहली शर्त है। जो कहानी हमारे मन को भा गयी या लगा कि इसमें कोई इमोशनल तत्व है, उस पर हम फिल्म बनाएंगे। हम एक्टर और बजट के बारे में कभी नहीं पूछते। वह तो हमारा काम है। डायरेक्टर का विजन और कहानी का वजन समझ में आ जाए तो बाकी चीजें हम तय कर लेते हैं। अपनी फिल्मों के लिए जिन प्रक्रियाओं से गुजरता हूं, उसी से दूसरों के बारे में फैसले लेता हूं।

इन दिनों छोटी फिल्मों पर बड़ा जोर है। माना जा रहा है कि दर्शक ऐसी फिल्मों को हाथोंहाथ ले रहे हैं?

सीमित बजट में प्रयोग की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं। फिल्मों को छोटी या बड़ी कैटेगरी में न देखें। हमें देखना चाहिए कि निर्देशक अपनी बात कह पाया कि नहीं? आइडिया छोटा या बड़ा होता है। जरूरी नहीं है कि सीमित बजट की फिल्म चल ही जाए। अगर ऐसा होने लगे तो हर कोई केवल छोटी फिल्में ही बनाने लगेगा।

निर्माता के तौर पर आपकी भूमिका कितनी भिन्न हो जाती है?

मैं तो शुरू से निर्माता रहा हूं। फर्क यही है कि पहले केवल अपनी फिल्म प्रोड्यूस कर रहा था और अब दूसरों के विजन को सामने ला रहा हूं। मैं एक्सपेरिमेंटल नेचर का हूं। अपना नेचर मैं बदल नहीं सकता। मेरी कंपनी का प्रारूप शुद्ध बिजनेस पर आधारित नहीं है। मैं यह देखता हूं कि क्या मैं खुद यह फिल्म निर्देशित करता? समय के साथ फिल्मों के विषय बदलते जाते हैं।

निर्माता बनने की जरूरत क्यों महसूस हुई?

मेरे पास ढेर सारी कहानियां आती हैं। उनमें से कई अच्छी लगती हैं। मेरी अपनी सीमाएं हैं। मैं सारी कहानियों पर फिल्म नहीं बना सकता, इसलिए सोचा कि क्यों न किसी और के विजन को शेयर किया जाए। किसी अच्छी कहानी से जुड़ना बुरी बात नहीं है। कई बार मेरी टीम के सदस्यों को कोई कहानी अच्छी लग सकती है, जिसमें मुझे अपने लिए बड़ा चैलेंज न दिखे तो मैं उसे दूसरे डायरेक्टर को सौंप सकता हूं। कुल मिलाकर यही कोशिश है कि छोटी-बड़ी हर तरह की फिल्मों का मैं हिस्सा बनूं। यह मेरा क्रिएटिव लोभ है। कंपनी को चलाते रहने के लिए भी कई फिल्मों के निर्माण की जरूरत थी।

छोटे शहरों के उत्सुक युवा लेखक-निर्देशक आप को कैसे अप्रोच करें?

छोटे शहरों से कहानियां आनी चाहिए। मैं तकनीकी सपोर्ट के लिए तैयार हूं। अगर कोई मेरे पास अच्छी स्क्रिप्ट लेकर आता है तो मेरी टीम उसे ग्रीन लाइट देने के लिए तैयार है। संपर्क करने के लिए मेरे वेबसाइट पर जा सकते हैं या सीधे मिल सकते हैं। मेरी कोशिश है कि नए लोग आएं और नए काम लेकर सामने आएं। नई प्रतिभाएं बहुत अच्छा सोच रही हैं। उनके साथ काम कर मैं भी जवान हो रहा हूं।

क्या आप को नहीं लगता कि हिंदी फिल्मों का निर्माण मुंबई में सीमित नहीं रहना चाहिए। दूसरे शहरों में भी यह कोशिश आरंभ होनी चाहिए?

बिल्कुल ़ ़ ़ फिल्म निर्माण के लिए अब जरूरी नहीं है कि सभी मुंबई आएं। आप सही पूछ रहे हैं। मुंबई में फिल्मों के निर्माण को सीमित कर हमने नुकसान ही किया है। यहां आते ही हर क्रिएटिव व्यक्ति एक कुचक्र में फंस जाता है। मुझे भी लगता है इस दिशा में प्रयास होने चाहिए। मुंबई बहुत ही महंगा और व्यस्त शहर हो गया है। यह फिल्म निर्माण के लिए असुविधाजनक हो गया है। दूसरे शहरों में प्रोडक्शन हो तो लोकल प्रतिभाओं को वहीं मौके मिल सकते हैं!

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