हाफ टिकट :किशोर कुमार की फ़िल्म


चवन्नी ने आज ही हाफ टिकट देखी है।

किशोर कुमार और मधुबाला की यह फिल्म 1962 में बनी थी। फिल्म के लेखक-निर्देशक कालिदास थे। सलिल चौधरी ने शैलेन्द्र के गीतों को धुनों से सजाया था। इस फिल्म का हर गीत निराला और अपारंपरिक था। 'आ के सीधे दिल पे लगी कटरिया ' युगल गीत है। किशोर कुमार ने सलिल चौधरी को बड़ी मुश्किल से राजी किया था कि स्त्री और पुरुष दोनों ही स्वरों के लिए उन्हीं की आवाज इस्तेमाल की जाए। किशोर कुमार का यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। वे अपने स्टेज प्रोग्राम में इस गीत को अवश्य गाते थे।

'हाफ टिकट' विजय नामक युवक की कहानी है, जो नियमित जिंदगी नहीं जी सकता। उसके फितूरों से परेशान होकर पिता उसे घर से निकाल देते हैं। उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह मंबई का टिकट भी खरीद सके। वह हाफ टिकट लेता है और बारह साल के मोटे-तगड़े लड़के का वस्त्र धारण करता है। वह ऐसा बच्चा, जिसका शरीर बड़ा हो गया है, लेकिन दिमाग किसी बच्चे का ही है। सफर शुरू होने के समय ही एक बदमाश किस्म का व्यक्ति विजय का चाचा बन जाता है और उसकी जेब में दो लाख का हीरा डाल देता है। पुलिस के डर से वह ऐसा करता है। बाद में हीरा वापस लेने के लिए वह विजय के पीछे पड़ता है। विजय की अचानक मुलाकात रजनी से होती है। वह रजनी से प्रेम करने लगता है। रजनी का असली नाम आशा है। बाद में पता चलता है की जिस लड़की के पिता को विजय ने भगा दिया था,आशा वही लड़की है। इस तरह हंसी-मजाक में फिल्म खत्म होती है।

किशोर कुमार की बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन के लिए यह फिल्म निश्चित रूप से देखनी चाहिए। किशोर कुमार खुले दिल से अभिनय करते थे। इस फिल्म के गीतों में उनकी टांगें जमीन पर कभी सीधी नहीं पड़ी हैं। वे हमेशा टांगों को हिलाते हुए चलते और गाते हैं। आजकल रितिक रोशन और हरमन बावेजा वैसे ही नृत्य फास्ट बीट पर करते हैं। फिल्म में स्पेशल इफेक्ट और एक्शन भी है। आखिरी दृश्यों के एक्शन के लिए अवश्य ही कोई तरकीब इस्तेमाल की गयी होगी। क्रेन से लटके किशोर कुमार को भी हिम्मत करनी पड़ी होगी। इस फिल्म में मधुबाला का सीमित भूमिका है।प्राण की खास भूमिका है.प्राण का नृत्य भी देखने लायक है.

'हाफ टिकट' पूरी तरह से किशोर कुमार की फिल्म है। किशोर कुमार के प्रशंसकों को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए।किशोर कुमार की बेफिक्र अदाओं,निर्बंध नृत्य,अनोखे परिधान और अजीबोगरीब harkaton से दर्शक bandhe रहते हैं.

Comments

sanjay patel said…
आजकल कॉमेडी के नाम पर जो चोचले हो रहे हैं उनके सामने हाफ़ टिकिट को रखिये तो लगता है इसे कहते हैं ओरिजनल हास्य. गायक के रूप में तो निश्चित रूप से किशोर दा विलक्षण थे लेकिन उनकी गायन व्यस्तताओं की वजह से हम एक बेमिसाल अभिनेता की लम्बी पारी देखने से वंचित रहे.पड़ोसन में फ़ुल टाइम कॉमेडियन महमूद को जिस तरह से किशोर दा ने ओवरलैप किया है वह जग-ज़ाहिर है. पड़ोसन के लिये किशोरकुमार समय नहीं दे पा रहे थे लेकिन महमूद अड़े रहे और किशोर दा से कहते रहे कि जब तक आप तारीख़ नहीं देंगे मैं पड़ोसन शुरू नहीं करूंगा.जो चीज़ बनी उस फ़िल्म में वह इतिहास है. जब कभी मायूसी हो मन में या किसी तरह का तनाव हो तो हाफ़-टिकिट या पडोसन जैसी फ़िल्मे देख लेना चाहिये..सदाबहार फ़ेशनेस देती हैं ये फ़िल्में.
Udan Tashtari said…
हॉफ टिकिट बहुत पहले देखी थी. हंसते हंसते बुरा हाल हो गया था. गजब की मूवी थी.

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