हिन्दी टाकीज:स से सिनेमा-निधि सक्सेना



हिन्दी टाकीज-१४


इस बार निधि सक्सेना की यादें...निधि जयपुर की हैं। फिल्में देखने का उन्हें जुनून है... बनाने का भी। तमाम एनजीओ के लिए डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं। खासकर कुदरत (पानी, जंगल, परिंदों, मिट्टी) पर. दूरदर्शन के लिए भी काम कर चुकी हैं।पढ़ने की आदत जबर्दस्त है और घूमने की भी . स्कल्पचर बनाने के हुनर पर खुद यकीन है और पेंटिंग्स बनाने के कौशल पर बाकियों को. उनका एक सीधा-सादा सा ब्लॉग भी है http://ismodhse.blogspot.com निधि को गाने सुनना भी अच्छा लगता है. नए-पुराने हर तरह के. उन्होंने निराले अंदाज़ में अपने अनुभव रखे हैं।

स से सिनेमा
क़र्ज़ अदा करूं पहले
इस लेख के बहाने मैं बचपन का एक क़र्ज़ अदा कर दूँ। सबसे पहले मेरा धन्यवाद एन। चंद्रा को। अगर वो न होते तो जो भी एक-डेढ़ डिग्री मेरे पास है, अच्छे बुरे अंकों के साथ, वो कभी ना होती। तेजाब वो पहली फ़िल्म हैं, जो मैंने देखी। इससे पहले टीवी या और कुछ देखा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। तेजाब को मेरी देखी पहली फ़िल्म होने के लिए धन्यवाद नहीं, बल्कि उस गाने के कारण धन्यवाद। जिसमे गुलाबी माधुरी थिरकते हुए गाती है...एक दो तीन चार.... स्कूल मैंने जाना शुरू ही किया था। ढेरों कवितायें और इंशा जी के शेर भी याद थे, लेकिन कोई माई का लाल गिनतियाँ नहीं याद करवा पा रहा था। पापा की गोद में बैठकर जयपुर के अंकुर सिनेमा में जब ये गाना सुना, गिनतियाँ याद हो गयीं। सुबह उठने से पहले और रात को सोने से पहले यही गाना गाती थी और बीच के दिन भर भी। और काम ही क्या था। सब खुश थे-मुझे गिनतियाँ याद हो गयीं। उसके बाद बारी थी महीनों के नाम की। पहाड़ की तरह साल लगता था, जनवरी से दिसम्बर तक। बहुत लंबा। फिर आखिरकार वो गाना आ ही गया...रेखा थी शायद उस फ़िल्म की हिरोइन। गाना था...जनवरी फ़रवरी मार्च एप्रिल सासू सारा काम करें। घर में माँ को महीनो के नाम सुनाते हुए पूरा गाना बड़े आराम से गाती थी पर माऊ जब कहती, बिना गाना गाये सिर्फ़ जनवरी फ़रवरी सुनाओ तब बड़ी मुश्किल होती थी। फिर जनवरी फ़रवरी जोर से गाती और बाकी गाना मुंह ढक के।शुक्र है कि यह गाने बने और मैंने सुने। नहीं तो मैं दिन में पचीस बार ऐलान किया करती थी पढ़ाई छोड़ देने का।


राजमंदिर का शहर


ऐसा होना ही था क्योंकि मैं जिस शहर की हूँ, वो राजमंदिर वाला शहर है। यह जानने के बाद की मैं जयपुर की हूँ, लोग हवामहल का ज़िक्र नहीं करते, बल्कि उत्तेजित होकर पूछते हैं---वही, जहाँ राजमंदिर है? राजमंदिर में मैंने देखी थी...राम लखन। जितनी फिल्में जहाँ भी देखीं, उनमे सबसे ज्यादा याद रहा राजमंदिर का नीला-काला जादू। किसी राजा के महल जैसा राजमंदिर। जयपुर का राजा ही है राजमंदिर। लोग राजमंदिर देखने दूर-दूर से इस तरह से आया करते हैं जैसे किसी धर्मस्थल पर जाते हैं। राजमंदिर की तरह ही याद रह गए जादुई जादूगर अनिल कपूर। मैं कहने लगी थी की दुनिया में सिर्फ़ दो लोगों की मूंछें अच्छी हैं...एक तो पापा की और दूसरी अनिल कपूर की। घर की इलमारियों पर तीन फीट की ऊंचाई पर पोस्टकार्ड साइज़ फोटोग्रैफ और एक बड़ा पोस्टर अनिल कपूर का लगा रखा था। जिसके चेहरे से चेहरा सटाकर मैंने कई तस्वीरें खिंचवाईं।
यूं तो जयपुर सिनेमाहॉलों का ही शहर है। जयपुर में घुसते ही सबसे पहले जलमहल आता है, फिर आमेर और फिर अंबर सिनेमा. एक टाकीज है मानप्रकाश, किसी राजस्थानी राजा जैसा नाम है न...इसके परिसर में किताबघर और दारू की एक दुकान थी. ये दुकान उस शख्स की थी, जिन्होंने शैलेंद्र को आखिरी दारू देने से मना कर दिया था, क्योंकि उनकी परमिट खलास हो चुकी थी. उसी रात शैलेन्द्र नहीं रहे।जब दूकान मालिक को अखबार पढ़कर पता चला किया कि वो शख्स शैलेंद्र थे, तो वे दुकान बंद करके जयपुर चले आए. अब इस बात पर कन्फ्यूजन है कि दुकान दारू की थी या चाय की. जो लोग शैलेंद्र को नजदीक से जानते होंगे, वे समझ लें कि शैलेंद्र को ज्यादा प्रिय क्या रहा होगा, दारू या चाय। वैसे, ये पता लगाना अब और भी मुश्किल है क्योंकि मानप्रकाश बंद हो चुका है और अब वहां मॉल है...पता नहीं कुछ लोगों को अब भी वहां जिंदगी नजर आती हो

तिरछी आंखों से सिनेमाहॉल पर लगे पोस्टर की झलक
जयपुर का लंबाई-चौड़ाई में सबसे बड़ा हॉल था मानप्रकाश का बड़ा भाई प्रेमप्रकाश। जब खलनायक लगी थी, तो फिल्मोनिया के मरीजों की भीड़ इतनी बढ़ी कि मानप्रकाश को गिरा ही देती, इससे पहले उन पर पुलिसवालों के डंडे पड़ गए। एक डंडा हमने भी खाया था। प्रेमप्रकाश अब गोलचा में बदल चुका है और उसका बड़ा स्क्रीन तीन छोटे-छोटे स्क्रीन में बदल चुका है. एक और उल्लेखनीय सिनेमाहॉल है. नाम है पोलोविक्ट्री. इसकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बीच चौराहे पर है. आप तो जानते ही होंगे कि बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन कोई अच्छी जगह नहीं होतीं. पोलोविक्ट्री ऐसा सिनेमाहॉल है, जिसके सामने शरीफ लड़कियां नजरें झुकाकर गुजरती थीं. उसके करीब वाले बस स्टैंड के पास से बस नहीं पकड़ती थीं. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि तिरछी आंखों से सिनेमाहॉल पर लगे पोस्टर की झलक सब देखती होंगी (मैं तो देखती ही थी). मैं घर जाकर अखबार में ढूंढ़कर ये भी देखती थी कि उस फिल्म का नाम क्या है? वैसे, ये सुबह का शुरुआती काम था, जैसे कुछ लोग राशिफल देखते हैं, मैं उसकी जगह सिनेमाहॉल्स के छोटे-छोटे पब्लिसिटी एड देखा करती.


ऐसे ही परवान चढ़ती रही फिल्मों से मोहब्बत
साहित्य से रिश्तों पर बात फिर कभी पर एक वाकया इन दोनों से जुड़ा याद आता है। पापा-मम्मी को तोहफे में देने के लिए एक किताब लाई थी. नाम तो याद नहीं पर कवर पेज पर अनिल कपूर और श्रीदेवी की तस्वीर छपी थी। दोनों बाग में लेटे हुए थे (घर में जगह नहीं मिली होगी बेचारों को), सफेद पैंट और पीली टी-शर्ट पहने हुए. किताब के अंदर बड़े अच्छे गाने थे, वह भी था जो मेरी शुरुआती तालीम (एक-दो-तीन चार वाला गाना) के काम आया. लेकिन किताब लाने पर बड़ी डांट पड़ी. डांट खिलाने वालों को पता नहीं था कि आठ साल की उम्र में साइकिल पर पांच किलोमीटर दूर जाकर किताब लाई थी. सस्ती, सुंदर और टिकाऊ किताब थी, इसमें बुराई क्या थी, ये आज तक समझ में नहीं आया. फिल्मों से मोहब्बत ऐसे ही परवान चढ़ती रही. जयपुर में फिल्मों की शूटिंग होती ही रहती थी. फैंसी ड्रेस का भी जबरदस्त शौक था. दोनों का जिक्र बारी-बारी. पहले फैंसी ड्रेस की बात. जयपुर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हैं, जिनमें बड़े-बड़े बोर्ड लगे रहते हैं-यहां से फलां फिल्म के लिए कपड़े ले जाए गए थे. जिस दुकान ने मुगल-ए-आजम के लिए ड्रेस सप्लाई करने का दावा किया था, उससे तो हम कई बार ड्रेस किराए पर लेकर आए. घर पर पहने, खुद को मधुबाला समझा और घर पर यूं तैयार हुई मुगल-ए-आजम.


पहले प्रेमपत्र सा ऑटोग्राफ
बहुत-सारी शूटिंग्स देखी हैं। अक्षय कुमार और ममता कुलकर्णी बिरला मंदिर में शूटिंग करने आए। लाल बादशाह की शूटिंग करने अमिताभ बच्चन आए थे। लेकिन सबसे बेहतरीन पर्सनेलिटी संजय खान की देखी अब तक आमने-सामने। वो टीपू सुल्तान की शूटिंग के लिए सामोद किले में आए थे। टॉम अल्टर, गूफी पेंटल और कितने ही सितारे आए पर संजय जितने गजब लगे, उतना कोई नहीं. मैं सीधे संजय खान के पास पहुंच गई. अब आटोग्राफ किस पर लिया जाए, ये तो पता नहीं था, इसलिए एक रुपये का नोट उनकी ओर बढ़ा दिए. छह रुपये हर हफ्ते पॉकेटमनी के लिए मिलते थे। उसका ही एक रुपया बचा था पास में। यकीन मानिए, पहले प्रेमपत्र की तरह ही वो नोट संभालकर रखा है, खर्च नहीं किया अब तक

अकेली लड़की और सिनेमा

वैसे, फ़िल्म तक जाने वाला रास्ता टेढा-मेढा ऊँचा नीचा न हो तो मजा कहाँआएगा चलने में .....लेकिन इंसानों में भी स्त्री होने पर धचके कुछ ज्यादामिल सकते हैं । इति : ज्यादा मजा । तीसरी कक्षा में होने पर ही जब खानेके समय, सब घर वालो के सामने ऐलान किया, `मैं फिल्मों में हिरोइन बनजाऊं, सोचती हूँ। तब आधे लोगो का तो खाना गले और भोजन नली के बीच ही मेंरुक गया... फिर बताया गया (चूँकि समझा तो सकते नहीं थे ) की हिरोइन बननेके लिए तो बड़ा गोरा होना होता है, तो हमने कहा--ठीक, तो कुछ और काम करलेंगे, कुछ न कुछ तो होता होगा फ़िल्म में करने को । (इस बार उनके खानेके साथ क्या हुआ ओ ही जाने)फिर मैंने सहेलियों की टोली के साथ फ़िल्म देखना जाना शुरू किया, छठीमें ॥बल्कि छठी में ही । लेकिन सब ही लोग सब ही फिल्म देखने के लिए तयारही नहीं होते थे तो एक दिन मैंने सोचा ,"अकेले ही फ़िल्म देखी जाए।सहेलियां पानी पीने भी अकेले नही जाती थी । मै फ़िल्म देखने चली गई ।फ़िल्म थी--हसीना मान जायेगी। बहुत भीड़ थी ... और मुझे अहसास हुआ, मैंसच में अकेली हूँ । कम से कम मेरे शहर में ये क्रांति ही मानी गई और हरक्रांति में डंडे पड़ते होंगे मैंने कुछ (या ज्यादा ) फब्तिया खाईं । देशकी वो जगह भी घूम आई हूँ (अकेले), जो नक्शे में नही मिलती लेकिन अब तकफिर से अकेले फ़िल्म देखने जाने की हिम्मत नही जुटा पायी। ये दिल्ली हैऔर समय १५ साल आगे।लेकिन अब तक और अब के बाद भी नही जुटा पाऊंगी । वोफ़िल्म सब आंखों और फब्तियों के साथ बल्कि उन्हीं की वजह से मुझे भीअच्छी लग गई और अब भी अच्छी लग रही है।

एक और किस्सा...
एक और किस्सा याद आता है। आठ बजे कॉलेज में क्लास लगती थीं. मेरा कॉलेज जिस जगह पर है, वहां से दस मिनट की दूरी किसी भी दिशा में पैदल चल लेने पर एक सिनेमाहॉल आ जाता है...इनमें राजमंदिर, सम्राट, प्रेमप्रकाश, पोलोविक्ट्री, प्रेमप्रकाश, मानप्रकाश सब शामिल हैं। शुक्रवार को नई फिल्म लगती और नौ बजे पहला शो शुरू होता था। (ये रात वाला नौ से बारह नहीं है). सो सुबह आठ-साढ़े आठ बजे हम लोग कॉलेज पहुंचते और फिर फिल्म देखने निकल पड़ते। पूरी की पूरी क्लास गायब हो जाती और गुरुजी खाली दीवारों से बात किया करते। इस हर शुक्रवार को भागकर फिल्में देखने के जुनून में ऐसी-ऐसी फिल्में याद देख डालीं, जिनके नाम-कलाकार-कहानी कुछ भी याद नहीं हैं। हां, कुछ के तो नाम लेने लायक भी नहीं हैं। शुक्रवार को फिल्म देखने के अलावा एक और शगल था. रेडियो पर बाईस्कोप की बातें एक प्रोग्राम आता था. हां, अब भी आता है शाम को चार बजे. उसे सुनने का ऐसा चस्का था कि कई बार थिएटर की रिहर्सल्स छोड़ीं, क्लास ड्रॉप करने का तो मर्ज था ही. बहुत बार फिल्में बाद में देखीं और बाइस्कोप की बातें पहले सुनीं. फिर जो फिल्म देखी, तो वो फीकी-फीकी ही लगी। कितनी बातें लिखूं। मैं बहुत फिल्मी रही हूं. शायद हर फिलमची इतना ही फिल्मी होती है. ये बात सच है कि मैंने बहुत टीवी देखा, बहुत-से नाटक देखे पर फिल्म वाला परदा, अंधेरा हॉल और एक्शन-रोमांस-इमोशन का जादू मुझ पर बाकी सबसे ज्यादा रहा. बाकी सिनेमाई कथा, फिर कभी. पिक्चर सच में अभी बहुत सारी बाकी है मेरे दोस्त.






Comments

Unknown said…
बेहतरीन लेखन. हँसी की आज की डोज़ पूरी कर दी निधि ने.
इतना वक़्त गुज़र गया...दरियाओं में कितना ही पानी बदल गया होगा और आज, अब इतने दिन बाद मैं निधि के संस्मरण पर प्रतिक्रिया दे रहा हूं...कारण बताऊं...दो वज़हें हैं...दोनों दिलचस्प हैं...पहली--जब पढ़ा था, तो कुछ कहने के लिए शब्द कम पड़ रहे थे, इतना अच्छा लगा था और भरपूर आलसी होने की वज़ह से तब कुछ लिखा नहीं था....दूसरी वज़ह, जिसके चलते अब लिख रहा हूं...यादों का ये आईना पूरी तरह गुलाबी है और जयपुरिन होने का निधिवाला अंदाज़ यहां शब्दों में घुला हुआ है...अपना शहर, प्यारा शहर, बचपन-किशोर उम्र और फिर बड़े होने का अहसास, साथ-साथ चलती यादें......हां, तो वज़ह तो मैंने बताई ही नहीं...टिप्पणी भले ना लिखी हो...निधि का खूब-खूब चटख़ अंदाज़ उनकी कलाकृतियों के रंगों की तरह...लंबे समय तक बार-बार उकसाता रहा...अब तो कुछ कहो, कुछ लिखो...तारीफ़ करो या फिर ना अच्छा लगा हो तो वही बताओ (ना अच्छा लगा हो...ऐसा कहीं हो सकता है क्या...यक़ीनन अच्छा है...अच्छा है भाई)...और मेरे मन से उठने वाली उकसाहट के चलते आज टिप्पणी दे ही रहा हूं...कितने दिन बाद...पूरा साल बीतने जा रहा है...राइटअप हो तो ऐसा कि कितने ही दिन बीत जाएं, भुलाए न भूले...उफ...इतना कुछ लिख गया पर कुछ ठोस कह भी नहीं पाया...ख़ैर...सोचता हूं कुछ और...जब कुछ पक पाएगा, तब फिर लिखूंगा कोई टिप्पणी...चाहे साल भर बाद ही सही...ढेर सारी दुआ...ऐसे ही लिखती रहना।
prithvi said…
अच्‍छी और दिल से लिखी गई पोस्‍ट.. राजमंदिर पर सर्च करते करते मिल गई. लिखते रहिए.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम