फिल्‍म समीक्षा : कशमकश

पुराने अलबम सी कशमकशपुराने अलबम सी

-अजय ब्रह्मात्‍मज

0 यह गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचना नौका डूबी पर इसी नाम से बनी बांग्ला फिल्म का हिंदी डब संस्करण है। इसे संवेदनशील निर्देशक रितुपर्णो घोष ने निर्देशित किया है। बंगाली में फिल्म पूरी होने के बाद सुभाष घई को खयाल आया कि इसे हिंदी दर्शकों के लिए हिंदी में डब किया जाना चाहिए। उन्होंने फिल्म का शीर्षक बदल कर कशमकश रख दिया। वैसे नौका डूबी शीर्षक से भी हिंदी दर्शक इसे समझ सकते थे।

0 चूंकि हिंदी में फिल्म को डब करने का फैसला बाद में लिया गया है, इसलिए फिल्म का मूल भाव डबिंग में कहीें-कहीं छूट गया है। खास कर क्लोजअन दृश्यों में बोले गए शब्द के मेल में होंठ नहीं हिलते तो अजीब सा लगता है। कुछ दृश्यों में सिर्फ लिखे हुए बंगाली शब्द आते हैं। उन्हें हम संदर्भ के साथ नहीं समझ पाते। इन तकनीकी सीमाओं के बावजूद कशमकश देखने लायक फिल्म है। कोमल भावनाओं की बंगाली संवेदना से पूर्ण यह फिल्म रिश्तों की परतों को रचती है।

0 किसी पुराने अलबम का आनंद देती कशमकश की दुनिया ब्लैक एंड ह्वाइट है। इस अलबम के पन्ने पलटते हुए रिश्तों की गर्माहट के पुरसुकून एहसास का नास्टैलजिक प्रभाव पड़ता है। कशमकश में आज से 80 साल पहले का संसार है। तब भी संभ्रांत बंगाली अपनी सोच में बहुत प्रोग्रेसिव थे। हेमनलिनी और उसके पिता के बीच की समझदारी चकित करती है। बेटी के प्रेम और स्वतंत्र व्यक्तित्व के समर्थक पिता से आज की बेटियां ईष्र्या ही कर सकती हैं। टैगोर के नारी चरित्र हमेशा मजबूत और दृढ़ संकल्पों की होती हैं। बंगाली साहित्य में पुरूष ही ढुलमुल और कमजोर दिखते हैं। इस फिल्म में रमेश का द्वंद्व उसे अनिर्णय की स्थिति में रखता है।

0 रितुपर्णो घोष सीमित संसाधनों और प्रापर्टी से पीरियड रच लेते हैं। इस फिल्म में 1921 के बनारस और कोलकाता को दिखाने में उनकी संकल्पना और कला निर्देशक की होशियारी नजर आती है। पहनावे, साज-शृंगार और वास्तु से रितुपर्णो हमें 80 साल पहले के समय में ले जाते हैं। दृश्यों को फिल्माने में फ्रेम इतना नहीं खुलता कि उसमें आज का समय घुस आए।

0 हेमनलिनी, रमेश, नलीनक्ष और कमला के प्रेम संबंधों में लौट आने, लौटने और लौटने की प्रक्रिया में हम उस दौर की भावना,नैतिकता एवं समर्पण से परिचित होती हैं। कोई भी चरित्र किसी से छल नहीं कर रहा है। परिस्थिति और संयोग से वे एक-दूसरे से अलग होते हैं और फिर अनायास मिलते हैं। लगता है हिंदी फिल्मों ने खोने और पाने का फार्मूला ऐसी कहानियों से ही अपनाया है। कशमकश के संयोगों पर हंसी नहीं आती।

0 यह फिल्म अपने पीरियड के मुताबिक धीमी गति से चलती है। आज के फास्ट कट के आदी हो रहे दर्शकों यह फिल्म ढीली और ऊबाऊ लग सकती है,लेकिन यही इसकी खूबसूरती है। वास्तब में ऐसी फिल्में दर्शकों से अलग किस्म की सहृदयता की मांग करती हैं।

0 हिंदी फिल्मों में सुचित्रा सेन की नातिनियों रिया और राइमा सेन को अधिक मौके नहीं मिले। राईमा ने रितुपर्णो घोष के साथ पहले भीर दमदार अभिनय का परिचय दिया है। इस फिल्म में रिया सेन चौंकाती हैं। दोनों बहनों को उनकी योग्यता के मुतरबिक फिल्में नहीं मिल पा रही हैं। धृतिमन चटर्जी,प्रसेनजीत और जिशु सेनगुप्ता के टैलेंट से हिंदी के दर्शक प्रभावित होंगे।

0 इस फिल्म की खासियत गुलजार के गीत हैं। उन्होंने रवींद्र संगीत का अर्थपूर्ण भावानुवाद किया है। उनके गीत प्रसंगो को जोड़ने और कथा को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं।

0 एक दृश्य में अल्यूमिनियम जैसे धातु का तसला दिखा। क्या 1921 में अल्युमिनियम के बर्तन प्रचलन में आ गए थे?

*** 1/2 साढ़े तीन स्टार

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