दिग्ग्ज फिल्मकार है खामोश

दिग्ग्ज फिल्मकार है खामोश-अजय ब्रह्मात्‍मज

पिछली सदी के आखिरी दशक तक सक्रिय फिल्मकार अचानक निष्क्रिय और खामोश दिखाई पड़ रहे हैं। सच कहें तो उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि वे किस प्रकार की फिल्में बनाएं? उनका सिनेमा पुराना पड़ चुका है और नए सिनेमा को वे समझ नहीं पा रहे हैं। परिणाम यह हुआ किअसमंजस की वजह से उनके प्रोडक्शन हाउस में कोई हलचल नहीं है। सन् 2001 के बाद हिंदी सिनेमा बिल्कुल नए तरीके से विकसित हो रहा है। कहा जा सकता है कि सिनेमा बदल रहा है।

हर पांच-दस साल पर जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह सिनेमा में भी बदलाव आता है। इस बदलाव के साथ आगे बढ़े फिल्मकार ही सरवाइव कर पाते हैं, क्योंकि दर्शकों की रुचि बदलने से नए मिजाज की फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर बिजनेस कर पाती हैं। हाल-फिलहाल की कामयाब फिल्मों पर नजर डालें तो उनमें से कोई भी पुराने निर्देशकों की फिल्म नहीं है। यश चोपड़ा, सुभाष घई, जेपी दत्ता जैसे दर्जनों दिग्गज अब सिर्फ समारोहों की शोभा बढ़ाते मिलते हैं। इनमें से कुछ ने अपनी कंपनियों की बागडोर युवा वारिसों के हाथ में दे दी है या फिर गैरफिल्मी परिवारों से आए युवकों ने कमान संभाल ली है। अब वे तय कर रहे हैं कि 21वीं सदी के दूसरे दशक का सिनेमा कैसा हो?

दस साल पहले तक हाशिए पर पड़े फिल्मकार ज्यादा एक्टिव हैं। वे लाइमलाइट में हैं, क्योंकि उनकी फिल्में चल रही है। इसके अलावा पिछले दस सालों में हिंदी फिल्मों में युवा टैलेंट की भीड़ आ गई है। युवा फिल्मकारों की फिल्मों पर गौर करें तो वे नए विषयों को आजमाने से नहीं घबराते, जबकि लगभग सारे दिग्गज फिल्मकार आज भी अपनी कामयाबी और फार्मूले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर पाते। आज का दर्शक इंटरनेट और डिजीटल युग में हर देश की फिल्मों से तत्काल वाकिफ हो जाता है। हालांकि देश के अधिकांश दर्शक आज भी फार्मूला और मसाला फिल्में पसंद करते हैं, लेकिन सभी फिल्मों को उस स्केल पर बना पाना असंभव काम है। दर्शक साधारण किस्म की फार्मूला फिल्मों से उकता चुके हैं। वे उन्हें रिजेक्ट कर देते हैं। दूसरी तरफ नए ऐक्टरों को लेकर बनी फिल्में उन्हें विषय और प्रस्तुति की भिन्नता और नवीनता की वजह से पसंद आ जाती हैं। दर्शकों की रुचि में आए इस बदलाव को पारंपरिक निर्माता और कारपोरेट घराने भी समझ रहे हैं, इसलिए कम लागत की प्रयोगवादी फिल्मों में निवेश करने से उन्हें डर नहीं लगता। अगर फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं भी आई तो नुकसान का प्रतिशत कम रहता है। दिग्गज निर्देशकों की समस्या है कि वे छोटी फिल्में नहीं बना सकते। नए ऐक्टरों के साथ काम करने में भी उन्हें दिक्कत होती है। उन्हें लगता है कि बड़े स्टारों के साथ काम करने के बाद उन्हें छोटे और नए ऐक्टरों के तरजीह नहीं देनी चाहिए। इस स्थिति में वे न तो इधर के रह गए हैं और न उधर जा पा रहे हैं। दिग्गजों को समझना चाहिए कि आज का दर्शक पुराने तरीके के मनोरंजन से संतुष्ट नहीं होगा। अगर उसे मसाला फिल्में भी परोसनी हैं तो उसमें नई तकनीक या शैली का तड़का देना पड़ेगा। फिल्मों में उनके समय का मेलोड्रामा समाप्त हो चुका है और अब ऐक्टर भी नकली अंदाज में संवाद अदायगी नहीं करते। मसाला फिल्मों पर भी रियलिज्म का दबाव है। फैंटेसी और रियलिज्म के मेल से ही नए किस्म की मसाला फिल्में बनाई जा सकती हैं, जैसा कि अभिनव कश्यप ने दबंग में किया। इन दिनों खबरें तो सुनने में आती हैं कि पुराने दिग्गजों में सुगबुगाहट है। वे कुछ नया और धमाल करने की सोच रहे हैं, लेकिन ये खबरें अभी मू‌र्त्त रूप नहीं ले पा रही हैं। है तो आश्चर्य की बात, लेकिन यही सच्चाई है कि दिग्गज निर्देशक आजकल सहमे हुए हैं। वे जोखिम नहीं उठाना चाहते।

Comments

News4Nation said…
अजय जी काफी उम्दा लेख..
मेरे ख्याल से इन फिल्मकारों की ख़ामोशी इस बात का प्रमाण है की सच सिनेमा इनकी पकड़ से बहुत दूर जा चुका है और इनके विचार और इनकी सीमा खुद को इतना खींच भी नहीं सकती...लेकिन यह एक सच है की इन्होने अब तक सिनेमा को जो दिया वह ऐतेहासिक है,और जिस आधार पर आज का सिनेमा भाग रहा है बह सदाबहार नहीं है तो अगर सिनेमा अब इनके योगदान से बंचित रह भी जाता है तो अच्छा है क्योंकि हम दर्शकों की अश्लील और फूहड़ होती पसंद पर इनको घुटने टेंकता नहीं देखना चाहते..!!

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