फिल्‍म समीक्षा :404

दिमाग  में डर 404दिमाग में डर

-अजय ब्रह्मात्‍मज

0 लंबे समय तक राम गोपाल वर्मा के सहयोगी रहे प्रवाल रमण ने डरना मना है और डरना जरूरी है जैसी सामान्य फिल्में निर्देशित कीं। इस बार भी वे डर के आसपास ही हैं, लेकिन 404 देखते समय डरना दर्शकों की मजबूरी नहीं बनती। तात्पर्य यह कि सिर्फ साउंड इफेक्ट या किसी और तकनीकी तरीके से प्रवाल ने डर नहीं पैदा किया है। यह फिल्म दिमागी दुविधा की बात करती है और हम एक इंटेलिजेंट फिल्म देखते हैं।

0 हिंदी फिल्मों में मनोरंजन को नाच-गाना और प्रेम-रोमांस से ऐसा जोड़ दिया गया है कि जिन फिल्मों में ये पारंपरिक तत्व नहीं होते,वे हमें कम मनोरंजक लगती हैं। दर्शकों को ऐसी फिल्म देखते समय पैसा वसूल एक्सपीरिएंस नहीं होता। दर्शक पारंपरिक माइंड सेट से निकलकर नए विषयों के प्रति उत्सुक हों तो उन्हें 404 जैसी फिल्मों में भी मजा आएगा।

0 404 बायपोलर डिस आर्डर पर बनी फिल्म है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति डिप्रेशन,इल्यूजन और हैल्यूसिनेशन का शिकार होता है। वह अपनी सोच के भंवर में फंस जाता है और कई बार खुद को भी नुकसान पहुंचा देता है। मनुष्य की इस साइकोलोजिकल समस्या को भी फिल्म में रोचक तरीके से पिरोया जा सकता है। प्रवाल की थ्रिलर 404 में कुछ भी मनगढं़त नहीं है।

0 मेडिकल कालेज में एडमिशन लेकर आया अभिमन्यु रैगिंग और कैंपस की घटनाओं से बायपोलर डिसआर्डर से ग्रस्त होता है। उसी कालेज के प्रोफेसर अनिरूद्ध उसे केस स्टडी के रूप में लेते हैं। इन दोनों के अलावा फिल्म में सीनियर, क्लासमेट और टीचर के तौर कुछ और किरदार हैं। कहानी मुख्य रूप से अभिमन्यु, अनिरूद्ध और कृष के इर्द-गिर्द ही घूमती है। चूंकि ऐसे किरदार हिंदी फिल्मों में पहले नहीं दिखे हैं, इसलिए फिल्म देखते समय रोचक नवीनता बनी रहती है। दूसरी फिल्मों की तरह मुख्य किरदारों के व्यवहार का पहले से अनुमान नहीं होता।

0 404 हारर फिल्म नहीं है। इस फिल्म का डर आकस्मिक है, जो किरदारों के हैल्यूसिनेशन की वजह से क्रिएट होता है। प्रवाल ने दर्शकों का डर बढ़ाने के लिए बैकग्राउंड संगीत का इस्तेमाल नहीं किया है। यही वजह है कि डर स्वाभाविक तौर पर पनपता है। फिल्म के मुख्य किरदार रैशनल बुद्धि संगत हैं, इसलिए उनके डर में हमार ी रुचि बढ़ती है। एक स्तर पर उनसे सहानुभूति होती है कि उन्हें इस डर से मुक्ति मिले।

0 नए एक्टर राजवीर अरोड़ा ने अभिमन्यु के किरदार को सहज ढंग से चित्रित किया है। ईमाद शाह और निशिकांत कामथ भी सहज और नैचुरल हैं। निशिकांत कामथ प्रभावित करते हैं। खास चरित्रों के लिए वे उपयुक्त अभिनेता हैं। सहयोगी कलाकरों ने पूरा सहयोग दिया है। एक बात खटकती है कि क्या मेडिकल कालेज में इतने कम लोग दिखाई पड़ते हैं। बैकग्राउंड और पासिंग दृश्यों में हलचल होनी चाहिए थी। लगता है फिल्म के बजट ने निर्देशक की दृश्य संरचना को सीमित और बाधित किया है। उसकी वजह से रियलिस्टिक किस्म की यह फिल्म कुछ जगहों पर अनरियल और नकली लगने लगती है।

0 404 हिंदी फिल्मों चल रहे प्रयोगों का ताजा उदाहरण है। शिल्प और विषय के तौर पर आ रहे बदलाव के शुभ लक्षण इस फिल्म में हैं। ट्रैडिशनल मनोरंजन के इच्छुक दर्शक निराश हो सकते हैं।

रेटिंग- ***1/2 साढ़े तीन स्टार

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