दरअसल : थिएटर शिष्टाचार


-अजय ब्रह्मात्मज
    भारत में सिनेमा के 100 साल हो गए। तमाम सेमिनारों, बहस-मुबाहिसों और चर्चाओं में भारतीय सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया। थिएटर पर चर्चा नहीं हुई। फिल्मों के रसास्वादन में थिएटर की बड़ी भूमिका होती है। भारत में रसास्वादन की प्रक्रिया में थिएटर के योगदान और अवदान पर कभी गंभीर विमर्श नहीं हुआ। इधर मल्टीप्लेक्स आने के बाद इस पर तो चर्चा होती है कि इसके प्रभाव में सिनेमा बदल रहा है, लेकिन कभी किसी ने थिएटर शिष्टाचार पर कुछ नहीं लिखा। विदेशों में अवश्य शिष्टाचार का अभियान चला है। हाल ही में प्रख्यात पॉप सिंगर मडोना एक फिल्म शो में सिर्फ टेक्स्ट मैसेज भेज रही थीं। साथ के दर्शक की आपत्ति के बावजूद उन्होंने ऐसा किया तो उस थिएटर चेन के मालिक ने अपने सभी थिएटरों में उनके माफी मांगने तक प्रवेश निषिद्ध कर दिया। मडोना ने माफी मांगी या नहीं? या ऐसे फैसले से वह अप्रभावित रहीं? इसकी जानकारी तो नहीं मिली, लेकिन यह खबर स्वयं ही रोचक, महत्वपूर्ण और अनुकरणीय है।
    इधर सोशल मीडिया नेटवर्क पर अच्छी फिल्में देख कर लौटे कई दर्शकों ने पड़ोसी दर्शकों के बेजा व्यवहार का उल्लेख किया। उनकी भत्र्सना की। ऐसे स्टेटस पर टिप्पणियों और लाइक की भरमार हो गई। इस से पता चलता है कि थिएटर में अशिष्ट व्यवहार से अनेक दर्शक दुखी हैं। हालांकि इन दिनों सभी मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन में फिल्म शुरू होने के पहले यह हिदायत जरूर दी जाती है कि आप अपना फोन बंद कर दें या सायलेंट मोड में रखें। इस हिदायत के बावजूद शायद ही कोई ऐसा शो जाता हो, जिसमें मोबाइल की घंटियां नहीं बजती हों। इतना ही नहीं पड़ोसी दर्शकों से बेपरवाह कई दर्शक बेहिचक जोर-जोर से बातें करने लगते हैं। निश्चित ही ऐसे व्यवधान से सिनेमा का आनंद कम होता है।
     खुद के आनंद के लिए और दूसरों के आनंद में व्यवधान न डालने के लिए थिएटर शिष्टाचार अत्यंत जरूरी है। शिष्टाचार के कुछ सामान्य बिंदु तो हो ही सकते हैं।
1 - शो टाइम की सही जानकारी रखें। फिल्म शुरू होने के 5-10 मिनट पहले या थिएटर में अंधेरा होने के पहले अपनी सीट ले लें। अंदर की सीट पर पहले जाकर बैठ जाना उचित है। किसी कारण से बाद में अंदर की सीट पर जाना-आना पड़े तो स्क्रीन की तरफ मुंह कर आगे की सीटों से सटते हुए घुसें या निकलें। कुछ मल्टीप्लेक्स में लेग स्पेस बहुत कम होता है। ध्यान रखें कि किसी के हाथ, पांव या बदन को टच न करें।
ृ2 - सीट पर दोनों तरफ बांहें होती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि दोनों आप के लिए ही हैं। पड़ोसी दर्शक का खयाल रखें। उन्हें भी अपनी कोहनी टिकाने दें। सामने पांव जरूर फैलाएं, लेकिन उसे दाईं या बाईं सीट के सामने न ले जाएं। पैर पर पैर चढ़ा कर बैठेंगे तो दूसरों को दिक्कत होगी। पांव फैलाते समय ध्यान रखें कि आगे की सीट से न टकराए।
3 - अपना सामान अपनी गोद में रखें। इन दिनों प्लास्टिक बैग का प्रचलन है। थिएटर की खामोशी में ये बैग हल्की सी हरकत करने पर भी कर्कश आवाज करने लगते हैं। इस आवाज से खलल पड़ती है।
4 - खाने-पीने का सामान जरूर ले जाएं, लेकिन उसे चभर-चभर कर खाना या सुड़ुक-सुड़ुक कर पीना जरूरी नहीं है। बेहतर होगा कि मुंह बंद कर चबाएं। यह भी ध्यान रखें कि पॉपकार्न, शीतल पेय या पानी फर्श पर न गिरे। हालांकि सफाई कर्मचारी दो शो के बीच थिएटर की सफाई करते हैं, लेकिन खुद सावधान रहने में क्या दिक्कत है।
5 - छोटी उम्र के बच्चों को घर पर ही रहने दें। उनके रोने, चिल्लाने या खेलने से भी दूसरों के रसास्वादन में विघ्न पड़ता है। इस बात का खयाल अवश्य रखें कि एडल्ट फिल्म में अवयस्क बच्चे कतई न जाएं।
6 - आप ‘एक्सक्यूज मी ... श्श्श्श’ कह कर भी काम निकाल सकते हैं या किसी को कुछ करने से मना कर सकते हैं। किसी भी प्रकार के विवाद की स्थिति में थिएटर के अंदर मौजूद कर्मचारी या मैनेजर की मदद लें।
7 - अगर फिल्म देखना आप की डेटिंग का हिस्सा है तो पड़ोसी दर्शक का ध्यान रखें। आप के फुसफुसाने, सिर जोडऩे या प्रेमपूर्ण हरकतों से ध्यान बंटता है। नाहक क्यों आप दोनों किसी के आकर्षण की वस्तु बने?
8 - फिल्म शुरू होने के पहले, इंटरवल में या खत्म होने के बाद ही शौचालय का इस्तेमाल करें। शो के बीच में केवल आपात् स्थिति में ही उठें।
9 - आप समूह में गए हैं तो लतीफेबाजी या ग्रुप डिस्कशन के लिए इंटरवल या शो खत्म होने का इंतजार करें। आपस में बातें करना, डॉयलॉग रिपीट या पे्रडिक्ट करना दूसरों का मजा किरकिरा कर सकता है।
10 - सबसे महत्वपूर्ण है कि अपना मोबाइल बंद या सायलेंट पर रखें। बहुत जरूरी कॉल हो तो बाहर निकल जाएं। इन दिनों स्मार्ट फोन की चमक च्यादा होती है। सिर्फ चेक सा टेक्स्ट करने से भी दूसरों का ध्यान जाता है। थिएटर के अंधेरे में कुछ मोबाइल जुगनुओं की तरह टिमटिमाते हैं। फोन को जेब में अच्छी तरह ढक कर रखें।


Comments

आनंद said…
बहुत जरूरी बातों पर ध्‍यान आकर्षित किया है। हमें फिल्‍म देखने की तमीज विकसित करनी पड़ेगी। हम में से सभी को आए दिन ऐसी समस्‍याओं का सामना करना पड़ता है। कई बार लोग बीच फिल्‍म में अपने फोन पर जोर-जोर से बातें करने लग जाते हैं और टोकने पर आँखें दिखाते हैं। एक ऐसा ही वाकया याद आता है। मेरे आगे की सीट पर दो-तीन लड़के फिल्‍म के दौरान जोर-जोर से हंसी मजाक कर रहे थे, जिससे फिल्‍म में खलल पड़ रहा था। मैंने उनसे धीमे आवाज में बात करने का अनुरोध किया तो बदतमीजी पर उतर आए। ऐसे में फिल्‍म के साथ-साथ अपना मूड भी खराब होता है।

फिल्‍म देखना महज एंटरटेनमेंट नहीं होता, एक तन्‍मयता से साधना में डूबने जैसी क्रिया होती है। इसमें अरसे का इंतजार शामिल होता है, टी.वी. और अखबारों में बकवास करने वाले कहानी पोंकुओं से बचना होता है (बुरा न मानें 90% प्रोमो, रिव्‍यू, टीवी रियलटी शो, धारावाहिकों में एपीयरेंस कहानी पोंकू होते हैं, इनसे बच कर फिल्‍म देखना और पूर्ण रसास्‍वादन तक पहुँचना विवाह तक अपने ब्रह्मचर्य को अखंड बनाए रखने जितना कठिन होता है। फिल्‍म को इस अखंडित स्वरूप में देखना जीवन में केवल एक बार मुमकिन है। यदि थोड़ी भी असावधानी हुई और इस अनुभव में बाधा पड़ी, तो इसका अर्थ है उस फिल्‍म के लिए आपका अनुभव हमेशा के लिए आपकी जिंदगी से डिलीट हो गया। दूसरी फिल्‍म तो आ जाएगी, पर वह जो खो गया है, दोबारा जीवन में नहीं आने वाला)।

ऐसे में पड़ोसी की बदतमीजी की भरपाई की कारगर प्रणाली होनी चाहिए जिसके अंतर्गत समय और पैसे के नुकसान के एवज में मुआवजा और साथ ही आपके रसास्‍वादन में विघ्‍न और जीवन में इस फिल्‍म के नभूतोनभविष्‍यति वाले अनुभव को डिलीट करने के जुर्म में पर्याप्‍त सजा का भी प्रावधान होना चाहिए।

- आनंद

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