दरअसल : पिता सुखदेव की खोज में बेटी शबनम


-अजय ब्रह्मात्मज

हिंदी में डॉक्युमेंट्री फिल्में कम बनती हैं। जो कुछ बनती हैं,उनमें सामाजिक मुद्दों, सांस्कृतिक समस्याओं और एनजीओ टाइप बहसों पर केंद्रित विषय होते हैं। बायोपिक फिल्मों की तरह डॉक्युमेंट्री भी व्यक्तियों के जीवन पर हो सकती हैं। पिछले 50-60 सालों में कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर ने मशहूर व्यक्तियों पर आधारित डॉक्युमेंट्री बनाने की कोशिश की। ये कोशिशें ज्यादातर सरल किस्म की जीवनियां बनकर रह गई हैं। उनमें व्यक्तियों के अंतर्विरोध और द्वंद्व पर कम ध्यान दिया गया है। वैसे भी भारतीय समाज में यह मजबूत धारणा है कि मरने के बाद किसी व्यक्ति की आलोचना नहीं करनी चाहिए। उसकी कमियों को उजागर तो नहीं ही करना चाहिए।
    इस पृष्ठभूमि में शबनम सुखदेव की डॉक्युमेंट्री द लास्ट अदियू(आखिरी सलाम) उल्लेखनीय प्रयास है। इस डॉक्युमेंट्री में बेटी शबनम अपने पिता सुखदेव की तलाश करती है। सुखदेव की मृत्यु के समय उनकी बेटी सिर्फ 14 साल की थीं। दोनों के बीच दुराव रहा। पिता ने अपनी क्रिएटिव व्यस्तताओं के बीच बेटी पर ध्यान नहीं दिया। मां भी नहीं चाहती थीं कि बेटी पिता के करीब जाए। सुखदेव का अपनी पत्नी के साथ भी तनावपूर्ण रिश्ता था। इसका असर बाप बेटी के रिश्तों पर पड़ा। पिता की मृत्यु की खबर सुनने पर बेटी शबनम ने 14 साल की उम्र में भी उनके अंतिम दर्शन नहीं करने का फैसला किया और  फिल्म देखने चली गई। इस डॉक्युमेंट्री में शबनम खुद को भी नहीं बख्शती। वह पिता के साथ अपने इस अस्वाभाविक संबंध की पड़ताल करती हैं। डॉक्युमेंट्री में स्पष्ट तौर पर यह कहा गया है कि मां ने उन्हें पिता से दूर रखा था। यहां तक कि सुखदेव की मृत्यु के बाद भी मां-बेटी के बीच उनके बारे में कोई चर्चा नहीं होती थी। इस डॉक्युमेंट्री के दौरान पहली बार मां और बेटी सुखदेव की तस्वीरों और चिट्ठियों को पलटते, देखते और रोते हैं। उनके व्यक्त्वि को समझने की कोशिश करते हैं। शबनम ने पिता के दोस्तों से भी बातें की हैं।
    सुखदेव सातवें दशक के मशहूर डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर थे। उनकी शैली में ताजगी के साथ रियलिज्म भी था। उन्होंने बीस सालों में लगभग 60 डॉक्युमेंट्री बनाई। उनमें से कुछ चर्चित होने के साथ थिएटर में भी रिलीज हुई। उनकी प्रसिद्धि और काबिलियत का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि वे इंदिरा गांधी के प्रिय बन गए थे। हालांकि इस निकटता के कारण वे इमरजेंसी के समर्थक होने के साथ अपने दोस्तों की आलोचना के शिकार हुए। सभी को लगा कि एक प्रगतिशील और वामपंथी फिल्ममेकर ने राह बदल ली। दरअसल यह सुखदेव की अपनी खोज और दुविधा का प्रभाव था, जिसकी वजह से उनमें यह आंशिक भटकाव नजर आता है।
    सुखदेव की डॉक्युमेंट्री इंडिया 67 में पहली बार सभी को चौंकाया था। इस डॉक्युमेंट्री में सुखदेव ने आजादी के बीस सालों के बाद के भारत के मोहभंग को पहली बार डॉक्युमेंट किया था। इसके लिए उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की थी और समाज के विभिन्न तबके के लोगों से मिले थे। उसके बाद उन्होंने खिलौनेवाला, वॉयलेंस, नाइन मंथ्स टू फ्रीडम, मां की पुकार, वॉयस ऑफ द पीपल, आफ्टर दी साइलेंस जैसी डॉक्युमेंट्री बनाई। नाइन मंथ्स टू फ्रीडम बांग्लादेश के निर्माण और संघर्ष की  लाइव दास्तान है। इस डॉक्युमेंट्री के लिए उन्होंने बांग्लादेश से सम्मान मिला था। भारत सरकार ने भी उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया था। उनकी मृत्यु पर किसी दोस्त ने कहा था,  सुख जो दुख के साथ था, वह भी नहीं रहा।
    सुखदेव अपनी विशेष शैली के साथ मुख्य धारा की फिल्मों में भी आए थे। उन्होंने शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के साथ माय लव फिल्म बनाई थी। उनकी एक और फिल्म की चर्चा लगभग नहीं होती। वह फिल्म थी रेशमा और शेरा। सभी यही जानते हैं कि इस फिल्म के निर्देशक सुनील दत्त थे। सुनील दत्त ने इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी पहले सुखदेव को दी थी। सुखदेव ने फिल्म पूरी भी कर ली थी, लेकिन उनकी यर्थाथवादी शैली सुनील दत्त को पसंद नहीं आई थी। उन्होंने फिल्म पूरी होने के बाद सुखदेव को हटा दिया था और फिर अपनी तरह से फिल्म को अंतिम रूप दिया था। अपने प्रति हुए इस व्यवहार से सुखदेव सदमे में आ गए थे। उनके साथ मद्यपान करने वाले दोस्तों की तादाद बढ़ती गई और वे मानसिक और शारीरिक दोनों तौर पर दुबले होते गए। उन्होंने मेनस्ट्रीम फिल्म में दोबारा आने की कोशिश नहीं की।
    शबनम सुखदेव इस डॉक्युमेंट्री के निर्माण के साथ अपने पिता को खोज लेती हैं। रिश्तों की सूखी नदी में भावों का जल प्रवाहित होता है। यह फिल्म पिछली सदी के एक महत्वपूर्ण डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर के जीवन में झांकने के साथ उनकी शैलियों और कृतियों की भी चर्चा होती है।

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