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मोल बढ़ा बोल का

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बोल.. यानी शब्द। फिल्मों में शब्द गीतों और संवादों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचते हैं। इस साल कई फिल्मों के बोलों में दम दिखा। गीतों और संवादों में आए दमदार बोलों ने एक बार फिर से लेखकों और गीतकारों की महत्ता को जाहिर किया। हालांकि भारतीय फिल्मों के पुरोधा दादा साहब फालके मानते थे कि चित्रपट यानी फिल्म में चित्रों यानी दृश्यों पर निर्देशकों को निर्भर करना चाहिए। उन्हें संवादों और शब्दों का न्यूनतम उपयोग करना चाहिए। उनकी राय में शब्दों के उपयोग के लिए नाटक उपयुक्त माध्यम था। बहरहाल, आलम आरा के बाद फिल्मों में शब्दों का महत्व बढ़ा। मूक फिल्मों में बहुत कुछ संपे्रषित होने से रह जाता था। दर्शकों को चलती-फिरती तस्वीरों में खुद शब्द भरने होते थे। बोलती फिल्मों ने दर्शकों की मेहनत कम की और फिल्मों को अधिक मजेदार अनुभव के रूप में बदला। उपयुक्त संवादों और पा‌र्श्व संगीत के साथ दिखने पर दृश्य अधिक प्रभावशाली और यादगार बने। हिंदी फिल्मों की लगभग सौ साल की यात्रा में इसके स्वर्ण युग के दौर में गीतों और संवादों पर विशेष ध्यान दिया गया। छठे और सातवें दशक में शब्दों के जादूगर फिल्म

सितारों का भी होता है संडे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज खुश हों कि आज नए साल की शुरुआत रविवार से हो रही है। संडे यानी सुकून का डे। देर से उठना, आराम से नाश्ता-पानी करना.. परिवार के जरूरी काम निबटाना, दोस्तों-रिश्तेदारों के घर जाना या उन्हें बुलाना, बीवी/शौहर और बच्चों के साथ फिल्म का प्रोग्राम बनाना। पर क्या आपकी इस छुट्टी को खुशगवार बनाने वाले फिल्म स्टारों की जिंदगी में भी संडे होता है या फिर वे दिन-रात काम में ही मशगूल रहते हैं और उन्हें संडे की भी सुध नहीं रहती? सलमान खान के लिए तो हर दिन संडे होता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उनकी तरह निश्चिंत और बेफिक्र कोई स्टार नहीं है। अगर रात भर शूटिंग कर रहे हों तो अलग बात है, अन्यथा सलमान खान आराम से दिन के लिए तैयार होते हैं। कई दफा तो मूड सही नहीं रहा तो शूटिंग रद्द करने में उन्हें देरी नहीं होती। सलमान खान आराम और फुर्सत के लिए संडे का इंतजार नहीं करते। इनके विपरीत आप अक्षय कुमार से रविवार को काम नहीं ले सकते। बेटे आरव के जन्म के बाद उन्होंने नियम बनाया कि वे पूरा रविवार बेटे आरव और बीवी ट्विंकल के साथ बिताएंगे। उनकी मां भी साथ रहती हैं तो थोड़ा समय मां के लिए भी रिजर्व रहत

शहर-शहर डोलते स्टार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले सप्ताह शाहरुख खान पटना नहीं जा सके। उनके न जा पाने की सही वजह के संबंध में कंफ्यूजन है। शाहरुख ने ट्विट किया था कि जिला अधिकारियों ने सुरक्षा कारणों से उन्हें आने से रोका, लेकिन पटना प्रशासन कह रहा है कि हम तो सुरक्षा में चाक-चौबंद थे। अगर हम अमिताभ बच्चन को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं तो शाहरुख को भी पटना से सुरक्षित भेज सकते हैं। आखिकार शाहरूख खान पटना गए।बहरहाल, शाहरुख ने उम्मीद जताई है कि वे जल्दी ही पटना जाएंगे। पटना के प्रति अचानक शाहरुख की हमदर्दी समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। पटना और दूसरे कथित छोटे शहर अब फिल्मों के प्रचार रोडमैप में आ गए हैं। इसकी शुरुआत बहुत पहले महेश भट्ट ने की थी। महेश भट्ट अपनी फिल्मों की टीम के साथ छोटे-छोटे शहरों में घूमते रहे हैं। उन्होंने तमन्ना की टीम के साथ पटना की यात्रा की थी। उसके बाद दैनिक जागरण की पहल पर मनोज बाजपेयी प्रचार के लिए अपनी फिल्म शूल लेकर कानपुर गए थे। छोटे शहरों को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जोड़ने की कल्पना और योजना में इन पंक्तियों के लेखक की भी भूमिका रही है। शुरुआती सालों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री

फ‍िल्‍म समीक्षा : डॉन2

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-अजय ब्रह्मात्‍मज एशिया में अंडरव‌र्ल्ड साम्राज्य कायम करने के बाद डॉन की नजर अब यूरोप पर है। इसकी भनक योरोप के ड्रग सौदागरों को मिल चुकी है। वे डॉन को खत्म करने की साजिश रचते हैं। हमारा हिंदी फिल्मों का डॉन भी शातिर दिमाग है। अपनी सुरक्षा के लिए वह जेल चला जाता है। वहां से अपने पुराने दुश्मन वरधान को साथ लेता है। मारने आए व्यक्ति जब्बार को अपनी टीम में शामिल करता है और जर्मनी के एक बैंक से यूरो छापने की प्लेट की चोरी की योजना बनाता है। हंसिए नहीं,एशिया का किंग बन चुका डॉन इस चोरी को अंजाम देने के लिए खुद ही जाता है। मालूम नहीं उसके गुर्गे छुट्टी पर हैं या? हमारा डॉन अकेला ही घूमता है। जरूरत पड़ने पर उसके पास हथियार,गाड़ी और लश्कर चले जाते हैं। जैसे हिंदी फिल्मों का हीरो जब गाता है तो दर्जनों व्यक्ति उसके आगे-पीछे नाचने लगते हैं। अनगिनत फिल्मों में देखे जा चुके दृश्यों से अटी पड़ी यह फिल्म शाहरुख के अभिनय और अंदाज के दोहराव से भरी हुई है। उनका मुस्कराना,खी-खी कर हंसना,लचकते हुए चलना,भींचे चेहरे और टेढ़ी नजर से तकना उनके प्रशंसकों को भा सकता है,लेकिन कब तक? अफसोस है कि दिल चाहता है से क

दर्शक भी देखने लगे हैं बिजनेस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज ह र हफ्ते फिल्मों की रिलीज के बाद उनके कलेक्शन और मुनाफे के आंकड़े आरंभ हो जाते हैं। कुछ सालों पहले तक हिट और सुपरहिट लिखने भर से काम चल जाता था। अब उतने से ही संतुष्टि नहीं होती। ट्रेड पंडित और विश्लेषक पहले शो से ही कलेक्शन बताने लगते हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटरों के आने के बाद आंकड़े जुटाना, दर्शकों का प्रतिशत बनाता और कुल मुनाफा बताना आसान हो गया है। इन दिनों एक सामान्य दर्शक भी नजर रखना चाहे तो इंटरनेट के जरिए मालूम कर सकता है कि कोई फिल्म कैसा बिजनेस कर रही है। फिल्मों के प्रति धारणाएं भी इसी बिजनेस के आधार पर बनने लगी हैं। सामान्य दर्शक के मुंह से भी सुन सकते हैं कि फलां फिल्म ने इतने-इतने करोड़ का व्यापार किया। क्या सचमुच फिल्म के कलेक्शन से फिल्म के रसास्वादन में फर्क पड़ता है? क्या कलेक्शन के ट्रेंड से आम दर्शक प्रभावित होते हैं? फिल्में देखना और उन पर लिखना मेरा काम है। शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्मों की समीक्षा अब शनिवार को अखबारों में आने लगी हैं। इंटरनेट केइस दौर में वो रिव्यू मेल करने के आधे घंटे के अंदर वह ऑनलाइन हो जाती है। इस दबाव में अनेक बार फिल्म के बा

टपोरी का किरदार होता है मजेदार-नील नितिन मुकेश

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अमित कर्ण अपनी अगली फिल्म 'प्लेयर्स' में मैं निभा रहा हूं एक हैकर की भूमिका। दरअसल टपोरी टाइप के किरदार मुझे पसद हैं क्योंकि इनमें काफी शेड्स होते हैं जॉनी गद्दार फिल्म से कॅरियर का शानदार आगाज करने वाले नील नितिन मुकेश इन दिनों अपनी आगामी फिल्म 'प्लेयर्स' के प्रमोशन में व्यस्त हैं। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश : 'प्लेयर्स' में आपका क्या किरदार है? इसमें मेरा स्पाइडर का किरदार है, जो एक हैकर है। वह इंटरनेट का जाल बुनता और काटता है। यह 'इटैलियन जॉब' की आधिकारिक रूप से रीमेक मूवी है। दर्शकों के मनोरंजन के लिए इसमें हर किस्म के मसाले हैं। कॅरियर के आरंभ से ही मेरी तमन्ना थी कि कभी अब्बास-मस्तान के साथ काम करूं। यह सपना अब पूरा हो चुका है। अब मैं गर्व और दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं उन दोनों के परिवार का हिस्सा हूं। कंप्यूटर हैकर्स अपराधी होते हैं। ऐसे में इस फिल्म में आपको कानून से सजा मिलती है..? हैकर्स तो वाकई अपराधी होते हैं। इस फिल्म में हैकर को सजा मिलती है या नहीं? इसके लिए दर्शकों को पहले यह मूवी देखनी होगी। 'जॉनी गद्दार' से लेकर अब तक कई फिल्

जार्डन को जीने की खुशी से मस्‍त रण्‍बीर कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अमूमन फिल्म रिलीज होने के बाद न तो डायरेक्टर किसी से मिलते हैं और न ही ऐक्टर.., लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। रॉकस्टार की रिलीज के बाद जेजे यानी जॉर्डन यानी रणबीर कपूर लोगों से मिले। फिल्म की कामयाबी और चर्चा से वे खुश थे। उन्होंने फिल्म की मेकिंग, किरदार, एक्टिंग और इससे संबंधित अनेक मुद्दों पर बातें कीं। बर्फी की शूटिंग के लिए ऊटी निकलने से पहले बांद्रा स्थित अपने बंगले कृष्णराज में हुई मुलाकात में वे अच्छे नंबरों से पास हुए बच्चे की तरह खुश थे। प्रस्तुत हैं उनके ही शब्दों में उनकी बातें.. फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले के छह महीने हमने और इम्तियाज ने साथ बिताए थे। उस किरदार को समझना बहुत जरूरी था। बॉडी लैंग्वेज और फिजिकल अंदाज तो आ जाएगा। खास कपड़े पहनना, बालों को लंबा करना, दाढ़ी बढ़ाना.. ये सब बड़ी बातें नहीं हैं। किसी किरदार को समझने की एक आंतरिक प्रक्रिया होती है। जॉर्डन की म्यूजिकल क्वालिटी को समझना था। बात करना और चलना भी आ गया था, लेकिन वह अंदर से कैसे सोचता है? एक दो दिनों की शूटिंग के बाद समझ में आ गया। समझ में आने के बाद हम किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं

सबकी आन सबकी शान ये है अपना सलमान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फि ल्मों में अपनी जगह बनाने की गरज से कुछ-कुछ कर रहे सलीम खान ने सुशीला से शादी कर उन्हें सलमा नाम दिया था। पहली संतान के आने की आहट थी। मुंबई में देखभाल का पर्याप्त इंतजाम नहीं था तो उन्हें पुश्तैनी घर इंदौर छोड आए। इंदौर में ही अब्दुल रशीद सलमान खान का जन्म हुआ। बडे होकर वे सलमान खान के नाम से मशहूर हुए। छोटे शहर का हीरो 27 दिसंबर 1965 को जन्मे सलमान खान अपनी जिंदगी में इंदौर का बडा महत्व मानते हैं। इंदौर में अपनी पैदाइश और बचपन की वजह से सलमान हमेशा कहते हैं कि मैं तो छोटे शहर का लडका हूं। अपने देश को पहचानता हूं। मेरी रगों में छोटा शहर है। शायद इसी वजह से देश के आम दर्शक मुझे अपने करीब पाते हैं। मेरी अदाओं और हरकतों में उन्हें अपनी झलक दिखती है। मेरी शैतानियां उन्हें भाती हैं, क्योंकि मैं उनसे अलग नहीं हूं। सलमान के बचपन की सनक और शरारतों के जानकार बताते हैं कि सलीम खान को उनसे कोई उम्मीद नहीं थी। तीनों भाइयों में अरबाज खान ज्यादा तेज दिमाग के थे। वे शांत और समझदार भी थे। सलमान सनकी होने के साथ जिद्दी भी थे। किसी बात पर अड गए तो मां के सिवा किसी और की बात नहीं मान

सच है कि इस इंडस्ट्री में पुरुषों की प्रधानता है-प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियंका चोपड़ा की शाहरुख खान अभिनीत फिल्म डॉन-2 आ रही है। इसमें उनकी क्या भूमिका है और वे नया क्या कर रही हैं, बता रही हैं इस बातचीत में.. डॉन-2 की कहानी कितनी बदली और आगे बढ़ी है? यह सीक्वल है। पिछली फिल्म खत्म होते समय सभी को पता चल गया था कि विजय ही डॉन है। यह फिल्म वहीं से शुरू होती है। चार साल बाद वही कहानी आगे बढ़ती है। रोमा महसूस करती है कि उसके साथ धोखा हुआ। उसे विजय से प्यार हो गया था, लेकिन विजय तो डॉन निकला। फिर तो रोमा भी नाराज और अग्रेसिव होगी? बिल्कुल.., बीच के चार सालों में ट्रेनिंग लेकर रोमा पुलिस ऑफिसर बन चुकी है। उसका एक ही मकसद है कि किसी तरह वह डॉन को पकड़े और उसे सीखचों के पीछे लाए। उनका आमना-सामना होता है तो उनके बीच नफरत और मोहब्बत का रिश्ता बनता है। चूंकि विजय ने उसे धोखा दिया है, इसलिए रोमा उससे बहुत नाराज है। पूरी फिल्म में लोग मुझे गुस्से में ही देखेंगे। उस गुस्से में एक मोहब्बत भी है, क्योंकि रोमा को प्यार तो उसी व्यक्ति से हुआ था। सुना है कि आपने ऐक्शन किया है डॉन-2 में..। क्या हम उम्मीद करें कि द्रोण की तरह आप फिर से ऐक्शन करती दिखेंगी?

फिल्‍म समीक्षा : पप्‍पू कांट डांस साला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो पृष्ठभूमियों से आए विद्याधर और महक संयोग से टकराते हैं। दोनों अपने सपनों के साथ मुंबई आए है। उनके बीच पहले विकर्षण और फिर आकर्षण होता है। सोच और व्यवहार की भिन्नता के कारण उनके बीच झड़प होती रहती है। यह झड़प ही उनके अलगाव का कारण बनता है और फिर उन्हें अपनी तड़प का एहसास होता है। पता चलता है कि वे एक-दूसरे की जिंदगी में दाखिल हो चुके हैं और साथ रहने की संतुष्टि चाहते हैं। ऐसी प्रेमकहानियां हिंदी फिल्मों के लिए नई नहीं हैं। फिर भी सौरभ शुक्ला की फिल्म पप्पू कांट डांस साला चरित्रों के चित्रण, निर्वाह और परिप्रेक्ष्य में नवीनता लेकर आई है। सौरभ शुक्ला टीवी के समय से ऐसी बेमेल जोडि़यों की कहानियां कह रहे हैं। उनकी कहानियों का यह स्थायी भाव है। नायक थोड़ा दब्बू, पिछड़ा, भिन्न, कुंठित, जटिल होता है। वह नायिका के समकक्ष होने की कोशिश में अपनी विसंगतियों से हंसाता है। इस कोशिश में उसकी वेदना और संवेदना जाहिर होती है। पप्पू कांट डांस साला की मराठी मुलगी महक और बनारसी छोरा विद्याधर में अनेक विषमताएं हैं, लेकिन मुंबई में पहचान बनाने की कोशिश में दोनों समांतर पटरियों पर च