रैंप पर क्यों चलते हैं सितारे ?

माफ करें, चवन्नी नहीं समझ पाता कि किसी फिल्म की रिलीज के पहले उस फिल्म के सितारों के रैंप पर चलने से क्या फायदा होता है? क्या फिल्म के दर्शक बढ़ जाते है अगर ऐसा होता तो 'सलाम-ए-इश्क' का सल।म दर्शकों ने कुबूल किया होता. अभी हाल में शाहरुख खान रैंप पर दिखे. वे अकेले नहीं थे. उनकी पूरी यूनिट अ।ई थी और फिर से माफ करें ... अपने हाव, भाव और फोटो के लिए दिए गए अंदाज से साफ लगा कि वे अ।ठवें दशक के कलाकारों के मैनरिज्म का मजाक उड़ा रहे हैं.
फराह खान और शाहरुख खान को लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का अ।ठवां दशक ही बॉलीवुड है. उनकी यह समझ विदेश की यात्राओं और विदेशियों की सोच से बनी है. अगर हिंदी फिल्मों के अ।म दर्शक से बॉलीवुड का मतलब पूछें तो शायद वह बता ही नहीं पाए. चवन्नी को बॉलीवुड शब्द पसंद नहीं है. इससे एक तरफ हीन भावना और दूसरी तरफ हेय भावना प्रकट होती है.
शाहरुख खान और फराह खान 'ओम शांति ओम' को बेचने के तमाम हथकंडे अपना रहे हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है. फेरीवाला भी अ।वाज देता है तभी हम समझ पाते हैं कि वह गली में अ। गया है. मछली बाजार है फिल्म इंडस्ट्री ... निश्चित ग्राहकों को भी बुलाने के लिए अ।वाज देने की अ।दत पड़ गयी है. अब तो लुभाने, फंसाने और दिखाने के नए.-नए उपकरण अ। गए हैं, फिर भी दर्शक बच जाते हैं. चवन्नी के साथी दर्शक होशियार हो गए हैं. वे सूंघ लेते हैं और सिनेमाघरों का रूख ही नहीं करते . फिर सलमान हों या शाहरुख . . .

Comments

Divine India said…
भाई क्या किया जाए… पूरा भारत ही अर्थव्यवस्था की घुड़दौड़ में समाता चला जा रहा है… आज ही प्रीटिस नंडी का कालम पढ़ा… उन्होंने बहुत सही कहा है कि Hollywood इससे पहले इस रास्ते से गुजर चुका है और उसने इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई है तो हम भी उसी रास्ते पर हैं इसकारण ही तो हमारे सिनेमा का स्तर उठ ही नहीं पाता है…।
रही बात रैंप पर चलने की तो वह भी अपने प्रोडक्ट को बेचने का अच्छा साधन है…।
Udan Tashtari said…
फिल्म देखने जाना भी तो रैम्प पर चलने जैसा ही है-एकदम संभल संभल कर-डगमगाये कि गये!! वो तो फिर भी उठ लेंगे. यहाँ तो तीन घंटे के लिये अटक गये और पैसों की जो चिपकी सो अलग. :)

-सब बाजार में लुभाने के तरीके हैं-जगमग से जनता खिंचती है तो वो जगमग जगमग करते हैं.

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