बनारस के रंग में रंगी फिल्म है लागा चुनरी में दाग


-अजय ब्रह्मात्मज

कहते हैं विद्या बालन ने यह फिल्म कुछ दिक्कतों के कारण छोड़ दी थी। इस नुकसान को वह फिल्म देखने के बाद समझ सकती हैं। कोंकणा सेन शर्मा ने उसे लपक कर खुद को कमर्शियल सेटअप में लाने का सुंदर प्रयास किया है।
लागा चुनरी में दाग के फ‌र्स्ट हाफ में बनारस की सुंदरता और अल्हड़पन को बड़की (रानी मुखर्जी) और छुटकी (कोंकणा सेन शर्मा) के माध्यम से प्रदीप सरकार ने चित्रित किया है। पुश्तैनी अमीरी गंवाने के बाद बदहाल जिंदगी जी रहे एक मध्यवर्गीय परिवार की बड़ी लड़की परिवार संभालने के चक्कर में जिस्मफरोशी के धंधे में फंस जाती है। बाद में जब उसके बारे में पता चलता है तो सभी उसकी मजबूरी और जिम्मेदारी के एहसास को समझ कर उसकी इज्जत करने लगते हैं।
मेलोड्रामा, भावनाओं के खेल और अश्रुविगलित कहानियां पसंद करने वाले दर्शकों को यह फिल्म पसंद आएगी, क्योंकि कई दृश्यों में रुमाल निकालने की जरूरत पड़ जाएगी। बड़की-छुटकी का बहनापा और गरीबी में पिसती मां से उनके संबंध को ऐसी संवेदना के साथ फिल्मों में कम दिखाया गया है। फिल्म में दिक्कत तब शुरू होती है, जब यह मेलोड्रामा हद से ज्यादा हो जाता है। एक-एक कर सारे किरदार त्याग की मूर्तियों में तब्दील होने लगते हैं। ऐसे दृश्यों में युवा दर्शकों को हंसी आने लगती है और फिल्म की भावनात्मक पकड़ ढीली हो जाती है।
प्रदीप सरकार ने इंटरवल के पहले फिल्म को कथ्य के लिहाज से गहरा कर दिया है, लेकिन इंटरवल के बाद वे उसी गहराई को कायम नहीं रख पाते। फिल्म उथली हो जाती है और सब कुछ इतना जाहिर हो जाता है कि नाटकीयता नकली लगने लगती है। फिल्म के कथ्य पर बाकी चीजें भारी पड़ गई हैं।
रानी मुखर्जी और कोंकणा सेन शर्मा को बड़की-छुटकी के किरदारों के लिए पूरा अंक मिलना चाहिए। मां की विवशता, दुविधा और फिक्र को जया बच्चन ने बखूबी पेश किया है। उन्हें और भी फिल्में करनी चाहिए। हीरो इस फिल्म में शो पीस की तरह हैं। सिर्फ गानों और चंद पूरक दृश्यों के लिए उनका उपयोग किया गया है। नारीवादी दर्शक खुश हो सकती हैं। फिल्म के गीत-संगीत के लिए स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा बधाई के पात्र हैं। उन्होंने शब्दों और धुनों से बनारस का रंग ला दिया है।

Comments

Anonymous said…
लगता है कि देखना नहीं है...पैसे बचाने के लिए धन्यवाद.
Sajeev said…
भाई मैं तो देख कर ही कहूँगा की आप कितने सही थे, उपरी तौर पर तो फ़िल्म बहुत प्रभावी लग रही है, दुसरा कोंकणा और रानी दोनों इतने जबर्दस्त कलाल्कार हैं की उनके लिए ही फ़िल्म देखी जा सकती है

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