अकेलेपन से मुक्त करती हैं फिल्में


-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्मों के प्रभाव, कार्य और दायित्व को लेकर बहसें हमेशा होती रही हैं। हर दौर में तात्कालिक और सामाजिक स्थितियों के अनुसार, फिल्मों के स्वरूप और प्रभाव को समझा और समझाया गया है। पिछले दिनों शाहरुख खान ने 38वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए दो बातों पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हम सपने बेचते हैं। ऐसे सपने, जो पूरे होते हैं और कभी-कभी अधूरे ही रह जाते हैं। दूसरा, फिल्में अकेलेपन से मुक्ति देती हैं।
सपने बेचने की बात एक जमाने से कही जा रही है। शायद यही वजह है कि फिल्मकारों को सपनों का सौदागर भी कहा जाता है। सपने नींद में भले ही खलल डालते हों, लेकिन जिंदगी में सपने हमें एक उम्मीद से भर देते हैं। हम अपनी कठिनाइयों में भी उस उम्मीद की लौ को जलाए रहते हैं और कुछ पाने या कर गुजरने की संभावना में संघर्ष से नहीं सकुचाते। हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में सपनों पर ज्यादा जोर दिया गया है। सपनों की यह अतिरंजना वास्तविकता से पलायन का मौका देती है। हिंदी फिल्मों को पलायनवादी कहा भी जाता है। आजादी के बाद से सपनों को बेचने का यह कारोबार चल रहा है। पहले ये सपने जिंदगी के करीब रहते थे, इसीलिए ऐसा लगता था कि आम दर्शक भी उन्हें हासिल कर सकता है। पहले की फिल्मों में सपनों का भावनात्मक आधार मजबूत रहता था, लेकिन इधर की फिल्मों में सपने भावनात्मक से अधिक भौतिक हो गए हैं। यह उपभोक्तावादी संस्कृति का दबाव है। हमारी फिल्मों के मुख्य पात्र इन दिनों भौतिक समृद्धि परोसते हैं और कहीं न कहीं दर्शकों को खरीदार में तब्दील कर देते हैं। अब यदि यह कहें कि बाजार समाज के सभी क्षेत्रों पर हावी है, तो ऐसी स्थिति में फिल्में भी बची नहीं रह सकतीं?
शाहरुख खान की दूसरी धारणा गौरतलब है -अकेलेपन से मुक्त करती हैं फिल्में। इस कथन के आशय के विस्तार में जाएं, तो हमें मानना ही होगा कि दर्शक अकेला हो चुका है और वह अकेलेपन की तकलीफ से मुक्ति के लिए ही फिल्में देखने जाता है। क्या वास्तव में ऐसा होता है? क्या हिंदी फिल्मों के दर्शक सचमुच अकेले हो गए हैं और उन्हें हिंदी फिल्मों से राहत मिलती है। अकेलापन वास्तव में पूंजीवादी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का परिणाम है। भारत में कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो भारतीय समाज में व्यक्ति अकेलापन महसूस ही नहीं करता। महानगरों में आजीविका की तलाश में सुदूर इलाकों से आए श्रमिक जरूर अकेलापन महसूस करते हैं। मनोरंजन के सस्ते माध्यम फिल्मों से उन्हें मुक्ति मिलती है। दिन भर की थकान के बाद फिल्में देखकर वे खुद को बहलाते हैं। यहां हमें इस पर भी गौर करना चाहिए कि महानगरों में तेजी से उभरे मल्टीप्लेक्स ने इन श्रमिक दर्शकों को सिनेमाघरों से बाहर कर दिया है। अब ये दर्शक वीडियो पार्लर या डीवीडी सिनेमाघरों में पुरानी फिल्में देखते हैं। थोड़े संपन्न हुए, तो उन्हें पाइरेटेड डीवीडी या वीसीडी लाकर समूह में फिल्में देखने का नया तरीका मिल गया है।
शाहरुख खान ने हिंदी फिल्मों के संदर्भ में उल्लेखनीय बातें कहीं। उनकी फिल्में उनके वक्तव्य पर खरी उतरती हैं। उनकी हालिया रिलीज ओम शांति ओम के लिए यही तर्क दिया जा रहा है कि वह मनोरंजन करती है। मनोरंजन जरूरी है। वर्तमान के तनावपूर्ण समय में फिल्में दर्शकों को टेंशन फ्री करने का बड़ा काम कर रही हैं। शाहरुख खान फिल्मों के इस दायित्व को अच्छी तरह समझते हैं। यही कारण है कि वे फिल्मों की सार्थकता और सामाजिकता से अधिक महत्व उसके मनोरंजन पर देते हैं। हालांकि, उन्होंने अशोका, पहेली और फिर भी दिल है हिंदुस्तानी जैसे सचेत और गंभीर फिल्मों का निर्माण भी किया, लेकिन उनकी असफलता और मैं हूं ना और ओम शांति ओम जैसी फिल्मों की सफलता ने उन्हें फिल्मों में मनोरंजन का प्रवक्ता बना दिया है। सफलता हमारी सोच बदलती है और शाहरुख खान की भी..

Comments

ब्लागवा्णी के जरिए आप तक पहुंचा। आपको नियमित रुप से ब्लागवाणी पर देखना वाकई बेहद सुखद अनुभव है। हम लोगों ने एक कम्यूनिटी ब्लाग बनाया है, अभी बहुत लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं। हम चाहते हैं कि इस ब्लाग से ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ें ताकि अपनी बात कहने सुनाने का एक पब्लिक प्लेटफार्म बनाया जा सके। अगर आप चाहें तो www.batkahee.blogspot.com पर क्लिक कर इस ब्लाग तक पहुंच सकते हैं। और अगर आपको ठीक लगे तो आपका स्वागत है...। अपने बारे में एक संक्षिप्त परिचय लिखकर ज्वाइन करें तो हमें अच्छा लगेगा। .इस ब्लाग को बेहतर बनाने में हमारी मदद करें। इनविटेशन लिंक http://www.blogger.com/i.g?inviteID=7959074924815683505&blogID=1118301555079880220 पर क्लिक करते ही आप इस ब्लाग 'आफ द रिकार्ड' के सदस्य बन सकते हैं। आपका स्वागत है...।
विवेक सत्य मित्रम्

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को