तमाशा नहीं, तैश दिखाने का वक्त है-विवेक अग्निहोत्री

हैदराबाद के इंडियन स्कूल आफ बिजनेस के छात्रों के साथ मिल कर विवेक अग्निहोत्री 'बुद्ध-इन अ ट्रैफिक जाम' नामक फिल्म बना रहे हैं। बातचीत में वे देश के हालात से दुखी और फिल्म इंडस्ट्री से नाराज नजर आते हैं। विवेक पूरे तैश में हैं, लेकिन क्यों?

इस अनोखी फिल्म की योजना कैसे बनी?

मैं मैनेजमेंट स्कूल में पढ़ाने जाता था। वहां के लड़के एक छोटी फिल्म बनाना चाहते थे। मैंने सुझाव दिया कि 15 मिनट की फिल्म बनाओगे तो कोई देखेगा नहीं। फीचर फिल्म ही बनाते हैं। दोनों में मेहनत तो उतनी ही लगेगी। उन्हीं दिनों मैं देश में यात्राएं कर रहा था। यह विषय था मेरे पास। मैं एक छोटी फिल्म बनाना चाहता था.. ऐसी फिल्म बनाना चाहता था, जिसमें मैंने सारी जिंदगी लगाई है.. जो सोचा है, देखा है, समझा है। हमारे सामाजिक-राजनीतिक हालात जैसे चल रहे हैं? उसी पर मैं एक फिल्म करना चाहता था। मेरे पास जो विषय था, उसे फिल्म इंडस्ट्री से फायनेंस मिलता नहीं, क्योंकि बहुत ही हार्ड हिटिंग और पॉलिटिकल फिल्म है।

आप ने घोर कामर्शियल फिल्में बनाई। उसके बाद इस राह पर जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? कोई मोहभंग हुआ है या फिलहाल यही विकल्प था?

सोच कर कोई विकल्प नहीं मिलता। आप नदी की धारा को देखें, वह खुद के लिए राह बनाती जाती है। मैं इसे अपनी एक छोटी धारा के रूप में देखता हूं। सच बोलने की कोशिश करें तो चीजें अपने आप जुड़ती चली जाती हैं। यह सही है कि अगर हम इसे टिपिकल हिंदी फिल्म की तरह बनाते तो शायद सफल नहीं होते। बनाते तो हमें समझौते करने पड़ते, जो कंसेप्ट के लिए सही नहीं रहता।

फिल्म की थीम के बारे में बताएं? किस तरह की फिल्म है यह?

फिल्म का नाम है 'बुद्ध-इन अ ट्रैफिक जाम'। बुद्ध का मतलब एनलाइटेंड व्यक्ति से है। ऐसा व्यक्ति आज के हालात के ट्रैफिक जाम में फंसा है। उसके चारों तरफ हड़बोंग मचा हुआ है। अभी की स्थिति है कि जिसके पास ताकत है, जिसके पास रिसोर्सेस है, वही कुछ कर पाता है। इस देश में शरीफ आदमी परेशान है। बुद्ध भी आ जाएं तो परेशान होंगे।

बिल्कुल सही कह रहे हैं आप..

जी, यह एक पॉलीटिकल कमेंट है। हमारे आसपास नैतिक और राजनीतिक मूल्यों का तेजी से लॉस हुआ है। हर स्तर पर हम नीचे जा रहे हैं। करप्शन के नाम पर नेताओं को गाली देना आम बात हो गई है, लेकिन गौर करें तो हमारे मूल्यों का चौतरफा पतन हुआ है। यह सब उदारीकरण के बाद हुआ है। सन् 1990 के पहले अगर आप भ्रष्ट घोषित होते थे तो बहुत बदनामी होती थी। लोग नीची नजर से देखते थे। परिवार पर थू-थू होती थी। अब उल्टा हो रहा है।

इससे सिनेमा किस ढंग से प्रभावित हुआ है?

आप देखें कि पिछले 15 सालों से रईसी, अमीरी, विदेशों की ही कहानियां दिखाई जा रही हैं। कॉमन मैन खत्म हो गया है। अब वह ढंग से दिखाया ही नहीं जाता। उसकी समस्याओं की बात की नहीं जाती। हम ने उनकी तरफ से आंखें मूंद ली हैं।

हिंदी सिनेमा से देश तो सालों से गायब है..

बिल्कुल, समस्याओं से जूझ रहे देश को हम फिल्मों में देखते ही नहीं। नाच-गाना चलता है और हीरो-हीरोइन विदेशों में घूमते हैं। पॉलिटिकल प्रॉब्लम लेते भी हैं तो उसे विदेशों में ले जाते हैं। आदिवासी समस्या, नक्सल समस्या, किसानों की आत्महत्या की समस्या.. इन सभी मुद्दों पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। यह सब भी तो फिल्म में आना चाहिए।

इन विषयों पर फिल्म बनाना भी तो आसान नहीं है?

जी, फिल्म ट्रेड से ही दिक्कत होती है। मैं जो फिल्म बना रहा हूं, उसे भी बेचने और वितरित करने की दिक्कत होगी। मुझे मालूम है कि मेरे निर्माता जल्दी से दूसरी फिल्म नहीं बना पाएंगे, ऐसी फिल्मों के बनने-बनाने में दो-तीन साल लग जाते हैं।

आप तैश में दिख रहे हैं?

बढि़या फिल्में, बढि़या साहित्य और बढि़या काम तैश से होता है। ठंडे दिमाग से तो ठंडा काम होता है - कूल फिल्में बनती हैं। वक्त नहीं है कि अब किनारे बैठ कर तमाशा देखें या ताली बजाएं। हमें धारा में उतरना होगा।

कहानी क्या है?

यह एक बिजनेस स्कूल की कहानी है। आप देखें कि ऐसे इंस्टीट्यूशन में पढ़ रहे बच्चे देश से कटे हुए है। पहले के इंस्टीट्यूट में एक राजनीतिक चेतना रहती थी। इमरजेंसी की खिलाफत छात्रों ने की थी। मेरी फिल्म में ऐसे इंस्टीट्यूट में पढ़ रहा एक लड़का रियलाइज करता है कि वह क्या पढ़ रहा है? उसे समझ में आता है कि देश में एक आर्थिक क्रांति की जरूरत है। ऐसी क्रांति गांवों में होनी चाहिए। सभी उसके खिलाफ हो जाते हैं। उसका रास्ता जाम कर देते हैं।

फिल्म में कौन-कौन से कलाकार हैं?

अनुपम खेर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अरुणोदय सिंह और माही गिल भी हैं। मेरी पत्‍‌नी पल्लवी जोशी दस साल के बाद आ रही हैं। जयंत कृपलानी हैं। इनके उस इंस्टीट्यूट के 570 छात्र हैं!


Comments

Unknown said…
film ka intijaar hai ....

jai baba banaras...
देखा जाय कि क्या बनता है!

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