हमारी गपबाजी में भी माद्दा होता था-पंकज कपूर



 पंकज कपूर से यह बातचीत 1994-1995 में हुई होगी। यह अप्रकाशित ही रहा। अभी पुरानी फाइलों में मिला। कुछ बातें पुरानी और अप्रासंगिक हो गई हैं,लेकिन इन्‍हें एक बार पढ़ जाएं तो सारी बातें जरूरी लगने लगती हैं। आज पहला हिस्‍सा है। कल दूसरा और अंतिम हिस्‍सा पोस्‍ट करूंगा।

      मैं पंजाब के लुधियाना शहर में पैदा हुआ। वहीं से मेंने स्कूल और कॉलेज की तालीम हासिल की। कुंदन विद्या मंदिर स्कूल में पढ़ा। आर्या कॉलेज में था। कॉलेज में प्री इंजिनयरिंग तक पढ़ाई की, फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय गया। 1973 में वहां गया। 1976 में वहां से निकला। अभिनय में विशेषज्ञता ली। एनएसडी की रेपटरी में चार साल तक काम किया। अभिनेता था। उसके बाद फिल्में मिलनी शुरू हो गईं तो फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया।
स्कूल-कॉलेज की गतिविधियों में हमलोग काफी सक्रिय रहते थे। मैं अंतर्मुखी  कभी नहीं रहा, बहिर्मुखी व्यक्तित्व का था। उम्र बढऩे के साथ अब थोड़ी गंभीरता आ गई है। वर्ना बहुत शरारतें करते थे। नाटक,अभिनय और भाषण प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया करता था। खेल में भी समान रुचि थी। हमारा ज्‍यादातर समय इन्हीं चीजों में जाया होता था। मैं बैडमिंटन खेलता था। कालेज एलेवन तक खेला। बहुत अच्छा प्लेयर नहीं था। पढ़ाई में भी ठीक-ठाक ही था, बहुत अच्छा नहीं था। पतंगबाजी का बहुत शौक था। हमारी तरफ सर्दियों में बहुत पतंगे उड़ती है। लोहरी के समय खूब पतंगबाजी होती है। उसके आसपास बावलेपन की हद तक हमलोग मशगूल हो जाते थे। आज भी पतंग उड़ाने का शौक है। मेरे घर में पतंग है। यह एक सिलसिला है, जो बचपन से अबतक जारी है।
      तीन-चार दोस्त थे, जो अभी तक दोस्त हैं। कुछ स्कूल के समय से हैं, कुछ कालेज में दोस्त बने। वे लोग अभी भी दोस्त हैं। के जी, मुकेश, अश्विनी, रवि हैं, अशोक अग्रवाल हैं। कुछ ऐसे हैं जिनसे बहुत पुरानी दोस्ती रही। कुछ ऐसे भी हैं, जिनसे बाहर आकर वर्षो बाद मुलाकात हुई। वे भी हमारी तरह लुधियाने से निकल आए। एक दोस्त हैं मेरे अरविंद दूबे, वे बंबई में है। मेरे साथ ऐसा रहा कि लुधियाना से निकलने के बाद बहुत आना-जाना नहीं हो पाया। स्कूल-कालेज के अध्यापकों से बहुत कम भेंट हो पाई। कालेज के एक दो अध्यापकों से मुलाकात हुई। मेरे पिता खुद कालेज के प्रिंसिपल थे। इस वजह से उनके सहकर्मियों से मुलाकात हो जाती थी। स्कूल के टीचर से मुलाकात नहीं हो पाई। लुधियाना 1973 में छोड़ा। इसके बाद केवल एक-दो दिनों के लिए जाना हो पाया। उसमें इतना वक्त नहीं मिलता था कि घरवालों के अलावा या दोस्तों के अलावा कहीं और जा सकें, किसी और से मिल सकें। लुधियाना की कभी जरूर महसूस होती है कभी-कभार। मैं उस घर की कमी महसूस करता हूं, जहां हम रहा करते थे। उसमें एक अपनापन था। पूरा बचपन, अपनापन, स्कूल, कालेज, मां-पिता के साथ बिताए दिन, भाई-बहन सबके साथ की यादें जुड़ी हुई हैं। वह घर बेच दिया गया है अब। अब वहां कोई नहीं रहता। मेरे मां-पिता व्यास रहने लगे थे। कुछ समय पहले मेरे पिता की मृत्यु हुई तो तभी मां मेरे साथ आ गई हैं। बहन और भाई पहले से बंबई में हैं। अब कह सकते हैं कि परिवार के सभी लोग बंबई में ही हैं।
बतौर एक इंसान सारा विकास, बचपन में पड़े इंप्रेशन, उस घर के कंस्ट्रक्शन, ज्‍योग्राफी, छोटे आंगन, उसकी बड़ी-बड़ी खिड़कियां, उसकी छत जिस पर पतंग उड़ाई जाती थी, छोटा सा बाग ये सब चीजें जो हैं, इनकी एक अहं भूमिका रही है। बचपन का एक बहुत अहं हिस्सा रहा है, वह यह कि मेरे पिता हर वर्ष हमें दो महीने के लिए किसी हिल स्टेशन पर ले जाते थे। हमलोग ज्‍यादातर कश्मीर जाते थे। पिताजी प्रोफेसर थे। उन्हें दो महीने की छुट्टी मिलती थी। हम पूरे परिवार के साथ जाते थे। यह हमारा बहुत समृद्ध अनुभव रहा। मेरे पिता बहुत पढ़े-लिखे इंसान थे, काबिल थे। इस पेशे में मेरे आने का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया। बल्कि उन्होंने मदद ही की। वे अंग्रेजी के शिक्षक थे।
हम बदमाश नहीं, शरारती थे। मेरे एक अध्यापक ढांडा मुझे बहुत चाहते थे। कपूर साहब हिंदी के शिक्षक थे, वे भी बहुत चाहते थे। पता नहीं अब दोनों कहां हैं। कपूर साहब नाटक वगैरह करवाया करते थे। ऐसा कुछ खास नहीं याद आ रहा है जो मैं आपको बताऊं। बचपन की अनेक शरारतें हैं। कालेज के दिनों में मैं काफी खामोश हो गया था। मेरे पिता प्रिंसिपल थे, इसलिए भी थोड़ा। स्कूल से कालेज में जाना एक नया तजुर्बा था। मेरे ज्‍वॉयन करने के समय वे अंग्रेजी विभाग के हेड थे। इस वजह से बहुत कुछ शरारत कर पाने का मौका था भी नहीं। लडक़े यह मानकर चलते थे कि मैं प्रोफेसर का लडक़ा हूं, इसलिए शायद मुझे शामिल न करते हों कई चीजों में। कालेज में जो खास किस्म की शरारतें होती हैं, उनमें हम कभी शामिल न रहे। कोई शौक भी न था उन चीजों का। हमें खेलकूद का शौक था। कुछ देखने, सुनने, पढऩे का ज्‍यादा शौक था। कभी ड्रामा कर लिया, कोई भाषण तैयार कर लिया। इस तरह से हमलोग सक्रिय थे।
- बचपन की कोई ऐसी बात जिसे उस समय आपने अपनी उपलब्धि समझी हो?
0 1971 की बात है। बांग्लादेश की लड़ाई चल रही थी। पैसे एकत्र करने के लिए एक शो किया जाने वाला था हमारे कालेज में। उस वक्त हमें लगा था कि हमने कुछ बड़ा काम किया है। कोई कमाल कर दिया। उस समय हम बहुत छोटे थे। छोटे शहर में कोई कार्यक्रम आयोजित करना मामूली बात नहीं होती है। खासतौर पर उस जमाने में। हर तरह के लोग होते हैं, जो कि चाहते हैं कि हम इसका हिस्सा क्यों न हुए ? या कार्यक्रम को असफल करने की कोशिश करते हैं। ऐसे माहौल में हमने काम किया, यह बहुत बड़ी बात लगी थी। जैसे कोई बहुत बड़ा किला फतह किया हो। मैं बहुत सफल वक्ता और अभिनेता था। खासकर भाषण प्रतियोगिता में हमारी टीम पहुंच जाती थी तो कुछ लोग हमें देखकर ही पीछे हट जाते थे। 5-6 साल तक हमलोगों ने लगातार सैकड़ों ईनाम जीते। इससे एक अजीब सा आत्मविश्वास भी आया। उस समय बड़ी बात लगती थी कि सौ आदमी में आप पहले नंबर पर आए। इस सब में मेरे पिता का योगदान बहुत ज्‍यादा था। वे तैयारी करवाते थे।
मैं 6-7 वर्ष का रहा होऊंगा सर्दियों के मौसम में अपने घर की रसोई में हमलोग कंबल वगैरह बिछाकर इकट्ठे बैठ जाते थे। पकौड़े वगैरह बनते थे और पिताजी हमलोगों को कहानियां सुनाते थे। यह मेरे विकास का अहं स्रोत है। पिताजी अंग्रेजी के अध्यापक थे। वे शेक्सपीयर से लेकर शेरलक होम्स तक की कहानियां सुनाते थे। हिंदी की भी कहानियां सुनाते थे। सुनाते वे हिंदी में थे, हमारी अंग्रेजी की बैकग्राउंड नहीं थी। अभी हम ए बी सी डी के लेवल पर थे।
बचपन की कोई नाटकीय घटना तो नहीं याद आ रही। एक घटना सुनाता हूं। दरअसल दर्शक या पाठक हमसे सहज ही प्रभाव ग्रहण कर लेता है। इसलिए हमें सोच-समझकर बोलना चाहिए। आपने पूछा है, इसलिए बता देता हूं। वैसे मैं बचना चाहता था। हमारी बात का असर गलत हो तो य खतरनाक चीज हो सकती है।
मेरा छोटा भाई उस समय बहुत छोटा था। कोई दो-ढाई वर्ष का रहा होगा। मैं रहा होऊंगा बारह वर्ष का। हमारे पड़ोस मे एक साहब रहा करते थे। मेरा भाई उनके यहां बहुत जाया करता था। उसका दोस्त था वहां पर, बहुत अच्छे ताल्लुकात थे हमारे। उन्होंने एक परिवार को किराए पर रखा। यह बात आज तक उन्हें भी नहीं मालूम है। छपने पर वे परेशान होंगे। यह एक सिक्रेट था।
इत्तफाकन एक दिन मेरा भाई रोते हुए मेरे पास आया। बोला, भैया उन्होंने मुझे धक्का दे दिया। मैंने पूछा, किसने धक्का दिया। उसने बताया कि जो नए किराएदार आए हैं, उन्होंने। तो किराएदार ने छोटे भाई को धक्का दे दिया। हम तो गुस्सा गए। हमने कहा कि ठीक है, इसका बदला लिया जाएगा। किराएदार साहब की एक कार हुआ करती थी। मैं और मेरा एक दोस्त दोनों ने मिलकर योजना बनाई। दोनों ने तय किया कि बदला लेना बहुत जरूरी है। एक सिक्रेट मिशन तैयार किया गया। जिसके तहत मेरे दोस्त को स्टेशनरी की दुकान भेजा गया। वहां से वीटो बाम की काली स्याही मंगाई गई है। कागज पर ब्राउन टेप मंगवाया गया। और साहब तैयारी इस बात की हुई कि पता किया जाए कि आज इन लोगों का क्या प्रोग्राम है? अब दीवारें साथ में सटती हैं तो जाहिर है कि आधी बातें सुनाई पड़ जाती हैं। पता चला कि आज रात को 9 से 12 का फिल्म शो देखने जा रहे हैं। तो रात को हमने कमरे की लाईट ऑफ कर दी। जाहिर था कि बाहर से अंदर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। जबकि हम बाहर देख सकते थे।
दस्ताने तो थे नहीं हमारे पास। हमने मोजे निकाले और मोजे पहने। हाथ पर चढ़ाए। मोजे चढ़ाकर मिशन पर निकल गए। उस समय वे लोग खाना खा रहे होंगे। उनकी विंड स्क्रीन पर टेप चिपका दिया और ऊपर से काली स्याही पोत दी। मिशन समाप्त करने के बाद आकर खिडक़ी पर खड़े हो गए। हम नजारा देखने लगे कि अब क्या होता है? साहब बाहर निकले और कार देखने के साथ उनका चेहरा लटक गया।
      अगला दृश्य था कि सूटेड-बूटेड साहब लंबा कच्छा और बनियान पहने हुए बाल्टी लेकर बाहर आ रहे हैं। बाहर आकर गाड़ी की धुलाई कर रहे हैं।
      यह एक घटना थी। इससे खतरा यह रहता कि लोग गलत प्रभाव ले लें।
कालेज में फिजिक्स, केमेस्ट्री मैथेमेटिक्स थी। प्री इंजीनियरिंग करने के बाद मैं एनएसडी. चला गया। वहां तीन साल रहे। उस समय अलकाजी निदेशक थे। यह हमारा सौभाग्य था। वे बहुत ही महान शिक्षक थे। वहां से पूरा करने के बाद गांधी फिल्म में एक छोटा सा किरदार मिला। गांधी में बेन किंग्सले के लिए हिंदी में डब किया। यह फिल्म 1980 में बनी थी। उसके बाद फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ। गांधीमेरी पहली फिल्म थी और करमचंदपहला धारावाहिक था।
बंबई 1984 में आए।
      दो भाई और एक बहन हैं। छोटा भाई अभी दिल्ली ट्रांसफर होकर चला गया है। उसने एमबीए किया है। बस तीन ही लोग हैं। भाई कोलगेट-पामोलिव के सथ हैं। बहन बंबई में ही है। बहनोई बंबई एयरपोर्ट के डिप्टी डायरेक्टर हैं।
      बंबई आने के बाद शुरू में बहुत अटपटा सा लगा। क्योंकि दिल्ली में थिएटर करते हुए मैंने अपनी अच्छी जगह बना ली थी। बहुत नाटक किए। 1973 से 1983 तक, यानी दस साल तक नाटक किए। दिल्ली के दर्शक पहचानने लगे थे। थिएटर के स्टार थे हमलोग। बंबई आए तो सिलसिला ही कुछ और था। सोच ही कुछ और थी। काम करने का ढंग कुछ और था। शुरू में कुछ अजीब भी लगा। ऐसा भी लगा कि भई एक नई शुरुआत करनी पड़ेगी इस अलग मीडियम के लिए। तो करते हैं। यहां भी कुछ नाटक किए हमने।
      अभिनय का आत्मविश्वास मुझे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिला था। इससे पहले बतौर इंसान आत्मविश्वास जरूर था। मगर अभिनेता के रूप में बड़ा आत्मविश्वास रानावि में आया। 19 वर्ष की उम्र में मैंने दाखिला लिया था। बाहरी दुनिया से साबका पड़ा। बहुत कुछ सीखने को मिला। वे तीन साल बहुत अहं थे। अलकाजी का सबसे ज्‍यादा प्रभाव था। मैं राधास्वामी हूं। तो पहले मेरे गुरू और उसके बाद पिता का बहुत ज्‍यादा प्रभाव रहा। वे साहित्य के व्यक्ति थे। विपुल जानकारी, बहुत ही खुली सोच के थे। उसके बाद अलकाजी साहब। उनका बहुत बड़ा योगदान थे। फिर साथ पढऩे वाले अलग-अलग राज्‍यों से आए दोस्त। कई टीचर्स, गेस्ट डायरेक्टर्स। अलकाजी साहब एकतरफा ट्रेनिंग नहीं देते थे। वे कला के विभिन्न माध्यमों की जानकारी देते थे। हमें भेजते थे। दोस्तों में सभी का कहीं न कहीं योगदान रहा। क्योंकि वे सबलोग मुझ से उम्र में बड़े थे। उनमें से कुछ की साहित्य की जानकारी बहुत अच्छी थी। रंजीत कपूर, अनिल चौधरी जैसे दोस्तों की साहित्य की जानकारी अच्छी थी। उसी समय अशोक चक्रधर, सुधीश पचौरी आदि भी मिले। वे लोग अनिल के दोस्त थे। इनके साथ मिलने-जुलने का फायदा हुआ। जेएनयू के कुछ दोस्त थे। कुछ देखने, पढऩे, सुनने से फायदा हुआ। मेरे अंदर लगन जरूर थी। खास तरह की। मैंने कोई वक्त बर्बाद नहीं किया। हमारी गपबाजी में भी माद्दा होता था। हल्के किस्म की गपबाजी नहीं होती थी। उस वक्त अभिनय का फितूर चढ़ा था। पहली बार पता चला था कि अभिनय हिंदी व्यावसायिक फिल्म के बाहर भी होती है। लुधियाने में हमारा दायरा हिंदी फिल्म तक सीमित था। यहां एक समुंदर खुल गया। लोगों के अभिनय के प्रयास, अभिनय की शैली आदि देखने को मिली।
मैं अपने अभिनय की शैली को किसी एक शैली के तहत नहीं रखना चाहता। एक चीज मेरे लिए अहं है कि दुनिया में हर इंसान अलग-अलग तरह का होता है, इसलिए जब आप कोई भी किरदार निभाते जाएं तो ये बात आपके जहन में रहनी चाहिए। कोशिश जरूर करनी चाहिए, हालांकि यही जिस्म है, यही चेहरा है, यही देह है, यही आवाज है, उसमें जितना अधिक आप स्वयं को उस किरदार में ढाल पाएं, उतनी कोशिश करनी चाहिए। अगर आप हर बार अपनी जिंदगी में जैसे हैं, वैसे ही किरदार को करने की कोशिश करेंगे तो मेरा ख्याल है कि आप किरदार को नहीं निभा पाएंगे। और वह किरदार आपकी जिंदगी का हिस्सा हो जाएगा, आप उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं होंगे। ऐसे में आप अपना वजूद ज्‍यादा दिखा रहे होंगे दर्शकों को। इसलिए कि जो जरूरत है, वह यह कि किरदार को दिखाया जाए। क्योंकि आपकी पृष्ठभूमि किरदार से अलग होते हैं। वह केवल संवाद, पटकथा से नहीं आपके व्यवहार (उठने, बैठने, चलने, फिरने के अंदाज में) से अलग नजर आनी चाहिए। ऐसा मेरा ख्याल है।
      बड़ी अजीब बात है। लोग मेरे साथ बाहर के अभिनेताओं की नकल करने की बात जोड़ते हैं। आज से पांच-छह साल पहले करमचंदके समय भी लोगों ने मुझ से कहा कि एक अमरीकी धारावाहिक का मुख्य जासूस भी आप की तरह व्यवहार करता है। मैंने वह धारावाहिक देखा भी नहीं था। मैंने पाकिस्तान के तीन सीरियल आज तक देखे हैं। तनहाइयां’, ‘धूप किनाराऔर अनकही। इसके अलावा एक-दो और देखे। यह बात तो समझ में नहीं आती है। इत्तफाक जरूर हो सकता है। वैसे ऐसा कभी मैंने नहीं किया। जिन चीजों के खिलाफ हैं आप, आप वैसा ही क्यों करेगें। जब आप इस चीज के खिलाफ होंगे कि किसी दूसरे की नकल न करें। यह एक संयोग मात्र है। पाकिस्तान में मेरे बहुत प्रशंसक हैं। उन्होंने कभी ऐसी बात नहीं कही। हो सकता आपकी परिचिता को कोई एक दृश्य में ऐसा लग गया हो, ऐसा हो जाता है।
      मेरे ऊपर कभी किसी अभिनेता का प्रभाव नहीं रहा। हां, मैं उनका आदर करता हूं। जिन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। मैंने सचेत रूप से कभी किसी की नकल करने की कोशिश नहीं की।
 -ओवर एक्टिंग
0 हमारे यहां हिंदी फिल्म का इतिहास पचास साल से अधिक का है। इस पचास साल में फिल्मों में अभिनेता ने स्वयं की भूमिका निभाई है। दर्शकों को इसकी लत पड़ गई है। सोचने में भी इसका प्रभाव है। बड़े-बड़े समझदार लोगों के सोचने में भी इसका असर है, हालांकि वे पढ़ चुके हैं कि अभिनय की विविध शैलियां होती हैं। एक मानसिकता बन गई है। अभिनेता की वास्तविक जिंदगी को पर्दे पर देखकर वे उसमें विश्वास करने लगे हैं। इसलिए जब कभी चरित्र के अनुसार स्वयं को ढालने की कोशिश की जाएगी तो लोगों को लगेगा कि अरे भाई, यह यूं क्यों कर रहा है। अभिनय चरित्र के साथ ही निर्देशक की दृष्टि पर भी निर्भर करता है। वह उसे किस रूप (फार्म) में बनाना चाहता है। फटीचरका उदाहरण लें, अगर आप फार्म से अलग हट कर परफार्म करने की कोशिश करते हैं तो लोग कहते हैं कि ओवर कर रहा है। फटीचरके साथ यदि यथार्थवादी अभिनय करेगें तो आप उस फार्म का हिस्सा ही नहीं हो पाएंगे। दूसरा, फटीचर के बारे में हमें इस बात का डर भी था कि ये बात लोगों की समझ में आ पाएगी या नहीं फटीचर एक काल्पनिक चरित्र है। वह रक्त और मांस का जिंदा आदमी नहीं है। जैसे आप हैं, या मैं हूं। यह हम सिनेमा विधा की छूट लेते हैं कि इस चरित्र को निभाने वाले अभिनेता का व्यवहार आम आदमी जैसा नहीं होगा। इसकी दो वजह है। एक यह कि वह अधकचरा है। दूसरी वजह यह है कि वह यदि आम आदमी की तरह व्यवहार करेगा तो लोग भूल जाएंगे कि वह एक काल्पनिक चरित्र है। उसके लिए अलग दिखना जरूरी है। इस अलग दिखने को लोग ओवर एक्टिंग मान लेते हैं।
- साहित्य?
0 पढऩा अच्छा लगता है। हर तरह की किताब पढ़ता हूं। किसी भी चर्चित लेखक के बारे में मालूम होने पर उसका लिखा कुछ न कुछ जरूर पढ़ता हूं। अभी की व्यस्तता में भी कभी-कभी पढऩे का समय मिल जाता है। कभी हमलोग खाली रहते हैं या कभी कोई ऐसा काम होता है, जिसमें पर्याप्त खाली समय मिलता है। ऐसे समय में पढ़ते हैं। आउटडोर लोकेशन में जाने पर शूटिंग के बाद काफी समय मिल जाता है। हिंदी में वही पुराने दो-चार नाम हैं। इधर के लेखकों को नहीं पढ़ा है, सच्ची बात है। रेणु प्रिय रहे हैं। उनका लिखने का अंदाज धीमे-धीमे असर करता है। ईमानदारी की बात है कि नए लोगों को कम पढ़ा है। कुछ पढ़ा भी है तो उसे नाम से नहीं जोड़ सकता। मंटो प्रिय रहे हैं।

Comments

kalakaron ke jeevan ke bare men janane kee jigyasa to rahati hi hai aur phir aise behtareen kalakar.
prastuti purani sahi lekin ye chhene kabhi bhi purani nahin hoti kyonki itihas badala nahin karta hai.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम