हिंदी टाकीज-2 (3) : प्यार-मोहब्बत-बदले की कहानी - अविनाश कुमार चंचल

हिंदी टाकीज 2 में इस बार अविनाश कुमार चंचल। आप सभी से आग्रह है कि सिनेमा के आरंभिक अनुभव साझा करें। 
नाम अविनाश कुमार चंचल। कुल जमा तेईस वर्ष । बेगूसराय के एक गांव का रहने वाला हूं। हाजीपुर से स्कूली पढ़ाई।  पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई ग्रेजुएशन। लिखने-पढ़ने और रिवोल्यूशन  के भ्रम ने आईआईएमसी (दिल्ली) पहुंचाया। वहां से कोर्स खत्म कर हिन्दुस्तान दैनिक में एक साल तक रिपोर्टर की नौकरी की। फिलहाल घूमना और कई सारे वेबसाइट-अखबारों  के लिए फूल टाइम सा लिख रहा हूं। कुछ दिनों से रोटी के लिए एक गैरसरकारी संगठन के लिए कन्सल्टन्सी का काम कर रहा हूं।
किसी खास मंजिल की तलाश नहीं, न ही मिली है। बस सफर शुरू किया है - रास्ते में ही मरने की इच्छा।
 
चवन्नी चैप में हिन्दी टाकीज पढ़ रहा था। इधर मैं ओल्ड पोस्ट पर क्लिक करता  जा रहा था उधर बचपन से लेकर अबतक सिनेमा देखी अनुभव का रील भी घूमता चलता रहा। पहली बार किसी हॉल में सिनेमा कहां देखा-सोचता हूं तो फ्लैश बैक में  दलसिंहसराय (समस्तीपुर का एक कस्बा) का वो हॉल चला आता है शायद मोहरा फिल्म रही होगी लेकिन  रजा मुराद जैसी कोई भारी आवाज भी साथ में सुनाई देती है। चाह कर भी बचपन की वो पहली याद किसी हिरोईन के डांस और उस भारी आवाज से आगे नहीं जा पाती। आज भी उस याद में माँ के हाथों को पकड़ सिनेमाहॉल जाने का फोटो बचा रह गया है और सिनेमाहॉल जाने का उत्साह भी।
    इसके बाद काफी अरसा सिनेमाहॉल दिखा नहीं। गांव में टीवी इक्का-दुक्का घरों में ही लग पाया था। हर रविवार डीडी पर शाम चार बजे। हफ्ते भर हम इंतजार करते रहते। साढ़े तीन बजे तक टीवी वाले के घर पर हम दोस्तों की टोली पहुंचनी शुरू हो जाती। आधे घंटे पहले आने की हिदायत  टीवी मालिक की तरफ से विशेष रुप से दी गयी थी। वजह, उन आधे घंटों में हमें बैठने के लिए जमीन पर अपनी सीट तलाशनी होती और साथ ही, टीवी मालिक-दर्शकों को कुत्ते-बिल्ली-खिखिर और न जाने किन-किन जानवरों की आवाज निकाल मनोरंजन करना पड़ता। गांव में बिजली नहीं है। हर शुक्रवार को टीवी मालिक साईकिल के करियर में बैटरी बांध बजार से चार्ज करा लाते। शुक्रवार से रविवार तक फिल्म देखने का साप्ताहिक कार्यक्रम होता-बैटरी इतने दिनों के लिए चार्ज होते रहते। तो बैटरी वाले उस टीवी-सिनेमाई युग में हर ब्रेक के बीच टीवी को ऑफ कर दिया जाता- बैटरी की खपत कम करने वास्ते। हर ब्रेक के बाद टीवी तभी ऑन होता जब हममें से कोई (जिसे टीवी मालिक चुनता) उस कुत्ते-बिल्ली-खिखिर की आवाज नहीं निकाल लेता। अगर कोई आवाज न निकालने को अड़ जाता तो टीवी भी ऑन नहीं होता। ऐसे समय हमलोगों की खुशामद पर ही वो दोस्त आवाज निकालने को राजी होता और फिर सिनेमा आगे बढ़ायी जाती। जाड़े के दिनों में शाम छह बजे तक काफी अँधेरा हो जाता- आज भी याद है कोई ऐसी रविवार वाली रात नहीं गुजरती जब हमें मार न पड़ी हो।
   शनिवार को दोपहर दो बजे से नेपाली चैनल पर हिन्दी फिल्म आती थी। गांव में एक ही टीवी मालिक था जिसके टीवी पर नेपाली फिल्में साफ-साफ दिखती थीं लेकिन हम दोस्त जब भरी दुपहरी में फिल्म देखने पहुंचते तो टीवी मालिक का शर्त होता कि सिर्फ मुझे ही अंदर आने दिया जाएगा। मैं अड़ जाता। जाउंगा तो दोस्तों के साथ ही। बात नहीं बनती। फिर हम दोस्त टीवी वाले कमरे में की-होल से झांका करते, कभी-कभी खिड़की के दरिजों से भी। बारी-बारी हम सब फिल्म को देखते और कहानी कहते जाते। फिर बाद में हम दोस्तों ने एक रास्ता खोज निकाला। मेरे बांकि दोस्त छिप जाते, मैं टीवी मालिक को अंदर आने देने को कहता और दरवाजा खुलते ही मुझसे पहले मेरे सारे दोस्त अंदर। मैं अनजान बना रहता। गांव में होने की गनीमत थी कि टीवी मालिक मेरे दोस्तों को अंदर से बाहर नहीं निकाल पाता। इतनी मशक्कत बाद भी सिनेमा से कभी प्यार कम न हुआ। इसी दौरान हिरो, राजा बाबू, घातक, मिथून, गोविंदा, सन्नी देओल, अभिताभ सबसे मुलाकात हुई। काफी दिनों तक हिरोईनों के मामले में कन्फयूज ही रहा। माधुरी, जूही, काजोल सबके चेहरे एक से ही लगते रहे। ये वे दिन थे जब दिव्या भारती की मौत को लेकर तरह-तरह के चर्चे हम दोस्त किया करते। आपस में झगड़ते तो मिथून की ईस्टाईल में धिसूम-धुड़ूम वाली ध्वनि मुंह से खुद ब खुद निकलते। अक्षय और सन्नी देओल में कौन ताकतवर है के सवाल से जूझते रहते। हमारी सिनेमाई समझ खुद की विकसित की हुई समझ थी- बिना किसी फिल्मी पत्रिकाओं और अखबारों के। हम किस सीन पर घंटों चर्चा करते- कोई कहता हिरो-हिरोईन के बीच में शीशा लगा होता है, एक ही गाने में इतने कपड़े कैसे बदल जाते हैं-जैसे मासूम सवालों में उलझना अच्छा लगता था।
इस बीच घर ने अपने डांट-फटकार के बावजूद भी मेरे सिनेमाई ललक को कम होता न देख वो फैसला लेने पर मजबूर हुआ, जिसने रातों-रात मेरे दोस्तों के बीच मेरा ओहदा काफी उंचा कर गया। एक दिन ठेले पर ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी को अपने दरवाजे चढ़ते देखा, साथ में एक छोटी सी बैटरी भी। आनन-फानन में एक बांस काट कर लाया गया। अंटिना सेट करते हुए मामा को हमलोग बताते रहे- आ गया, झिलमिला रहा है, चला गया जैसे शब्द उस दिन रात तक आंगन में गोल-गोल चक्कर काटते रहे। शुक्रवार की उस रात गांव-टोले भर में बात फैल चुकी थी कि मेरे घर में टीवी आ चुका है। आस-पड़ोस वाले जिनके यहां से काफी घरेलू रिश्ता था हमारा। बड़े ही अधिकार से उस रात साढ़े नौ से पहले ही आ जमे थे। चाय की केतली गरम होने को चढ़ा दी गयी। बड़े-बूढ़ों के लिए कुर्सी और बच्चे जमीन पर। तकरीबन पचास से ज्यादा लोगों की दर्शक-दिर्घा तो रही ही होगी। पहली फिल्म चली- प्रेमरोग। घर थोड़ा बेगूसराय वाले क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का तो था ही। फिल्म अंत तक न जाने कितने बूंद आँसू टपकाए। हमें तो लूट लिया- भवरें ने खिलाए फूल-फूल कोई ले गया राजकुमर। टीवी वाला घर बनने की उत्तर-कथा ये हुई कि अब मेरे दोस्त मेरी खुशामद करने लगे, किसी से लड़ाई होने पर उसकी सजा अपने घर टीवी नहीं देखने की धमकी के रुप में दिया जाने लगा, इसी टीवी को देखने का दरवाजा खुलते ही लड़ाई भी खत्म हो जाती। इस तरह सिनेमा हम दोस्तों की लड़ाई और सुलह को तय करने लगा था।
  एक घटना और याद हो चला आता है। एक बार पटना गए थे। जिन रिश्तेदार के यहां रात में रुकना हुआ उनके घर रंगीन टीवी केबल के साथ लगा देखा। पहली बार रंगीन टीवी और उसपर भी रात-दिन सिनेमा आने वाला चैनल जी-सिनेमा। रात भर आवाज धीमी करके टीवी पर सिनेमा देखता रहा था। करिश्मा-गोविंदा-बादशाह-अहले जब चार बजे सुबह के करीब माँ ने कान उमेठ डांटना शुरू किया तब जाकर सोया था उस रात। आज भी तूफान की वो आधी देखी फिल्म पूरी नहीं देख पाया हूं।
   रंगीन टीवी देखने के बाद अपना टीवी कुछ फीका सा लगने लगा। बिहारियों में असुविधाओं के विकल्प खोजने की जबरदस्त ताकत है, जिसे जुगाड़ टेक्नोलॉजी कहते हैं। इस जुगाड़ टेक्नोलॉजी से ही न जाने कितने घरों में गोबर गैस की बत्तियां जलती हैं और न जाने डिल्ली-बम्बई-कलकत्ता में मजे की जिन्दगी भी। तो मैंने भी अपने टीवी को रंगीन करने की ठानी। पटने में ही मिला एक शीशा-चारों तरफ ब्लू..बीच में लाल..और थोड़ा-थोड़ा हरा भी। उस ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर उपर से चिपका दिया गया। रंगीन टीवी के पूरे मार्केट को ठेंगा दिखाते हमारी ऑनिडा भी रंगीन कलर में सिनेमा दिखाने लगी।
डीभीडी और सीडी का हमारे गांव तक आना
उस समय तक डीभीडी काफी प्रचलित था लेकिन धीरे-धीरे डीवीडी और सीडी में बनकर नयी-नयी फिल्में हमारे गांव तक का रास्ता तय करने लगी थी। तमाम तरह के मेले-ठेले, तीज-त्योहार में हम गांव में चंदा करते। कभी ज्यादा पैसे होने पर परदे पर प्रोजेक्टर के सहारे सिनेमा दिखायी जाती। कम पैसे होने पर डीवीडी प्लेयर में सीडी दिखा काम चलाया जाता। हां, एक बात और दोनों ही माध्यमों में पहली फिल्म का धार्मिक विषय होना अनिवार्य सा रहता। देर रात कोई भूतहा फिल्म लगाया जाता।
  ये जिन्दगी सिनेमा के नाम
बेगूसराय के जिस सुदूर दियारा इलाके के गांव से मैं आता हूं। उसके बारे में मशहूर है कि बारह-तेरह साल की उमर में अगर बम फेंकना न सीखे, तमजा खोंस कर चलना न सीखें तो शक की काफी गुंजाईश है कि वो बच्चा उसी गांव का है कि कहीं सरईसा से उठ आया है। तो मैं पांचवी में था। सावन का महीना। अंतिम सोमवारी। गांव से सात किलोमीटर दूर विद्यापति धाम, जहां हर सोमवारी भारी संख्या में लोग जल चढ़ाने आते। स्कूल के दोस्तों ने कहा चलो बाबा के यहां जल चढ़ाते हैं। मैंने मना कर दिया। जानता था जल तो बहाना है असली काम भिडियो हॉल में सिनेमा देखने जाना है। लेकिन दोस्तों को यूं ही कोई कमीना थोड़े न कहता है। बाबा शिव का ऐसा डर दिखाया कि घर का डर एक बार को बहुत टुच्चा सा लगने लगा। आज भी याद है सावन के उस बारिश में केले के पत्ते की ओट में हम भागते-भागते सीधा सिनेमा हॉल ही पहुंचे थे। बाबा को जल चढ़ाने का मतलब था फिल्म आधी छूट जाना इसलिए पोस्टपोन्ड।
फिल्म थी- अर्जून पंडित। सन्नी देओल। शायद पेशे से वकील था। प्यार-मोहब्बत-बदले की कहानी। एक-एक रुपये की टिकट ले हमने जमीन वाली सीट बुक कर ली थी। फिल्म देख घर को लौटे- दरवाजे पर खड़ी वो भीड़ आज भी जस का तस याद है। लगा कोई दुर्घटना हुई। दिल धक्क। जाकर देखा तो माँ रो रही थी। लोग हमें खोजने के लिए चारों तरफ भेज दिए गए थे। अपहरण का अंदेशा था। पिटायी नहीं हुई थी उस दिन। एक खतरनाक चुप्पी थी जिसे हमने रात की रोटी को कुतरते हुए महसूस किया था। सुबह वाली ट्रेन से हमें ननिहाल की तरफ भेजा जा चुका था। ननिहाल। जहां कड़े अनुशासन वाले मामा थे, दिन भर की खबर लेते नाना जी थे। आने वाले पांच साल यहीं बिताने थे मुझे। आज भी सोचता हूं अगर अर्जून पंडित न देखा होता तो शायद मैं भी गांव के अपने दूसरे दोस्तों की तरह कहीं गुमनामी में खड़ा तमचें और बम बनाना सीख रहा होता।
    लेकिन  इन सबके बीच साथ बना रहा तो मेरा सिनेमाई प्रेम। ननिहाल के कड़े अनुशासन वाले माहौल में नौ बजे रात तक रट्टा मार-मार पढ़ना जरुरी होता। फिर खाना और सोना। सिनेमा सिर्फ रविवार की शाम को देखने की इजाजत थी। आज भी याद है शुक्रवार और शनिवार की वो रातें जब अपने कंबल के एक कोने को उठा चुपके-चुपके पूरी फिल्म देखा करता। कभी-कभी तो रात भर कंबल के नीचे सर गोते सिर्फ आवाज के सहारे ही पूरी फिल्म आँखों से गुजर जाती। एक नयी बात ये जरुर हुई कि अब अखबारों और सरस सलिल के माध्यम से फिल्मी खबरें भी पढ़ने को मिलने लगी।
मेरे साथ हमेशा यही होता है जब अपनी यादों की पोटली पसार बैठता हूं तो उसे समेटना मुश्किल सा हो जाता है। मीडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल में दाखिला लिया था हमने। सबसे दूर वाले स्कूल में। वजह ये कि वहां फिल्म के दो थियेटर थे और दूर होने की वजह से मामाओं का डर भी नहीं। बड़े परदे पर फिल्म देखने की जो ललक दलसिहंसराय में जगी थी उसके पूरे होने के दिन शुरू होने वाले थे। साईकिल से पांच किलोमीटर की रोजाना यात्रा। स्कूल में हाजिरी भी जरुरी होता। पहले हाजिरी बनती। साईकिल हम बाहर ही रख छोड़ते। एक दोस्त स्कूल के बाहर बाउंड्री के पार वाले हिस्से में खड़ा होता। हम धीरे-धीरे अपना बस्ता उधर फेंक देते। फिर एक चाहरदिवारी नुमा छत से नीचे की छलांग। सारा ध्यान साईकिल के पैडल पर। स्पीड..स्पीड...और स्पीड। एक भी सीन छूटना नहीं चाहिए। इस तरह हिन्दी-भोजपुरी फिल्मों के संसार में धड़धड़ाते पहुंच जाते हम। बड़े परदे की फिल्में, कि फिल्म के बीच ब्लेड फेंक देने से पर्दा फटने की कहानियां और न जाने क्या-क्या। चार या पांच रुपये में बेंच पर बैठ कर फिल्म देखने का वह सुख जरुर फिर दोहराना चाहता हूं। सुख का तेज अनुभव उस दिन भी हुआ था जब हम मैट्रीक की परीक्षा खत्म कर सिनेमा हॉल पहुंचे थे। थोड़े से बड़े होने के सुख ने सामने वाले फिल्मी परदे को भी उस दिन काफी बड़ा कर दिया था।
हाईस्कूल के बाद बेगूसराय शहर के एक लॉज में ठिकाना बना। लॉज भी एक दम दीपशिखा (शहर का सबसे सस्ता सिनेमाहॉल) के पास लिया गया था। कभी घर को फोन करके तो कभी बिना बताए ही। हम सिनेमा हॉल जाते रहते। कभी ना-नु करने पर लॉज के दोस्तों का रेडिमेड तर्क तैयार रहता- दिन भर पढ़ो और रात को तो सोना ही है तो उस टाइम में फिल्म देख लो। स्पेशल, डीसी, बीसी। ज्यादातर स्पेशल ही देखते। ब्लैक में टिकट लेने की न तो हिम्मत थी न पैसे। हमेशा घंटों लाइन में खड़ा हो ही टिकट लिया है- स्पेशल वालों की लाइन में भीड़ हमेशा ज्यादा होती। एक बार स्पेशल (सबसे सस्ता) वाले लाइन  में खड़ा क्लास की एक लड़की ने देख लिया था। उसका तो नहीं पता लेकिन मैं लगभग टिकट खिड़की के पास पहुंच कर लौट आया था। एक धक्का सा लगा था स्टेट्स सिंबल पर। आजतक स्पेशल में लड़कियों का जाना खराब और असुरक्षित सा माना जाता है। हां, संडे को जरुर मॉर्निंग शो में स्टूडेंट पास लेकर बीसी टिकट पर सिनेमा देखता था। ये जिश्म, जहर, क्योंकि, हम आपके हैं कौन, ताल जैसे फिल्मों का दौर था।
सोचता हूं अगर ये पार्टनरशिप नहीं होता तो हम जैसे बिहारी लड़कों का क्या होता... कई बार पैसे न होने पर पार्टनरशिप में फिल्में भी देखी है बेगूसराय के उस विष्णु नगर वाले मोहल्ले में। दो लोग तैयार होते। एक ही टिकट पर दो लोग देखते सिनेमा। इंटरवल से पहले और बाद में बंटा था। सिनेमा के बाद दोनों आपस में बैठ एक-दूसरे को कहानी बता फिल्म पूरी करते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि जो दोस्त आधे पैसे लेकर फिल्म देखने गया वो इंटरवल के बाद निकला ही नहीं। कई दिनों तक आपस में तनातनी बनी रही। कई बार लॉज का कोई पैसे वाला बोरिंग फिल्म देखने चला जाता। बीच फिल्म से टिकट ले लौट आता। वो टिकट जिसके हाथ लगी वो उस दिन मुकद्दर का सिंकदर बना घूमता।
सिनेमा ने फिर जिन्दगी को मोड़ा
बेगूसराय घर के संपर्क में रहता था। चुपके से लगता है घर को बता आया मेरे फिल्म देखते जाने और बिगड़ते जाने की कहानी। घर को लगा लड़के को पटने भेजते हैं शायद सुधर जाय। बड़ा शहर आपको बड़े सपने दिखाता है घर वालों ने शायद सोचा होगा। मेरे लिए बड़ा शहर मतलब और भी ज्यादा बड़े परदे पर सिनेमा देखने का लोभ मात्र था। पटने में अशोका-राजधानी का गौरव हुआ करता था। लेकिन पहली फिल्म इमरान हाशमी की देखी थी- अक्सर, रिजेन्ट में। बोरिंग रोड से गांधी मैदान फिर वही पैडल मारते साईकिल पर सवार। नाइट शो और लॉज के गेट फांदने का चस्का तो बेगूसराय में लगा लिया था।
ब्लैक में बेचे हैं टिकट मैंने
अशोक में पच्चीस रुपये स्पेशल का रेट था। लाइन में करीब दो घंटे पहले तो लग ही जाना होता। एक बार रब ने बना दी जोड़ी के लिए लाइन में लगे हुए थे। एक आदमी को सिर्फ तीन टिकट देना अलाउ था। मेरी बारी आई तो किसी ने पीछे से कहा- भैया, आप अकेले हैं, दो मेरे लिए भी ले लीजिए। मैंने ले भी लिया लेकिन उस आदमी को टिकट दिया नहीं- हड़काया। मुझे क्या फायदा होगा। उस आदमी ने जल्दी से पच्चीस वाले टिकट के लिए पचास हाथ में थमा दिया। दो टिकट के सौ रुपये। मतलब खुद की सिनेमा फ्री तो देखो ही साथ ही, खाते-पीते रहने का इंतजाम भी। इसके बाद कई ऐसी फिल्में देखी जिसमें खुद और दोस्तों को फ्री में सिनेमा दिखला लाया। यह नयाब तरीका उन दिनों सिनेमा देखने के लिए वरदारन बनकर आया था मेरे लिए।
एक बार घर से भागने का मन हो गया। लगा इस दुनिया में जीना है तो घर से भागना ही पड़ेगा। बिना बताये निकल गया पटना के डेरा से। डेरा में भाई और मामा के साथ रहता था। दिन भर घूमता सोचता रहा। इस बीच महावीर मंदिर पर जाकर दो घंटे बैठ आया। वहीं से अशोका फिल्म देखने आ गया- चक दे इंडिया। फिल्म पूरी होते-होते भागना कायरपना लगने लगा। फिल्म देख गांधी मैदान आया सीधे। डायरी में कुछ पन्ने लिखे। कुछ मन में ठाना और शाम तक डेरा लौट गया। फिल्में हमारी जिन्दगी में कब हौले से आ बैठ जाती हैं हमें इल्म तक नहीं हो पाता।
अब पटने से निकल गया हूं। दिल्ली के दिनों में वसंत विहार प्रिया में कई बार मॉर्निंग शो देखने जाता रहा। दिल्ली में ही कई विदेशी फिल्मों का चश्का लगा। ईरानी माजिद मजीद जैसे कई बड़े फिल्मकारों से भेंट हुई वाया सिनेमा। आईआईएमसी और जेएनयू के दोस्तों की बदौलत सिनेमाई ज्ञान में अब बुद्धिजीविता आ गयी है। अब चेन्नई एक्सप्रेस अच्छी नहीं लगती। दिवाकर और अनुराग के शॉर्ट फिल्में काफी पसंद आती हैं। इधर लूटेरा और मद्रास कैफे देख मन गदगद है। कई बार बौद्धिक बनने के लिए नांनटिज की फिल्मों को कूड़ा-करकट तक कह देता हूं लेकिन आज भी दूरदर्शन पर देखी वो फिल्में कहीं भीतर अंदर फंसी हुई हैं।
और बात है कि अब ठीक-ठाक आमदनी वाला लड़का हो गया हूं। घर वालों की नजर में -देखो सिनेमा बिगाड़ नहीं पाया मेरे राजा बेटे को टाइप। लेकिन आज भी सिनेमा देखता हूं- अब तो टिकट भी दो सौ से कम का नहीं होता। खुद भी देखता हूं-दोस्तों को भी दिखा लाता हूं।

फिलहाल पसंदीदा फिल्मों या यादगार फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी होने के बावजदू भी कुछ नाम रख दे रहा हूं-
अर्जून पंडित- वजह पूरे पांच साल तक मेरे जिन्दगी की जगह ही बदल कर रख दी। शायद आदमी भी बन पाया।
चक दे इंडिया- जिसको देखने के बाद घर छोड़ने का प्रोग्राम कैंसल किया। भागो नहीं दुनिया बदलो की ठानी है।
गोलमाल- जितनी बार देखता हूं उतनी बार तारोताजा
चश्मे बद्दुर- एक ऐसी फिल्म जिसे सौ बार लगातार देख सकता हूं।
द डिक्टेटर- चार्ली की हँसी के पीछे छिपे दर्द को उकेरने वाली शानदार फिल्म
चिल्ड्रेन ऑव हैवन्स, ब्यूटीफूल चिल्ड्रेन- बच्चों के बहाने ईरानी जिन्दगी और तकलीफों को चित्र की तरह कैनवास पर उकेर देने के लिए
मोटरसाईकिल डायरिज- कॉमरेड चे की कहानी
लूटेरा- बेहतरीन..बेहतरीन...बेहतरीन
मद्रास कैफे- हिन्दी फिल्मों का विदेश
हंगामा
हेरी फेरी
दो गज जमीन
 

Comments

Ek Sachhi Prem kahani jikra kiya aapne jo ki bahut achhi lagi. Being in love is, perhaps, the most fascinating aspect anyone can experience.

Thank You.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम