कुछ अलग और उल्लेखनीय फिल्में

-अजय ब्रह्मात्मज

नए विषय, नए प्रयोग या प्रस्तुति की नवीनता को हमेशा अपेक्षित सराहना नहीं मिलती, क्योंकि कई बार दर्शक भी उन्हें नकार देते हैं, लेकिन एक अरसा गुजरने के बाद हम उन फिल्मों को दोबारा जब देखते हैं, तो उनका महत्व समझ में आता है। इसके साथ कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं, जिनसे कोई अपेक्षा नहीं रहती, लेकिन दर्शक उनसे अभिभूत नजर आते हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह फिल्मों के विकास का भी यही मंत्र है। पुरानी चीजें छूटती हैं और नई कोशिशें जुड़ती हैं।


इस साल सबसे ज्यादा चर्चा भेजा फ्राई की हुई। छोटे बजट में मामूली एक्टरों को लेकर बनी यह फिल्म शहरी दर्शकों को खूब पसंद आई। इस फिल्म में शहरी ऊब, घुटन और हास्य को नए तरीके से पेश किया गया था। फिल्म ने कई स्तरों पर शहरी दर्शकों को लुभाया। गौर करें, तो यह फिल्म छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटरों में बिल्कुल नहीं चली, लेकिन मल्टीप्लेक्स से मिले व्यापार ने इसे उल्लेखनीय फिल्म बना दिया। अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग की तीखी आलोचना हुई और समीक्षकों ने उसे सहज रूप में नहीं लिया। अनुराग के प्रति कठोर रवैया अपनाते हुए समीक्षकों ने इस फिल्म को धो डाला। इस फिल्म के बिंबों, प्रतीकों और निहितार्थ को दर्शकों ने नहीं समझा। मूल रूप से इंसान की व्यक्तिगत आजादी और सिस्टम के शिकंजे की यह कहानी आम दर्शकों की समझ से परे रही। अनुराग ने स्वीकार किया कि हमें अपने दर्शकों के लिए स्पष्ट बिंबों के साथ सरल कहानी चित्रित करनी चाहिए।


मनीष तिवारी की फिल्म दिल दोस्ती एटसेट्रा की ज्यादा चर्चा नहीं हुई। यह फिल्म समाज में बढ़ रहे भेद को सही परिप्रेक्ष्य में रखती है। शहरी और छोटे शहरों के युवकों की सोच-समझ और आकांक्षाओं की परतों को यह फिल्म उद्घाटित करती है। सच तो यह है कि हिंदी में ऐसी राजनीतिक फिल्में कम ही बनती हैं। आमतौर पर राजनीति का मतलब हम पार्टी-पॉलिटिक्स ही समझते हैं। हम अराजनीतिक होने का दावा करते हैं, लेकिन समाज और देश की राजनीति हमें प्रभावित करती रहती है। एक चालीस की लास्ट लोकल अपने नए अंदाज के कारण अच्छी लगती है, तो मनोरमा सिक्स फीट अंडर नाम की विचित्रता के बावजूद छोटे शहर के संतप्त युवक की निराशा और मनोदशा को व्यक्त करती है।


श्रीराम राघवन की जॉनी गद्दार अधिक सफल नहीं रही। राघवन ने थ्रिलर फिल्मों की परंपरा में कुछ नया और आधुनिक करने का प्रयास किया। इस फिल्म की गति और सस्पेंस की निरंतरता रोमांचित करती है। राघवन को खुली छूट और पर्याप्त बजट मिले, तो वे और भी बेहतरीन और रोमांचक फिल्म बना सकते हैं। फिरोज अब्बास खान की गांधी माई फादर गांधी जी के जीवन के अज्ञात पहलुओं का मर्मस्पर्शी चित्रण करती है। हम राष्ट्रपिता गांधी को पिता के रूप में विचलित और विवश होते देखते हैं। पूजा भट्ट की फिल्म धोखा वैसे ही गुजर गई, लेकिन इस फिल्म में पहली बार मुसलमान नायक अपने अधिकारों और अस्मिता की बात करता है। ऐसी फिल्में लगातार आएं, तो सामाजिक वैमनस्य कम होगा। अल्पसंख्यकों की मनोदशा से परिचित होने पर परस्पर समझदारी बढ़ेगी। कौशिक राय की अपना आसमान और आमिर खान की तारे जमीं पर बच्चों के प्रति अधिक समझदार और संवेदनशील होने के लिए प्रेरित करती है। अंत में अमृत सागर की 1971 और सुधीर मिश्रा की खोया खोया चांद का उल्लेख जरूरी है। दोनों ही फिल्मों में अपने-अपने पीरियड की पीड़ा है। 1971 उन युद्धबंदियों की याद दिलाती है, जिन्हें हम भूल चुके हैं, तो खोया खोया चांद छठे दशक की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविक झलक देती है।

Comments

Anonymous said…
hi, he is a lovely and gorguos person ,I love him till i die!!!!!!!!!!

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