ढोल


-अजय ब्रह्मात्मज
प्रियदर्शन की फिल्मों का एक ढर्रा बन गया है। ढोल भी उसी ढर्रे की फिल्म है। फिल्म में एक ही नयापन है कि कुणाल खेमू पहली बार कामेडी करते नजर आए और निराश भी नहीं करते। शरमन जोशी, तुषार कपूर और राजपाल यादव फिल्म में घिसे-पिटे किरदारों में खुद को दोहराते हैं।
लंपट और मूर्ख नौजवानों के अमीर बनने की ख्वाहिश पर इस बीच आधा दर्जन फिल्में आ चुकी हैं। इन फिल्मों का हास्य अब फूहड़ता की सीमा में प्रवेश कर चुका है। फिर भी भद्दे मजाक, उल्टे-सीधे प्रसंग और कामेडी की कसरत देखते हुए दर्शक हंस ही देते हैं। वास्तव में कामेडी फिल्में दर्शकों को पहले से उस मनोदशा में ले जाती हैं, जहां हाथ का इशारा भी गुदगुदी पैदा करता है। हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक इसी का बेजा फायदा उठा रहे हैं, लेकिन ढोल जैसी फिल्में कामेडी की पोल खोल रही हैं। सावधान हो जाएं प्रियदर्शन और उन जैसे अन्य निर्देशक।

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