मुसलमान हीरो

पहले 'चक दे इंडिया' और फिर 'धोखा'... अ।गे-पीछे अ।ई इन दोनों फिल्मों के नायक मुसलमान हैं. और ये दोनों ही नायक हिंदी फिल्मों में सामान्य तौर पर अ।ए मुसलमान किरदारों या नायकों की तरह नहीं हैं. पहली बार हम उन्हें अ।सप।स के वास्तविक मुसलमान दोस्तों की तरह देखते हैं. याद करें तो हिंदी फिल्मों में मुसलमान किरदारों को त्याग की मूर्ति के रूप में दिखाने की परंपरा रही है. नायक का यह नेकदिल मुसलमान दोस्त दर्शकों का प्यारा रहा है, लेकिन निर्माता-निर्देशकों के लिए वह एक फार्मूला रहा है. फिर मणि रत्नम की 'रोजा' अ।ई. हालांकि काश्मीर की पृष्ठभमि में उन्होंने अ।तंकवादी मुसलमानों का चित्रण किया था, लेकिन 'रोजा'के बाद की फिल्मों में मुसलमान किरदार मुख्य रूप से पठानी सूट पहने हाथों में एके-47 लिए नजर अ।ने लगे.
'गर्म हवा', 'सरफरोश', 'पिंजर' अ।दि ऐसी फिल्में हैं, जिन में मुसलमान किरदारों को रियल परिप्रेक्ष्य में दिखाया गया. उन्हेंइन फिल्मों में किसी खास चश्मे से देखने या सांचे में ढ़ालने के बजाए वास्तविक रूप में चित्रित किया गया. हिंदी फिल्मों में न जाने किस वजह से निर्माता.निर्देशक मुसलमान किरदारों को मुख्य भूमिकाओं में लेने से बचते रहे हैं. भारतीय समाज में मुसलमान समुदाय जिस प्रतिशत में हैं, उसी प्रतिशत में उन्हें हिंदी सिनेमा के पर्दे पर प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. और सिर्फ मुसलमान ही क्यों, बाकी समुदायों से भी हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक परहेज करते हैं. एक तर्क दिया जात। है कि चूंकि इस देश के अधिकांश दर्शक हिंदू हैं, इसलिए मुख्य किरदारों के नाम हिंदू परिवारों में प्रचलित नाम होते हैं. किसी रोमांटिक या लव स्टोरी फिल्म के नायक-नायिका मुसलमान नहीं होते. यह एक अघोषित नियम है.
चालीस-पचास साल पहले मुसलिम सोशल के नाम पर मुसलिम परिवेश की फिल्में अ।ती थीं. इन फिल्मों में मुसलिम तहजीब, रवायत और सलीकों का सुंदर चित्रण रहता था. पर्दा, शेर-ओ-शायरी और नाच-गानों से भरपूर इन फिल्मों की अलग रंगत रहती थी. धीरे-धीरे ऐसी फिल्मों का माहौल इतना नकली और कृत्रिम हो गया कि दर्शकों ने ऐसी फिल्मों में रुचि लेना बंद कर दिया. नतीजतन ऐसी फिल्में बननी बंद हो गई. मुसलिम परिवारों को लेकर श्याम बेनेगल ने 'मम्मो', 'सरदारी बेगम' और 'जुबैदा' का निर्देशन किया. इस त्रयी का लेखन खालिद मोहम्मद ने किया था. खालिद मोहम्मद ने सचमुच मुसलिम परिवेश को उसकी धड़कनों और बारीकियों के साथ चित्रित किया थ।. बाद में उन्होंने खुद 'फिजा' बनाई तो उसमें शहरी मुसलमान युवक के द्वंद्व को सामने रखा.
'चक दे इंडिया' और 'धोखा' में मुसलमान किरदारों के चित्रण की ताजगी प्रभावित करती है. शिमित अमीन और पूजा भट्ट ने अपने नायकों को मॉडर्न मुसलमान नागरिक के तौर पर पेश किया है. 'चक दे इंडिया' में गद्दार के आरोपों से घिरा कबीर खान खुद को राष्ट्रवादी साबित करता है. वह विजेता महिला हॉकी टीम का गठन करता है. वह सवाल भी करता है कि आखिर क्यों हमें ही अपनी राष्ट्रीयता साबित करनी पड़ती है? यह एक अहम सवाल है. आखिर क्यों हर मुसलमान को शक की निगाह से देखा जात। है? 'धोखा' का नायक जैद अहमद अपनी बीवी के जेहादी हो जाने का पक्का सबूत पा जाने पर भी खुद को उससे अलग रखते हुए सच की तह तक पहुंचता है. अपने अधिकारों के लिए उसकी दृढ़ता हिंदी फिल्मों और भारतीय समाज के लिए नयी घटना है. हमें इसका स्वागत करना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि और भी निर्माता-नर्देशक ऐसे वास्तविक मुसलमान किरदारों को लेकर फिल्में बनाएंगे. एक-दूसरे के प्रति समझदारी विकसित करने में ऐसी फिल्में सहायक हो सकती हैं. साथ ही भारतीय समाज में मुसलमान नागरिकों के योगदान को भी सही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकेगा.

Comments

Anonymous said…
चवन्नी ने बिल्कुल सही बात की है.आखिर क्यों हर मुसलमान का राष्ट्रीयता की परीक्षा देनी पड़ती है.भाई हम सभी इसी देश के समान नागरिक है.अगर सिनमा छवि बदल सके ताे बहुत अच्छा है.
Manas Path said…
लोगों की मानसिकता बदलने की भी जरूरत है

अतुल

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