क्यों वंचित रहे चवन्नी ?



पिछले दिनों अजय ब्रह्मात्मज ने दैनिक जागरण के मनोरंजन परिशिष्ट 'तरंग' के अपने कॉलम 'दरअसल' में चवन्नी सरीखे दर्शकों की चिंता व्यक्त की. आजकल मल्टीप्लेक्स संस्कृति की खूब बात की जा रही है, लेकिन इस मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने नए किस्म का मनुवाद विकसित किया है. मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस मनुवाद के बारे में सलीम आरिफ ने एक मुलाकात में बड़ी अच्छी तरह समझाया. क्या कहा,आप उन्हें नहीं जानते? सलीम आरिफ ने गुलजार के नाटकों का सुंदर मंचन किया है. रंगमंच के मशहूर निर्देशक हैं और कॉस्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर खास स्थान रखते हैं.

बहरहाल, मल्टीप्लेक्स संस्कृति की लहर ने महानगरों के कुछ इलाकों में सिंगल स्क्रीन थिएटर को खत्म कर दिया है. इन इलाकों के चवन्नी छाप दर्शकों की समस्या बढ़ गई है. पहले 20 से 50 रूपए में वे ताजा फिल्में देख लिया करते थे. अब थिएटर ही नहीं रहे तो कहां जाएं ? नयी फिल्में मल्टीप्लेक्स में रिलीज होती हैं और उनमें घुसने के लिए 100 से अधिक रूपए चाहिए. अब चवन्नी की बिरादरी का दर्शक जाएं तो कहां जाएं ?

चवन्नी चैप जिस इलाके में रहता है. उस इलाके में 6 किलोमीटर के दायरे में लगभग पचास स्क्रीन के आधे दर्जन से ज्यादा मलटीप्लेक्स हैं. इन मल्टीप्लेक्स पर लगे नयी फिल्मों के बड़े-बड़े पोस्टर देख कर चवन्नी का मन ललचाता है, लेकिन उसे सब्र करना पड़ता है. आस-पास के सिंगल स्क्रीन में वाहियात हिंदी फिल्में या भोजपुरी फिल्में ही चलती हैं. ऐसे में चवन्नी को वीसीडी या डीवीडी की दरकार पड़ती है. चवन्नी की बिरादरी पर आरोप है कि उनकी वजह से ही पायरेटेड वीसीडी/डीवीडी का धंधा चलता है. लेकिन आप ही बताओ ना,चवन्नी क्या करें?

आप सुधी जन ही बताएं. चवन्नी क्या करे? नयी फिल्में देखने वह कहां जाए? क्या सिनेमा देखना भी अमीरों का शौक बन जाएगा? कुछ तो करें आप लोग. चवन्नी मल्टीप्लेक्स संस्कृति में वंचित नहीं रहना चाहता. चवन्नी का भी अधिकार है कि वह ताजा से ताजा फिल्म देखे, मगर कैसे? पड़ोसी केबल वाला भी तो अब डर से पायरेटेड डीवीडी नहीं चलाता. क्या अब चवन्नी को अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और अ।मिर खान की फिल्म देखने के लिए हर बार दो महीने रूकना पड़ेगा ?

Comments

Anonymous said…
वाजिब चिंता..
इसी विषय पर पहले कुछ लिखा था। यहां पर
http://neerajdiwan.wordpress.com/2006/11/05/multiplex/
Anonymous said…
चवन्‍नी को वही करना चाहिए, जो वो कर रहा है। एक जिज्ञासा। हर चवन्‍नी के पास अठन्‍नी का दिमाग़ होता है- क्‍योंकि चवन्‍नी तो हमेशा चवन्‍नी रहना चा‍हेगा। इसलिए ये बताइए, पायरेसी से अलग मल्‍टीप्‍लेक्‍सेज़ का देसी तोड़ चवन्‍नी कैसे निकालेगा? कुछ कल्‍पना कीजिए, कुछ रेखा चित्र बनाइए- और हमें दस पइसे में उपलब्‍ध करवाइए।
Anonymous said…
चवन्‍नी तो हमेशा चवन्‍नी रहना नहीं चाहेगा - ये पढ़ें।
Unknown said…
समाधान तो हम सभी को मिल कर खोजना होगा.मल्टीप्लेक्स की महामारी जल्दी ही मझोले शहरों में पहुचेगी और फिर छोटे शहरों और कस्बों को भी बपने चपेट में लेगी.
SHASHI SINGH said…
बहुत ही वाजिब फ़िक्र है चवन्नी। ये हमारे आपके जैसे चवन्नी छाप सिनेमाप्रेमियों के वजुद का सवाल है, यदि हम जैसे दर्शकों का वजुद नहीं रहेगा तो हमसे जुड़े सामाजिक सरोकारों को भी सिनेमा अपने दायित्वों की सूची से बाहर कर देगी। भगवान जाने ऐसी सूरत में सिनेमा कैसी दीखेगी? लेकिन हमें पायरेसी से बेहतर कुछ विकल्प ढूंढने होंगे।
वाह री चवन्नी तेरा किरदार
गांव की कच्ची दीवारों से पूछ रहा था कल कोई
कितने घर ढाये जाएं तो एक महल बन जायेगा ।
अविनाश जी आपने ठीक कहा, हर चवन्नी के पास अठन्नी का दिमाग़ होता है और अजय जी की चवन्नी के पास तो शायद एक रुपये का दिमाग़ है। जिन मुद्दों से चवन्नी लड़ रही है और जिन चिंताओं पर चिंतन करने को मजबूर कर रही है, वह दिन दूर नहीं जब यह चवन्नी हजार रुपये में चलने लगेगी।

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